बिहार
[पाटलिपुत्रा]
"संस्कृत का सार विहार है, कौरव अपार विहार है,ये कर्म भूमि महान की......................गंगा की धार विहार है।"
भारत वर्ष का सबसे गौरवशाली सम्राज्य और २५०० साल से मगध की राज्यधानी पाटलिपुत्र।भारत के इतिहास के सबसे सर्वणिम पन्नो में लिपटा है, विहार।रामायण काल में इसी धरती पर जन्मी थी सीता।महाभारत युग में यही राजा जरासंघ ने राज्य किया था।भगवान श्री कृष्ण को रण छोड़ने को मजबूर किया था।इसी धरती ने दुनिया को पहला सम्राट दिया।लिच्छवी राजाओ ने इतिहास को पहला लोकतांत्रिक गणराज्य दिया।यह भूमि है महावीर की भगवान बुध्द की, चाणक्य की, आर्यभट की, कालिदास की,ये भूमि है आंदोलन की ये भूमि है विहार की।
आज से करीब २५०० साल पहले की बात है।मगध का एक राजा था।उसका नाम था, अजातशस्त्रु।अजातशस्त्रु जितना वीर था उतना ही कुरुर भी उसने राजा बनने के लिए अपने पिता वीबिंसार को भी बन्दी बना लिया।अजातशत्रु जब राजा बना था तब मगध केवल गंगा के दक्षिण तक ही सिमित था।अजातशत्रु अपने राज्य के विश्तार के लिए आस-पास के शान्ति प्रिय राज्यो पर आक्रमण करने लगा।एक-एक क्र उसने वैशाली,काशी,कौशल समित ३६ राज्यो को मगध में मिला लिया।
लगभग इसी वक्त पर विहार की भूमि पर साथ-साथ भगवान महावीर और गौतम बुध्द का वास था।५९९ ई.पूर्व में वैशाली में जन्मे थे जैन धर्म के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर।गौतम बुध्द का जन्म उनके २२ साल बाद हुआ था।परम् ज्ञान की तलास में वो भी विहार की धरती पर वास करते थे।समाज में भगवान महावीर और गौतम बुध्द के शान्ति,अहिंसा, सत्य और कर्म के उपदेश परिवर्तन ला रहे थे।कहते है इन उपदेशो ने राजा अजातशस्त्रु पर भी प्रभाव डाला था।विंबिसार के वक्त तक मगध की राज्यधानी थी राजगृह ,जिसे आज हम राजगीर कहते है।यह बहुत सुंदर शहर है चारो ओर पहाड़ियां है।लेकिन अजातशस्त्रु के शस्त्रु तेजी से बढ़ रहे थे।राजा ने अपनी मंत्री को बुलाया,कहाँ ऐसी राज्यधानी ढूढो जिसपर कोयी आक्रमण न क्र सके।उनके मंत्रियो ने दिन-रात एक कर दिया।तब गंगा किनारे पाटलिग्राम उन्हें खूब पसंन्द आया।यहाँ एक राजधानी की नींव रखी गई।इस शहर को नया नाम मिला "पाटलिपुत्र"। कहा जाता है जब पाटलिपुत्र का निर्माण हो रहा था ,तब गौतम बुध यहां आये थे किले को देखकर उन्होंने कहा----तीन चीजे इस जगह के लिए संकट खड़ी कर सकती है:---अग्नि, जल और गृह कलह।आग और पानी के संकट से पर कलह के विच तो पाटलिपुत्र आज भी उलझा है।पाटलिपुत्र और आज के दौर में पटना के नामाकरण को लेकर भी कई कहानिया है।:--कहते है गंगा और शोण नदी के वजह से यहां बन्दरगाह था।बन्दरगाह यानी पाटन, पाटन से ही पहले ही पहले पाटलिपुत्र और फिर पटना कहलाया।दुसरा खिस्सा पौराणिक है ,जब भगवान शिव शती के शरीर को लेकर जा रहे थे,तब शती का पट यानी जांघ का हिस्सा जहां गिरा था उस जगह पर आज पतन देवी है और रक्क्षक देवी के नाम पर ही, शहर का नाम परा है।
अजातशस्त्रु का शासन करीब ३२ वर्ष तक चला।उनके शासन काल में मगध का खूब विश्तार हुआ और पाटलिपुत्र दुनिया का सबसे बड़ा शहर बन गया।अजातशस्त्रु हर्यंक वंश के राजा थे।जिसका शासन उनके बाद ४२ शाल और चला फिर आया शिशुनाग वंश और उसके करीब ७० साल बाद मगध पर शासन हुआ नंदवंश का।नंदवंश के आखरी राजा के नाम था धनानन्द।उनके दौर में पाटलिपुत्र से समृध्द शहर दुनिया में कोई नहीं था।लेकिन यह समृध्द बस राज महल में थी।धननानंद के राज में चमड़े से लेकर पत्थर तक पर टैक्स लगा दिया गया।अत्याचार से जब जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी।इसी दौर में एक प्रसिध्द विद्वान भी थे।तक्क्षशिला के विष्णुगुप्त {कौटल्य[चाणक्य]} ।
३२७ ई.पूर्व ग्रीश का योध्या सिकंदर राज्यो को जीतते हुआ भारत की ओर बढ़ रहा था।तक्क्षशिला के राजा ने भी उसके आगे घुटने टेक दिए थे।तब पोरस नाम से जानेवाले पुरुराज्य पोरव ने मुकाबला किया।पर उसकी विशाल शेना के आगे टिक न सके।चाणकय दूर-दरसी थे, वो विदेशी आक्रमण के सम्पूर्ण क्षेत्र के लिए अन्धेरा बभिश देख रहे थे। चाणक्य ने सबसे शक्तिशाली राज्य मगध से भारतवर्ष की रक्क्षा की गुहार लगायी।कहते है,चन्द्रगुप्त की सेना ने कई बार मगध पर आक्रमण किया आखिरकार चन्द्रगुप्त मोर्य सफल हुए।और ३२१ ई.पूर्व में पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया।इस दौर की राजनीति अर्थहीन थी।हर ओर उत्पीरण का साम्राज्य था।सम्राज्य दिशाहीन था,देश टुकरो-टुकरो में बट्टा था।चाणक्य ने राज्यनीति के मायने बदल दिये। समाज को दिशा दिखाई, कूटनीति का समावेश किया टुकरो में बट्टे देश को विशाल सम्राज्य बनाया।आज भारतीय राजनीति में जोड़-तोड़, दाव-पेच की जो शतरंजी छाले दिखती है, उसके जनक चाणक्य ही है।चाणक्य के शुत्र ओर उपदेश सदाबहार है।चाणक्य के ग्रन्थ अर्थशास्त्र में एक राज्य के आदर्श अर्थंत्रन्त्र वर्णन है।इसमें राज्यशाही के सविधान के रूप रेखा है यानी विधि-विधान से लिखा गया राज्य का पहला सविधान पाटलिपुत्र की भूमि की उपज है।जब चन्द्रगुप्त मोर्य का राज्याभिषेक हुआ तब तक सिकन्दर की मृत्यु हो चुकी थी।लेकिन उसके जनरल वापस नहीं लौटे थे।जितना इलाका सिकन्दर ने जीता था, उसके छोटे-छोटे हिस्सो पर ये जनरैल अपनी हुकूमत चला रहे थे।यानी मगध की सीमाओ पर देशी आक्र्मताओ का भय बना हुआ था।चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर के जनरैल को एक-एक कर हराना शुरू कर दिया।सबसे बरी जित थी सिकंदर के जनरैल स्कूल्स पर जिसको हरा कर पर्सिया का बड़ा हिस्सा चन्द्रगुप्त ने मगध में जोड़ लिया।चंद्रगुप्त मोर्य के अधीन मगध सम्राज्य अखण्ड भारत की तश्वीर था।पर मगध का असली गौरव अभी दुनिया ने देखि ही कहाँ थी। मगध रामराज्य विशाल था।दूर-दूर तक फैला था।लेकिन मध्यपूर्व में एक छोटा सा गणराज्य था,कलिंग जो चन्द्रगुप्त मोर्य और उनके बेटे राजा बिंदुसार की लाख कोशिसों के बाबजूद मगध का हिस्सा नहीं बन पाया था।पर अब मगध का एक नया राजा था बिंदुसार का बेटा अशोक।अशोक बहुत अत्याचारी या लोग उसे चण्ड अशोक कहा करते थे।अशोक अपने सम्राज्य का और अधिक विश्तार करना चाहता था और कलिंग विजय तो अशोक के लिए प्रतिष्ष्ठा का प्रश्न था।अपने शासन के ८वी शाल में २३१ई.पूर्व में अशोक ने पूरी ताकद से कलिंग पर आक्रमण कर दिया।मगध के विशाल फ़ौज के आगे कलिंग के सेना की कोई मिशाल नहीं थी।उन्होंने कलिंग को रौंध दिया।जम कर लूट-पाट मचाई। कहते है ऐसा कत्लेआम मचा की रणभूमि के बगल से गुजरती दया नदी लहू से लाल हो गई।कलिंग का विनाश हो गया लेकिन इस नरसंघार ने एक नये आशोक को जन्म दिया।चण्ड अशोक की जगह अशोक महान।इस युध्द के बाद चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने कभी किसी पर आक्रमण नहीं किया।उन्होंने अपना पूरा ध्यान मगध के कुशल शासन पर लगाया।शिक्षा के विकास पर लगाया।वह बौध्द धर्म के अनुयायी हो गये।अहिंसा का सन्देश फैलाया।अशोक अपनी विरासत को इतिहास के सुप्रषिद्धय करना चाहते थे।अस्त्म्भ दीवारों पर अशोक के आदेश अंकित हुए।आज तिरंगे के बीचो-बिच राजा आशोक चक्र उस सम्राट की सबसे बड़ी निशानी है।यह अशोक का धर्म चक्र था जिसके १२ तिलिया अविधिया से दुःख और बाकी १२ तिलिया दुःख से निवारण अवस्था दरशाती है।इसके अलावा हमारा राष्ट्रीय चिन्ह भी सम्राट अशोक के स्तम्भ पर ही सजता था।विहार की धरती अगर खुनी संघर्ष का रण क्षेत्र बनी तो अहिंसा का सबसे बड़ा सन्देश यही से निकला।अगर नन्दवंश का कुशासन यहां था,तो सम्राट अशोक का आदर्श शासन भी यही था।पाटलिपुत्र के धरती ने चाणक्य जैसे महान चितंक से विश्व को परिचय करवाया तो आर्यभट्ट की कर्म भूमि भी मगध ही थी।गणितग आर्यभट्ट ने दुनिया को पहली बार बताया था की पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।उन्होंने आर्कमडीज से अधिक सटीक π(पाई) का अनुमान बताया था।आर्यभट्ट ने विश्व को शून्य का ज्ञान दिया।और मगध को ज्ञान के केंद्र में बैठा दिया।विहार की धरती पर एक से बढ़ कर एक महान विध्वान हुए।संस्कृत वयाकरण के पहले प्रवर्तक प्राणी, महा कवि कालिदास, कामसूत्र के रचेता मर्हशी वार्षयण। सब किसी न किसी रूप में इस भूमि से जुड़े थे।लेकिन प्राचीन काल में पाटलिपुत्र का गौरव मध्यकाल आते-आते धुंधला पर गया।१२ वी सदी में मुहम्मद गोरी ने एक एक कर मुल्तान से लेकर दिल्ली तक पर फतह कर लिया।उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुछ को दिल्ली का सुलतान घोषित किया।सत्ता का केंद्र बदल गया।१२ वी सदी के मध्य तक कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनापति इख्तयार खिलजी ने बिहार और बंगाल को जित लिया।और पाटलिपुत्र दिल्ली स्ल्तनत का हिस्सा बन गया।इख्तायर खिलजी ने गुप्त वंश के दौरान बने शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र नालन्दा को तहस-नहस कर दिया। यहां कभी दूर-दूर देश से छात्र पढ़ने आया करते थे।पाटलिपुत्र शत्ता का केंद्र होने का गौरव पहले ही गवा चुका था,इस आक्रमण के बाद मगध ने शिक्षा और संस्कृति का केंद्र होने की ख्याति भी गवा दी।ईऐतिहास को खण्डर में तब्दील क्र विदेशी आक्रमणताओ ने नालन्दा को अपना सैन मुख्यालय बना लिया।सेना रहने के लिए नस्ट किये हुए बौध्द विहारो का इस्तिमाल करने लगे।इन विहारों के नाम पर ही धीरे-धीरे समूचे क्षेत्र को विहार कहा जाने लगा। मुगल काल में १५४०मे शेरशाह शुरी का शासन आया तब जा कर विहार की अहमियत फिर बढ़ी।पाख्तून शेरशाह का जन्म विहार के सासाराम में हुआ था।उनका असली नाम फरीद खान था।कहते है उन्होंने विहार की शेर घाटी में एक शेर को मार दिया था।इस के बाद उनका नाम शेरशाह पाया।शेरशाह ने अपनी ५ साल के शासन में राजधानी को एक नई गौरवशाली रूप में लाने की कोशिश की।पाटलिपुत्र अब पटना कहलाने लगा था।शेरशाह के जरिये विहार की भूमि ने फिर भारत का गौरव बढाया।शिक्के गढ़ने की शुरुआत शेरशाह के शासन में हुई थी।हलाकि उनकी सबसे बरी विरासत रही ग्रांड ट्रंक रोड जो कभी कलकत्ता से काबुल तक जाती थी।५ साल के शासन के बाद ही शेरशाह की असमय मिर्त्यु हो गई। पटना की शानो-शोकत का दौर एक बार फिर खत्म हो गया।हाँ उस दौर में पटना का जिक्र एक बार और आता है। १७०४ ई में औरंगजेब का पोता मुहम्मद अजीम आया।उसने जिद्द की शहर का नाम उसके नाम पर रख दिया जाये। तब कुछ समय के लिए पटना अजीमाबाद कहलाया था।इसी दौर में पटना शहर में एक महान योध्दा ने जन्म लिया, सीखो के १० गुरु और खालसा पन्त के संस्थापक गुरु गोविंदसिंह।गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्म गुरु थे।लेकिन सत्य और न्याय के रक्क्षा के लिए उन्होंने हथियार भी उठाया।विहार की धरती से इस महानपुरुषो के जरीये बदलते वक्त के साथ दुनिया बदलते मूल्य शिख रही थी।अभी दुश्मन औरंगजेब था।लेकिन भारत के धरती पर एक नए दुश्मन से सामना होने वाला था।१७१७ में नवाओ का शासन आया।तब विहार बंगाल का हिस्सा बन गया।और पटना एक व्यवसायिक केंद्र के तौर पर विकसित हुआ।आम लोगो पर भारी लेकिन १७वी शादी में पटना अंतराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र बन गया।पटना से करीब १२० किलोमीटर की दुरी पर है बक्सर जहां १७६४ में ईस्ट इंडिया कम्पनी की शेना और मुगलो और बंगाल नवाब की संयुक्त शेना के बिच युध्द हुआ था।वेहद कम शंख्या होने के बावजूद अंग्रेजो ने यह युध्द जित लिया।उसके बाद बंगाल यानी विहार का पूरा हिस्सा अंग्रेजो के नियंत्रण में आ गया।चुकी अंग्रेज वेव्शायिक फाईदो को देखते हुए ही हिंदुस्तान आये थे,पटना उनके लिए एक अहम केंद्र बना।पटना पहले से व्यापार के लिहाज से महत्वपूर्ण था।अंग्रेजो ने कलकत्ता के बाद पटना को अहिमियत दिया।दूसरी तरफ थे आरा के ८० शाल के वीर कुँवर सिंह।२७ अप्रैल १८५७ को दानापुर कैप के सिपाहियों और बाकी शाथियो के साथ शहर पर बावू कुँवर सिंह ने कब्जा कर लिया था।अंग्रेजो ने आक्रमण किया तो युध्द वीरगंज और विहिया जंगलो तक पहुचा क्रान्ति के कुरुर दमन के बिच अंग्रेजी शासन में पटना एक बार फिर अपने खोये हुए वैभव को हासिल करने लागा था।जब १९१२ में बंगाल का बटवारा हुआ तो बिहार उड़ीसा के संयुक्त प्रांत की राजधानी पटना के सबसे पुरानी सरक बेली रोड का विकास किया,बाकीपुर इलाके का निर्माण किया।आज पुराना इलाका पटना शिटी कहलाता है।जब की अंग्रेजो के बनाये नये शहर में शचिवालय, उच्चन्यालय, राज्यभवन, विधानशभा का निर्माण केवल ४ साल में कर लिया गया।ब्रिटिश हुकूमत के व्दरान ही पटना में स्कुल,कॉलेज निर्माण हुआ।पटना कॉलेज, पटना सांइस कॉलेज इसी दौर की दें है।१९३५ में उड़ीसा को विहार से अलग कर दिया गया।लेकिन विहार की राजधानी पटना ही रही।लेकिन भौतिक विकाश के आगे गुलामी का एहसास खत्म नहीं हो रहा था।नए रंग रोगन नये भूमिका के बिच विहार कैसे रखने वाला था आजाद भारत की नीति।चम्पारण की भूमि से उपजा वह सबसे आंदोलन।कहते है इतिहास खुद को दोहराता है।विहार की भूमि पर बीते हर कल का सफर हुए न जाने इतनी मिसाल हमे याद आ रही है।इसी धरती से भगवान महावीर ने पहली वार दुनिया को अहिंसा का सन्देश दिया था। यही से आधुनिक दौर में अहिंसा का सबसे प्रबल आह्वान होने वाला था।विहार के चम्पारण उनदिनों निल की खेती करना किसानों का हाल बुरा था।अंग्रजो के आदेश पर किसानों ने खेती तो की लेकिन अंतराष्ट्रीय बाजार में नये उत्पादों की वजह से अब उन से कोई निल खरीदता ही नहीं था।अंग्रेज फिर भी पूरा लगान मांग रहे थे।विहार की धरती से गांधी जी ने दो बात समझी----(१)समाजिक समानता के लिए संघर्ष (२) अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन का महत्व।
आगे चलकर गांधी जी ने आंदोलन के जरीये पुरे देश को एक शुत्र में बांधा और अंग्रेजो को हिंदुस्तान से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया।१९४७ में देश आजाद हो गया लेकिन विहार का इतिहास यहां से एक नई करवट ले रहा था।आजाद भारत में विहार का किरदार :--------------------------------------------------
इतिहास के पन्नो पर नये अध्याय लिखने में विहार हमेसा आगे रहा।लेकिन इतिहास को सहेज कर रखना विहार की आदत नहीं
आज हम आधुनिक विहार की इतिहास का खिस्सा पाटलिपुत्र का वो दास्ता जहां हमे वर्तमान की भी झलक दिखती है। वक्त के ठहरे पल्लो में हम आज की खानी की सुरआत स्वत्रंता संग्राम से करते है।जब उस धढड़कती ज्वाला में विहार के राजनितिक भविष्य के कुंदन तप के तैयार हो रहे थे।
आजादी के इस जंग में विहार के युवा अपना सबकुछ कुर्वान कर रहे थे।एक तरफ खुदीराम बोस और प्रफुल चाँकी जैसे नोजवान थे।जिन्होंने हस्ते-हस्ते मौत को गले लगा लिया।दूसरी तरफ नोजवानो की एक ऐसी पीढ़ी जो महात्मा गांधी से प्रभावित थे।विहार के माटी से स्वतन्त्रता के शेणानि उपज रहे थे। डाँ.राजेन्द्र प्रसाद बाबू, बाबू जंगजीवन राम,श्री कृष्ण सिह्ना,अनुग्रह नरायन सिंह,जयप्रकाश जैसे ऐसे महान पुरुष जो विहार ही नहीं समूचे भारत के नायक थे।लेकिन पाटलिपुत्र की भूमि भी कमाल है।जिस माटी ने देश को पहला पछड़ी जाती का सम्राट 'चन्द्रगुप्त मोर्य' दिया।वहाँ जातिवाद रंग-रंग में विरोध में भी आवाजे वुलन्द होती रही।इस बिच गांधी जी की कोसिस और बदलते राष्ट्रीय परिवेश के बिच अंग्रेज की हुकूमत का अंदाज भी बदल रहा था।१९३६ में विहार के पहले प्रांतीय चुनाव होने वाले थे।और सियासत में जातीयता की आहत सुनाई देने लगी।दसको से कन्धे-से-कन्धे मिलाकर आजादी की लराई लर रहे श्रीकांत कृष्ण सिंह और अनुग्रह कोण करेगा इसे लेकर खीचतान मच गई ।दरसल विहार की राजनीति में हमेसा से ही जाती की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।श्री कृष्ण बाबू भुमियार नेता थे और अनुग्रह नरायन सिंह राजपूत।दोनों के समर्थको में पड़ के लिए एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया।आखिर कर डाँ राजेन्द्र प्रसाद को नेता पद के चयन के लिए अधिकृत किया गया।जातियो गुट में जमकर ठनी,जिमूतवान सेना ने तो राजेन्द्र प्रसाद को ही प्रिमीयर बना देने का प्रस्ताव रख दिया।कहना गलत नहीं की डाँ राजेन्द्र प्रसाद से लेकर विहार के सभी प्रतिष्ठित नेता अपने-अपने जातीय संगठन से जुड़े हुए थे।यही नहीं उच्च जातियो से अलग पिछड़ो के भी जाती संगठन थे।विहार में समाजिक बराबरी का आंदोलन तो लम्बे समय से चल रहा था।लेकिन १९३० के दसक में ये राजनितिक शक्ल ग्रहण करने लगा था,समाजिक आंदोलन की बागडोर त्रिवेणी संघ के हाथो में थी ।१९३७ के चुनाव के लिए त्रिवेणी संघ के नेताओ ने डाँ राजेद्र प्रसाद को पिछड़ी जाती की एक सूचि सौपी लेकिन कांगेस ने उस पर ध्यान नहीं दिया।असेंम्ली में दलित नेता बाबू जंगजीवन राम जरूर सामिल थे।लेकिन उन्हें मंत्री मण्डल में जगह न दी गई।१९४६ में बाबू जगजीवन राम जवाहर लाल नेहरू की सरकार में सबसे कम उम्र में मंत्री भी बने लेकिन राज्य की आबादी के सबसे बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाली जातियो के प्रतिनिधि सिरे से गायब थी या न के बराबर थी।मुख्य धारा की राजनीति में समाजिक बराबरी का महत्व साकेंतिक ही रहा।खैर इस खीचतान के बिच कांग्रेश ने जबरदस्त बहुमत से चुनाव जीता।उस वक्त राज्यो के मुख्यमंत्री नहीं बल्कि प्रिमीयर यानी प्रधानमंत्री हुआ करते थे।श्री कृष्ण सिंह विहार के प्रधानमंत्री और अनुग्रह नरायन सिंह उनके उपप्रधानमंत्री नियुक्त किये गए।लेकिन सालो से एक साथ आजादी की लराई लड़ने वाले के बिच भी वर्चस्व की कड़वाहट धूल चुकी थी।विहार की राजनीति में श्री कृष्ण सिंह को विहार का केसरी कहा जाता था।और अनुग्रह नरायन को विहार विभूति।आजादी के वाद से विहार के विकास के लिए इन दोनों ने साथ-साथ खूब काम किया।विकास की समीक्छा के लिए जब तत्तकालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पॉल.एच.एप्लवी को अलग-अलग राज्यो के दौर पर भेजा तो अपनी रिपोट में उन्होंने विहार को सवर्श्रेष्ठ राज्य घोसित किया।लेकिन पद को लेकर एक खामोसी सी तना-तानी कायम रही।आजादी के बाद हुए पहले चुनाव में टिकट बटवारे को लेकर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री आमने-सामने थे। तनाव इतना बढा की नेहरू ने दोनों को दिल्ली तलवे कर लिया।इसके बावजूद छीछालीदर इतनी हुई की अखबार में भी खूब थू-थू हुई।दरसल आजादी के बाद से डाँ राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति के तौर पर केंद्र की ओर प्रस्थान कर चुके थे।जगजीवन राम भी केंद्र मंत्री मण्डल का हिस्सा थे।जयप्रकाश नरायन का तो कांग्रेश से मोह भंग १९३४ में ही हो गया था।वो सोसलिस्ट पार्टी के हिस्सा थे।विहार की राजनीति में अब केवल दो धुरी थी।बाबू श्री कृष्ण ओर अनुग्रह बाबू।जातीयता के मुद्दे को लेकर जयप्रकाश नरायन ओर श्री कृष्ण बाबू के बिच का परत्रा-चार काफी चर्चित है।जे.पि.ने श्री कृष्ण सिंह को एक पत्र में लिखा था,"महेश प्रताप सिंह और के.वी.साहाय १९५७ का चुनाव हार गये।सहाय को कुछ भी न मिला पर महेश बाबू राज खाड़ी बोर्ड के अध्यक्ष बना दिए गये।आप मुझसे बेहतर जानते है की विहार की राजनीति कितना निचे गिर चुकी है और कितना भष्ट्राचार पनप चुका है।आप और अनुग्रह बावू के बिच प्रतिवदीनता के कारण राज्य में जातीयता ने खतरनाक स्वरूप ग्रहण कर लिया है।"इस पत्र के जवाब में श्री कृष्ण सिंह ने न केवल जे.पि. के आरोप्प का खण्डन किया बल की एक अन्य पत्र में पलटवार किया।उन्होंने लिखा ,'जे.पि. भी जात-पात से ऊपर नहीं उठ पाए वो चाहते है की उनकी ही कास्थ जाती के के.वी.सहाय को मै अपना उत्तराधिकारी बना दू।"
अनुग्रह बाबू जुलाई १९५७ मे चल बसे।लेकिन सियासी खीचतान मे केवल किरदारों का फर्क आया।अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ही १९६१ मे श्री कृष्ण सिंह का भी निधन हो गया।विहार के पहले मुख्यमंत्री जिन्होंने लगातार २३ साल तक विहार पर शासन किया।उनके २३ साल के शासन के मुकाबले विहार अबतक २३ मुख्यमंत्री देख चुका है।विहार की राजनीति मे काफी कुछ बदल रहा था।वो भी बेहद तेजी से आजादी के बाद पहले चुनाओ मे शोशलिस्ट पार्टी के हार से आहत जयप्रकाश नरायन ने राजनीति से सन्यास ले लिया।लेकिन जित पर जित बावजूद कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिर रहा था।१९५७ के चुनाव मे कांग्रेस की सीट घट कर २१० हो गई थी।१९६२ मे साइट १८५ रह गई।सी.राजगोपालाचारी के स्वतन्त्र पार्टी ने अपने गठन के बाद पहले ही चुनाव मे ५० सीटे हासिल कर ली थी।लेफ्ट पार्टी की संख्या मे भी इजाफा हुआ।ये कांग्रेस के लिए खतरे की घण्टी था।बाबू श्री कृष्ण के मृत्यु के बाद १८ दिनों के लिए दिप नरायन सिंह को विहार का मुख्यमंत्री बनाया गया।और फिर कुर्सी सम्भाली विनोदानन्द झा ने।१९६२ विधानसभा मे जित के बाद एक बार फिर विनोदानन्द झा फिर मुख्यमंत्री बने। लेकिन कांग्रेस के किस्मत केवल राज्यो मे नहीं बदल रही थी।केंद्र की सियासत मे भी काफी कुछ बदल रहा था।१९६२ के युध्द मे चीन के हाथो शिकस्त ने केन्द्री नेतृत्व को कमजोर कर दिया था।इस बदलती परस्थिति को भांपते हुए तमिलनायडू के कांग्रेसी मुख्यमंत्री के.काम.राज देश के सभी कांग्रेस मुख्यमंत्री को अपने-अपने पद को छोर कर पार्टी को मजबूत बनाने के कार्य मर जुटने की सलाह दी।इस तरह देशभर के ८ मुख्यमंत्री ने अपने पद छोरे।विहार के मुख्यमंत्री विनोदानन्द झा भी इसमें सामिल थे।विहार के मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी जगह ली कृष्ण वल्लव सहाय ने जिनकी पैरवी ५ साल पहले जयप्रकाश नरायन ने अपने चिठ्ठी मे की थी।सहाय की कार्यकाल मे विहार मे कई उद्योग स्थापित हुए।बरौनी रिफाइडरी, वोकरो स्टील,हेभी इंजनरी कॉर्पोरेसन उन्ही के कार्यकाल मे कमीशन किये गये।हलाकि आगे चलकर उन पर भट्राचार के कई आरोप भी लगे।जांच मे कई आरोपो सही पाया गया था।उधर केंद्र मे भी उत्तल-पथल मची थी।एक तो १९६२ युध्द का प्रभाव उस पर १९६४ मे जब जवाहरलाल नेहरू का निधन।सत्ता के संघर्ष के बिच लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने।पद सभाला तो वेहाल अर्थव्यवस्था सभालने की चुनोती थी और १९६५ मे पाकिस्तान से जंग भी शुरू हो गई।१९६२ के जख्म की पीरा १९६५ युध्द मे पाकिस्तान को पराजित कर कम कर दिया।पर १९६६ मे शास्त्री जी भी चल बसे।सत्ता की बागडोर इन्द्रिरा गांधी के हाथो मे आ गई और कांग्रेश की पीकर देश पर ढीली होती चली गई।कांग्रेस के लिए ये अंदरूनी कलह का दौर था।३ साल के फासले मे दो युध्द ने अर्थव्यवस्था पर गहरी मार की थी।इन्द्रिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पार्टी के दिग्ज नेता नराज थे।बदहाली के बिच देश मे स्वत्रता के बाद विहार का सबसे बारे आंदोलन उठा एक तो महगाई ऊपर से के.बी.सहाय सेकर का भष्ट्राचार पुलिस दमन ने आग और भरका दी।९ अगस्त १९६५ उस दिन पटना बन्द था।संयुक्त शोशलिस्ट पार्टी के नेता डाँ राममनोहर लोहिया ने जनसभा को सम्बोधित किया।और कई अन्य नेताओ के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।अगले दिन जब उन्हें गिरफ्तारीईओ के खिलाफ गांधी मैदान मे जनसभा चल रही थी।तो पुलसिया कहर प्र्दशनकारियों पर टूट परा।कर्पूरी ठाकुर समेत शोशलिस्ट पार्टी के ७ नेता बुरी तरह घायल हुए।बरी संख्या मे पत्रकारों और नेताओ की गिरफ्तारी हुई।हजारी बाग़ जेल मे बंद डाँ लोहिया ने अपनी गिरफ्तारी को चुनोती दी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उन्हें रिहा कर दिया गया।लेकिन इस आंदोलन का परिणाम २ साल बाद हुए चुनाव मे नजर आया।इसी बिच १९६६ मे अर्थव्यवस्था कुछ और चरमराई।रुपीया लुढ़कते हुए न्यूनतम स्तर को चुने लगा।कुदरत ने भी विहार को नहीं वक्सा। प्रदेश भयंकर अकाल की चपेट मे आ गई ।चारो ओर भुखमरी फैल गई। इसी पृष्ठ भूमि मे १९६७ चुनाव हुए।२० साल से लगातार शासन कर रही कांग्रेस अब भी सबसे बरी पार्टी थी।लेकिन उसे आजादी के बाद सबसे बरी कम १२८ सीटे मिली।उन चुनाओ मे कांग्रेस के बाद दुसरा नम्बर था संयुक्त शोशलिस्ट पार्टी का कांग्रेस विरोधी का आलम कुछ ऐसा था की सभी विपक्षी पार्टियां एक जुट हो गई।राममनोहर लोहिया चाहते थे की कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने।लेकिन उच्चजाति के कई नेता इसके खिलाफ थे।आखिरकार महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने ओर पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी।कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बनाये गये।आम चुनाव मे भी पहलीवार कांग्रेस को घाटा हुआ।उन्हें पिछले चुनाव से ६० सीटे कम मिली।सिर्फ विहार मे ही नहीं,केरल, उड़ीसा,पंजाब,पश्चिम बंगाल मे भी गैर कांग्रेसी गठबंधन सरकार बनी।इस्तिथि कुछ ऐसी हो गई की चन्द हप्तो के भीतर डिफेक्शन को वजह से हरयाणा मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश मे सरकार गिर गई।जुलाई १९६७ तक देश के दो-तिहाई राज्य गैर कांग्रेसी थे।लेकिन विपक्ष कुछ इस तरह से बट्टा था की पाटियाँ ही वटती-विखरती चली गई।विहार मे सरकार बनकर ६ महीने ही हुए थे।जब कांग्रेश से संयुक्त शोशलिस्ट पार्टी मे आये वी.पि.मण्डल ने अलग-अलग पार्टियों के पिछड़े जाती के विधायको को लेकर सोसित दल का गठन कर लिया। गठबंधन की सरकार १० महीने के आगे नहीं चल सकी।और जिस कांग्रेस के विरोध के नाम पर पार्टियां एक जुट हुई थी,उसी कांग्रेस के समर्थन से सोसित दल ने सरकार बना ली।ये एक जुट हुई थी, उसी कांग्रेस के समर्थन से सोसित दल ने सरकार बना ली।ये एक अजीब सा दौर था राजनितिक महत्वकांछा के बिच लोगो की उमीदे डीएम तोर रही थी।दलित ससक्तिकरण के नाम पर पदों की सियासत हो रही थी।समर्थन के इनाम के तौर पर मुख्यमंत्री के पद मिल रहा था।सतीस प्रसाद सिंह को वी.पि.मण्डल को विधान परिषद मे नामजद करने का इनाम मिला।३ दिन की मुख्यमंत्री की कुर्सी।सोसित दल ने लोहिया की पिछड़ा पावे सौ मे साथ की नीति पर कोई काम नहीं किया। लेकिन कुछ इस सरकार की उपलब्धि रही टूट कर आये सभी ३८ विधायिकों के लिए मंत्री पद।इस दल के अहम नेता थे विहार के लेलिन के नाम सें महसूर जगदेव प्रसाद।उन्होंने दलित उत्थान के लिए लोहियां के ६०% की मांग से आगे बढ़ कर ९०% की बात कही।बदलाव की आदनधी आ चुकी थी,विहार विधानसभा मे पिछड़ो जाती की एक मुस्त संख्या ८२ हो गई थी।और धनिक लाल मण्डल के रूप मे पहली बार पिछड़ी जाती का कोई सदस्य विधानसभा का अध्यक्ष बना था।सोसित दल के ये सरकार मुश्किल से २० दिन चल पाई ,कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस खीच लिया।और फरवरी १९६८ मे दलित नेता भोला पासवान शास्त्री को मुख्यमंत्री बनाकर विहार की सत्ता फिर हासिल कर ली।इसी बिच जून १९६८ मे विहार मे राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।और इसी के दौरान हए मध्य्वर्ती चुनाव, इसी चुनाव मे किसी भी एक दल को बहुमत नहीं मिला।हाँ कांग्रेस की स्थिति कुछ और वीगर गई।अब विधानसभा मे उनकी संख्या रहा गई ११८ किसी तरह हरिहर केंद्र की सियासत मे भी बहुत कुछ चल रहा था।१९६९ मे अनुशासन-हीनता के नाम पर इन्द्रिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया।लेकिन इन्द्रिरा प्रधानमंत्री थी और उनके साथ ऑल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के आधे से अधिक सदस्य आ गये।इन्द्रिरा को कांग्रेश को चुनाव आयोग ने असली कांग्रेस माना और मोरारजी देसाई के कामराजन के साथ कांग्रेस का दुसरा धारा कांग्रेस ओ यानिके कांगेस संगठन कहलाया।विहार मे हरिहर सिंह की सरकार बनी।ये मुख्यमंत्री के तौर पर उनका दुसरा कार्यकाल था।इसके बाद करीब १० महीने के लिए दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने फिर १६३ दिन के लिए करपुरी ठाकुर सरकार बनी।और २२२ दिनों के लिए भोला पासवान शास्त्री फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। इसी दौर मे दल-बदल की राजनीति से भी सबका परिचय हो रहा था।१९६७ से १९६९ के बिच महज दो मे भी स्थिति बदल रही थी।महगाई, बेरोजगारी,उदासीनता को १९७१ जंग की बेमिसाल जित ने बदल डाला था।इन्द्रिरा मे अब विरोधो को भी दुर्गा नजर आ रहा था।केंद्र मे इंदिरा कांग्रेस की बदलती का असर विहार मे भी नजर आने लगा।अगले ही साल विहार चुनाव थे ,लेकिन ये बदलाव विहार की राजनीति मे छनिक था।जिन नीतियों के खातिर जिस लक्ष को लेकर विहार मे विपक्ष खरा हुआ था।कांग्रेस के खिलाप एक जुट हुआ था,उसका आधार खिसक रहा था। निजी महत्वकांछा ने सार्वजनिक भलाई की मनसा उलझकर तार-तार हो गई थी।१९६७ मे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की सरकार के बाद से ५ साल मे ९ सरकार बन चुकी थी।१९७१ की रन विजय इन्द्रिरा गांधी की छवि को कुछ ऐसा बदला की पार्टी का सियासत बर्तमान ही चमक गया।१९७२ के विहार विधानसभा चुनाव मे कांग्रेस ने १६७ सीट के साथ बहुमत हासिल कर लिया।गठबन्धन ओ गुटवाजी के अध्याय का अंदर-बाहर होती कांग्रेस मे अब स्थानीय स्तर पर भयंकर गुटबन्दी थी।कोई एक मंयक नेता पार्टी मे था ही नहीं।और स्रवोच्य पद आसीन करने के पीछे समाजिक गणित अहम होता जा रहा था।कांग्रेस आलाकमान के नेतृत्व पर केदार पांडे को मुख्यमंत्री बनाया गया। हलाकि उनके खिलाफ सुगबुहाट पार्टी मे उस वक्त भी थी।नियंत्रण मजबूत करने के लिए सरकार गठन के बाद केदार पांडे ७ मंत्रियो को हटाना चाहते थे।पर मंत्रियो ने इस्तीफा देने से ही इनकार कर दिया।इसके बाद सुरु हुआ सियासी ड्रामा का लम्बा दौर।केदार पांडे ने मंत्री मण्डल को ही भंग कर दिया और अप्रैल १९७३ मे जब दोबारा मन्त्रिमण्डल का गठन हुआ तो सपत ग्रहण के दिन ही कई विधायक ने मंत्री बनने से इनकार कर दिया।उस दिन किसी तरह से ये नाटक खत्म हुआ।लेकिन दो महीने बाद २४ मंत्रियो ने केदार पांडे के प्रति अविश्वास जता दिया।अआलाकमान को केदार पांडे को हटाएं पड़ा और २ जुलाई १९७३ को विहार को पहला अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री मिला अब्दुल गफूर।
चुनाव भावनात्मक आधार पर जीते जा सकते है,लेकिन सत्ता नहीं चलाई जा सकती है।भूखे पेट आगे भावना जवाब दे जाती है।फिर विहार तो भयंकर अकाल और राजनितिक अस्थिरता से गुजर क्र अपने पैरो पर खरा होने की कोशिस कर रहा था।पाटलिपुत्र की धरती ने अबतक राजनितिक आंदोलन देखे थे।जातियो आंदोलन देखे थे।जातियो आंदोलन देखे थे।१९७० का दशक विहार में सबसे बड़े छात्र आंदोलन का शाक्क्षी बन रहा था।उन दिनों छोटे-बड़े हर मुद्दे पर छात्र सरक पर निकल आते थे।कभी हॉस्टल में खाना अच्छा नहीं मिलने के कारण ,कभी पढाई के अस्तर को लेकर ,कभी छात्रविर्ती की राशि बढ़ाने की खातिर।इसी समय विहार के तत्तकालीन शिक्षा मंत्री का बेटा परीक्षा में फेल हो गया पर मगध विश्वविद्यालय के भाइस चांसलर ने उसे ग्रेस मार्क देकर पास कर दिया।आरा के छात्र भड़क उठे उनका कहना था की ये फर्मुला भला हर फेल होने वाले छात्र के लिए लागू क्यों न हो।कुछ दिनों में समूचे भोजपुर के छात्र इससे जुड़ गये।दरसल एक सरल सा फलसफा है,जो सरकार कभी नहीं समझती।मुश्किल कितनी भी छोटी हो वो दमन से बरी हो जाती है।पुलिश ने लाठी भाजी तो पुरे विहार के छात्र इस आंदोलन से जुड़ते-चले गये।और जैसे-जैसे क्षेत्र का विस्तार हो रहा था।मुद्दे भी जुड़ते जा रहे थे।फरवरी १९७४ में कई सम्मेलनों और बैठको के बाद अब छात्र शिक्षा से लेकर रोजगार और महगाई तक पर विरोध प्रदर्शन करने लगे।कमोवेश इसी वक्त गुजरात में भी छात्र आंदोलन चल रहा था।हाँस्टल की बरी हुई फ़ीस को लेकर ये मुद्दा उठा था,लेकिन बढ़ते-बढ़ते राजनितिक हो गया।विहार में रहनेवाले जयप्रकाश नरायन को भी छात्रों ने गुजरात आने का न्योता दिया।इस घटना कर्म से केंद्र पर ऐसा दबाव बना की जे.पि.के जाने से पहले ही ९ फरबरी १९७४ को वहाँ के मुख्यमंत्री चेमन भाई पटेल को पद से हटा दिया गया।गुजरात आंदोलन को ये सफलता मिली उसने विहार के छात्रों को नई प्रेरणा दी।२४ फरबरी को करीब २०० छात्रों ने मुख्यमंत्री आवास के सामने अनशन किया।मुख्यमंत्री आवास के सामने अनशन के बाद अगले दिन पटना में धारा १४४ लगा दी गई।सभी शिक्षण संस्थान को बन्द कर दिया गया।सरकारी दमन की हर नीति बगावत को कुछ और भरका रही थी।आंदोलन को रफ्तार सुस्त न परे इस के लिए छात्र संचालन समिति बनायी गई।इस समिति में लालू प्रसाद यादव,शुसिल कुमार मोदी,रवि शंकर प्रसाद,शिवनंद तिवारी और नितीश कुमार जैसे कई छात्र नेता शामिल किये गये।२७ फरबरी को छात्र नेता विहार के शिक्षा मंत्री से मिलने गये लेकिन मुलाक़ात नहीं हो सकी।आंदोलनकारी छात्र ने उसी वक्त तय कर लिया की अब आंदोलन कॉलेज में नहीं विधानसभा के घेराव के साथ होगा।और तारीख तई हुई १८ मार्च १९७४ छात्रों के एलान को देखते हुए उस रोज हर ओर नाकेबन्दी थी।फिर भी सुबह से ही जेब में कलम और रुमाल ले कर आंदोलन भीड़ विधानसभा में घुसने से रोका पुलिस ने भीड़ पर लाठी चार्ज कर दिया।खून के फौवारे से पटना की सरके लाल होने लगी।भीड़ ने जब वर्बरता का विरोध किया तो पुलिश ने अंधाधुंध गोलियां बरसाने शुरू कर दी।कई लोग मारे गये देश शन्न रह गया।इसी बिच खबर उड़ी की गोलीबारी में छात्र आंदोलन के अगुवा लालू प्रसाद यादव मारे गये और पुलिश ने उनकी लाश कही छुपा दी।पटना में करफ्यू लगा दिया गया लेकिन भीड़ अब बेकाबू हो चुकी थी।भीड़ के निशाने पर मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर और सरकार के मंत्री आ गये।छात्रों का बेकाबू गुस्सा देखते हुए मुख्यमंत्री समित ज्यादतर मंत्री भाग खरे हुए।लेकिन जुल्म करने वाले के हाथ अब भी नहीं काप रहे थे।अब्दुल गफूर ने पुलिश को गोली दागी।१० छात्र मारे गये ,दर्जनों छात्र अधमरे हो चुके थे।दर्जनों खून से लतपथ पर कोई अस्पताल नहीं गया।सभी छात्र एक-दुसरो को थामे सीधे पटना के कदमकुआं गये जय प्रकाश नरायन के घर।छात्रों ने जयप्रकाश से आंदोलन की कमान थामने की दरखस्त की।जय प्रकाश नरायन १९४२ भारत छोरो आंदोलन के नायक माने जाते थे।स्वत्रंत भारत में वो जवाहरलाल नेहरू के बाद सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे।कांग्रेश का विकल्प जय प्रकाश के नेतृत्व में सोसलिस्ट पार्टी को ही माना जाता था।ये भी सच है की पहले आम चुनाव में सोसलिस्ट पार्टी की हार से वो काफी निराश हो गये थे।उन्होंने सक्रिय राजनीति छोर सरबोध्य की राह पीकर ली थी।लेकिन जय प्रकाश छवि ईमानदार नेता की थी।जय प्रकाश नरायन ने छात्र नेताओ की बात सुनी।वो खुद भी बढ़ते हुए महगाई,भरष्ट्राचारी और वेरोजगारी से चिंतित थे।छात्रों ने जब उन से नितृत्व सभालने का आग्रह किया तो उन्होंने छात्र नेताओ के सामने शर्त रखी,"हम राय-सलाह आप सब लोगो से लेंगे,आप लोगो की राय-सलाह की अहमियत होगी,लेकिन निर्णय मेरा होगा।"इस शर्त के साथ उन्होंने आंदोलन का नेतृत्व कबूल किया।लालू प्रसाद यादव छात्र नेता के तौर पर अब तक इस आंदोलन की अगवाई कर रहे थे।उनकी मौत की खबर से हड़कम्प था।लेकिन इसी दौरान आकाशवाणी से लालू प्रसाद यादव ने आंदोलनकारियों को सम्बोधित किया।जय प्रकाश अब भी औपचारिक तौर पर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे।लेकिन विहार में सरकार के खिलाप उठ रही आवाजो को खामोसी करती गोलिया उनका भी सीना छन्नी कर रही थी।पटना में लालू प्रसाद यादव रवि शंकर प्रसाद और शुसिल मोदी जैसे बड़े छात्र नेताओ समित करीब ढेर हजार छात्र गिरफ्तार कर लिए गये।तब २५ मार्च को छात्रों का एक जथा फिर जय प्रकाश नरायन के घर पहुचा।इस बार छात्राओ ने जय प्रकाश से आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने का आग्रह करते हुए सरक पर अगुयायी करने की गुजारिस की।दो दिन के बाद तारीख तय की गई लेकिन बिमारी के चलते जय प्रकाश इस दिन नहीं आ सके।जय प्रकाश २९ मार्च को आंदोलन में सामिल हुए।उस रोज छात्रों ने पीठ के पीछे हाथ बाँध कर विशाल मौन जुलुस निकाला। उनका नारा था, "हमला चाहे जैसा होगा,हाथ हमारा नहीं उठेगा।" जय प्रकाश के नेतृत्व सभालने से आंदोलन को व्याप्क दिशा मिल गई।आंदोलन को चरित्र बदल गया।छात्रों के साथ बाकी नोजवान, किसान,बुद्धजीवी जुड़ गए।आंदोलन राज्यधानी पटना से लेकर गाव कस्वे तक फैल गई।जय प्रकाश के कारण कवियों ,लेखको ,पत्रकारों की एक बरी जमात आंदोलन में आये।फणीश्वरनाथ रेनू,बाबा नागार्जुन जैसे कवि आगे आये।नुकरो पर कवियों ने काव्य पाठ शुरू किया।कवियों के नारा से गजब की शक्ति निकलती। "जुल्म का चक्का और तबाही कितने दिन ,हम पर तुमपर सर्द सिहायी कितने दिन।" कवि सत्यनरायन की इस कविता ने नारे की शक्ल ले ली।तो रामगोपाल दीक्षित की एक कविता भी हर आंदोलन कारी की जुवान पर रही।जय प्रकाश नरायन कभी जवाहरलाल नेहरू के बेहद करीब हुआ करते थे।जय प्रकाश की पत्नी प्रभावती और कमला नेहरू के बिच गाढ़ी दोस्ती थी।इन्द्रिरा भी जय प्रकाश को अपने चाचा की तरह मानती थी।लेकिन अपने जीवन के सबसे बड़े सियासी संकट से जूझ रही इन्द्रिरा समझती थी की उस संकट की वजह जय प्रकाश है।निजी रिस्ते सार्वजनिक महत्वकांछा की कसौटी पर चूर-चूर हो गये।फरक केवल इतना था की जय प्रकाश की लराई सिद्धान्तिक थी पर इन्द्रिरा की राजनितिक।मार्च १९७४ विहार आंदोलन की जरिये एक ऐसे तारीख बन चुका था, जिसकी निगाहों में विहार के निशाने पर दिल्ली था।दिल्ली में इन्द्रिरा परेशान थी तो पटना में जय प्रकाश संघर्ष तेज कर रहे थे।
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी – बडी जीभ की वही कसम,
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
पाटलिपुत्र की भूमि पर अपनी गरजती कलम से देश हिला देने वाले राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ यु तो १९५० में लिखी गई थी।लेकिन ये पाटलिपुत्र से उठी सबसे बरी चुनोती की आवाज बन चुकी थी।५ जून १९७४ गांधी मैदान पटना २९ जिलो से आये लाखो लोग जय प्रकाश का साथ देने के लिए पटना के गांधी मैदान में इक्क्ठा हो चुके थे।दोपहर के लगभग २:४५ अपराह्न जय प्रकाश ने गांधी मैदान में प्रवेश किया।इसी गांधी मैदान में अपने भाषण में जय प्रकाश नरायन ने क्रान्ति को सम्पूर्ण क्रान्ति में बदलने का आह्वान किया।स्कुल,कॉलेज का बहिस्कार शुरू हो गया।युवाओ के तेवर क्रांतिकारी हो गये इन्द्रिरा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।इन्द्रिरा ने अब अब्दुल गफूर को हुक्म दिया की आंदोलन हर-हाल में दबाया जाय।इन्द्रिरा की हुक्कम की तामील करते हुए रांची,भागलपुर,मुजफरपुर,जमशेदपुर समित कई जगहों पर जबरदस्ती छात्रों को परीक्षा देने के लिए मजबूर किया।पुलिश ने लाठी-डंडो से लेकर गोली बारी तक का सहारा लिया।लेकिन छात्र अरे रहे पुलिश गोली बारी में कुछ कम उम्र के छात्र मारे गये।जय प्रकाश नरायन ने शासन की ज्यादती के खिलाप समाज के हर तब के से ये अपील की तो इस आंदोलन से जुड़ जाए और पुलिश से उस आदेश को माने की अपील की जिसको मानने के लिए उनकी अंतरआत्मा गवाही न दे।जय प्रकाश आंदोलन की आग पुरे देश में धधक ने लगी।और दमन का चेहरा भयावह होता जा रहा था।५ अक्टूबर १९७४को एक साथ कई जगहों पर पुलिश ने गोली चला कर आंदोलन को कुचलने की कोशिश की।सिर्फ पटना में गोली बारी से करीब ७५ लोग मारे गये।१०० से ज्यादा जख्मी हुए।जय प्रकाश अब आर-पर की लराई पर उत्तर आए।वेचैन परेशान इन्द्रिरा ने अक्टूबर में अब्दुल गफूर को दिल्ली बुलाया उमा शंकर दीक्षित इन्द्रिरा का सन्देश लेकर गफूर से मिले।उन्होंने कहा जय प्रकाश को ४ नवम्बर से पहले गिरफ्तार कर लिया जाए।लेकिन गफूर ने हाथ खरे कर दिए।इन्द्रिरा ने राजा दिनेश सिंह और श्यामनन्द मिश्र को बातचीत का निमन्त्रण दे कर जय प्रकाश के पास भेजा।आंदोलन शुरू होने के बाद १ नवम्बर १९७४ को पहली बार जय प्रकाश ,इन्द्रिरा की बैठक हुई।बैठक आमने-सामने होनी थी,लेकिन इन्द्रिरा ने जगजीवन राम को बिच से ही बुला लिया।ये बैठक बेहद कड़वाहट के साथ खत्म हुई।इन्द्रिरा गांधी ने सोचा था की इस बैठक के बाद विहार आंदोलन थम जाएगा।इस के लिए उन्होंने भष्ट्राचार उन्मूलन शैकक्षिक सुधार,राजनितिक वंदियो को रिहा करने से लेकर मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को बर्खास्त कर विहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने तक के प्रस्ताव रखे थे।लेकिन जय प्रकाश तो विहार विधानसभा भंग करने पर अरे थे।इन्द्रिरा ने इनकार कर दिया,बात-चित टूट गई।कहते है जय प्रकाश ने उसी वक्त इन्द्रिरा से कह दिया की अब सामना चुनाव मैदान में होगा।दिल्ली से पटना लोटे जय प्रकाश ने विहार विधानसभा को घेरने के साथ आंदोलन को और तेज करने की योजना बनाई।विहार के मौजूदा रानीतिक के नायक उस वक्त छात्र थे।और जय प्रकाश के साथ खरे थे।४ नवम्बर से ही विहार के अलग-अलग जगहों से लोगो ने पटना में जुटना शुरू कर दिया।पटना के चपे-चपे पर पुलिश और सी.आर.पि.फ को तैनात कर दिया गया।ठीक १० बजे जय प्रकाश अपने घर से निकले तो हजारो लोग उनके पीछे-पीछे चलने लगे।पुलिश हैरान रही की करि सुरक्षा के बिच भी इतने लोग कहाँ से पटना पहुच गये।पुलिश ने प्रदशन को कुचलने के लिए लाठी और आंसू गैश का सहारा लिया।अचानक एक सी.आर.पि.फ के जवान ने जय प्रकाश पर लाठी का प्रहार किया किस्मत थी ये प्रहार नानादि देशमुख ने अपने हाथो पे ले लिया।पर कई लोग बुरी तरह जख्मी हो गये ,हजारो लोग गिरफ्तार किये गये।पूरा देश जय प्रकाश पर लाठी चलाये जाने की खबर से विचलित हो उठा पटना की सरको पर बरसी पुलिस की लाठी से जनता में आक्रोश था।राजनितिक विकल्प का खाका बनने लगा मोरारजी देशाई,चरण सिंह वाजपेय,आडवाणी और जॉर्जफ़न्डाडीस तक एक कगार में नजर आने लगे।जय प्रकाश ने इस बात पर जोर दिया की जनता ही सरकार होनी चाहिए।जिसका काम शत्ता परिवर्तन के बाद भी होनी चाहिए ,जो नई सरकार पर अंकुश लगा सके लेकिन तभी एक ऐसा हादसा हो गया जिसने एक तरफ जय प्रकाश आंदोलन की निव हिला दी तो दूसरी तरफ पुरे देश को हैरत में दाल दिया।२ जनवरी १९७५ समस्तीपुर,मुजफरपुर बरी लाइन पर उद्घाटन के दौरान बम विस्फोट में २४ लोगो सहित केंद्रीय रेल मंत्री ललित नरायन मिश्र मारे गये।ललित नरायन मिश्र विहार के बड़े नेताओ में सामिल थे।इन्द्रिरा गांधी आंदोलन को थामने के लिए उनकी लोकप्रियता से आस लगाए बैठी थी।आनदोलन के कई विरोधियो ने इस हादसे का जिमायेदार जय प्रकाश से जुड़े लोगो को ठहराया।लेकिन जय प्रकाश ने साफ़ कहा की ललित नरायन मिश्र कभी भी अनेक निशाने पर नहीं थे।और आंदोलन में जुटी शांतिपूर्ण भीड़ इस बात की गवाह है की वह कभी भी हिंसा के पक्षधर नहीं रहे।वेसे तो सवाल उठानेवाले ने तो इन्द्रिरा पर भी सवाल उठाये।आंदोलन की लपटे लहक रही थी।इसी दौरान १० फरवरी को जय प्रकाश के कहफिले पर बम से हमला किया गया।हादसे में जय प्रकाश बाल-बाल बचे।पर इस घटना से पुरे देश में हलचल मच गई।इसी बिच ११ अप्रैल१९७५ को इन्द्रिरा गांधी ने अब्दुल गफार की जगह जगर्नरः मिश्र को विहार मुख्यमंत्री की कुर्सी सौप दी।जगरनाथ मिश्र ललित नरायन मिश्र के भाई थे।इन्द्रिरा ने शोचा ये दोहरा दाव शावित होगा।विहार आंदोलन की मांग विधानसभा भंग करने की थी। चेहरा बदलने से कुछ भी नही बदला इसी के इन्द्रिरा गांधी के लिए अदालत से भी बुरी खबर आई १२ जून १९७५ को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने १९७१ में इन्द्रिरा के रैबरेली लरे हुए चुनाव को अवैध घोसित कर दिया।और अगले ६ सालो तक चुनाव लड़ने के लिए उन्हें आयोग करार दे दिया।इलाहाबाद हाई कोर्ट फैसले के बाद पटना में आंदोलन की निगाह इन्द्रिरा गांदी की सत्ता पर जम चुकी थी।विहार विधान सभा भंग करने का संघर्ष देश की संसद भंग करने की दिशा में चलने को तैयार हो रहा था।संसदीय दल की बैठक में इन्द्रिरा ने पद छोड़ने से मना की तो पहलीवार जय प्रकाश ने छत्र आंदोलन को इन्द्रिरा के खिलाफ ला खरा किया।पहली बार छात्र संघर्ष देश व्यापि रूप लेने लगा।तब इन्द्रिरा ने एक ऐसा फैसला लिया जिसमे हिंदुस्तान की आजादी को ही बंधक बना डाला।२५ जून १९७५ को इन्द्रिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी।मार्च १९७७ में लोकसभा चुनाव हुए पाटियों के विचारधारा से परे जनता पार्टी के साये तले तमाम नेताओ ने चुनाव लड़ा।इस कुनवे में खाटी कांग्रेसी मोराजी देसाई थे तो राजनरायन, जॉर्ज फ़न्डाडीस और मधुदनवतये जैसे समाजवादी भी थे।संघ परिवार के अटल विहारी वाजपेय, लाल कृष्ण आइवानी,नानाजी देशमुख थे तो १९६७ में कांग्रेस से बगावत कर अलग हो चुके चौधरी चरण सिंह भी थे यहाँ तक की आपातकाल के दौरान इन्द्रिरा गांधी के साथ रहे जगजीवन राम और हेमवती नन्दन जैसे कांग्रेसी भी इस कुनवे में आ मिले थे।जनता पार्टी की जोर दर जित हुई। विहार में तो ५४ लोकसभा सीटो में से एक भी कांग्रेस हासिल नहीं कर पाई।जय प्रकाश के पीछे साये की तरह डटे रहने वाले छात्र नेताओ ने पहली दफा संसद जाने का हक कमाया।२९ की उम्र में छपरा सीट जित कर लालू प्रसाद यादव सबसे कम उम्र के सांसदों में शामिल हुए।तो हांजीपुर से ४ लाख २५ हजार बोट के फासले से जित कर रामविलास पासवान ने संसद के साथ गिनीज बुक में भी जगह बनाई।जार्ज फ़न्डाडीस तो बरौदा डैयनामाइट केस में जेल में बन्द थे।बगैर अपने छेत्र में गये वो ३ लाख बोट से मुजफरपुर सीट जित गए।कर्पूरी ठाकुर ने भी समस्तीपुर के लोक सभा चुनाव के बाद सतेंद्र नरायन सिंह के मुकाबले उन्हें विधायक दल का नेता चुना लिया गया।२२ जून १९७७ को कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में सत्ता सभालने के साथ ही नोकरी में पिछड़ी जाती को आरकक्षण के चुनावी वादों को पूरा करने की प्रीक्रिया शुरू कर दी।और तब से ही इसके सर्मथन और विरोध में गोल बन्दी शुरू हो गई।स्थिति ऐसी हुई की जयप्रकाश नरायन तक ब्राह्मण वाद के आरोप लगने लगे।इस मसले पर उच्च जातियो के दबाव में कर्पूरी ठाकुर को २६% का आरकक्षण विहार में घटा कर २०% करने पड़ा। लेकिन इस रियायत के बावजूद अप्रैल १९७९ में उनकी सरकार गिर गई।और सतेंद्र नरायन सिंह ,रमानंद तिवारी, कैलाशपति मिश्र के समर्थन के साथ राम सुंदर दास मुख्यमंत्री बनाये गये।अब आंदोलन राजनीति में तब्दील हो चुका था।जनता पार्टी के भीतर ही सत्ता के संघर्ष को देख कर लोगो का मोह भंग हो रहा था।मुम्बई के जसलोक अस्पताल में डायलिसिस के लिए विस्तर पर लेटे-लेटे जय प्रकाश नरायन आहसयाय हो कर महत्वकांछा का महत्वि संघर्ष देखते रहे।उनके जीते-जी उनकी सपने की अकाल मौत हो गई।८ अक्टूबर १९७९ को जय प्रकाश का भी निधन हो गया।अगले ही साल मध्यवर्ती चुनाव हुए कांग्रेश ने केंद्र में वापसी की और विहार में भी।
लेकिन आने वाली वक्त में पाटलिपुत्र में अनोखी राजनीति का उदय होने वाला था।इस अनूठे राजनेता का दौर शुरू होने वाला था।
१९७७ में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो ९ कांग्रेस सासित राज्यो में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था।१९८० में जब केंद्र में कांग्रेस की वापसी हुई तो उसने ९ गैर कांग्रेस सासित राज्यो में राष्ट्रपति शासन लगा दिया।इन राज्यो में विहार भी सामिल था।जब विहार में चुनाव हुए तो कांग्रेस ने बहुमत हासिल कर लिया।जगरनाथ मिश्र मुख्यमंत्री बने।कांग्रेस ने तो वापसी तो कर ली लेकिन नेताओ के बिच वर्चस्व की खुली लराई थी।जगरनाथ मिश्र पर ये आरोप लगते की वो सरकार को अपनी जागीर की तरह चला रहे है।और जब मार्च १९८३ में उन्होंने बगैर आला कमान की मंजूरी के अचानक अपनी मन्त्रिमण्डल से ११ मंत्रियो को हटा दिया।तो खूब हेय-तौबा मची।५ महीने के बाद जगरनाथ मिश्र को हटा कर उनकी जगह चन्द्रशेखर सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया गया।लेकिन राज्य कांग्रेस में मनमुटाव कम नहीं हुआ।उधर केंद्र की राजनीति में भी बहुत कुछ चल रहा था।१९८४ में इन्द्रिरा गांधी के हत्या से सियासी अन्धकार था।हत्या के फ़ौरन बाद हुए आम चुनावो में सहानभूति लहर पर सवार होकर कांग्रेस फिर सत्ता पर काविज हुई।और राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने।विहार में भी कांग्रेस ने कुछ और मजबूती से वापसी की।आंतिक कलह और भष्ट्राचार के आरोपो के भीच विहार में नेतृत्व बदलता रहा।३ साल के लिए मुख्यमंत्री रहे विंदेश्वरी दुवे, लगभग १ साल भगवत झा आजाद, ९ महीने सत्येन्द्र नरायन सिंह और आखिर के तीन महीने जगरनाथ मिश्र।इस विच प्रदेश में विपक्ष की स्थिति भी बदल रही थी।कर्पूरी ठाकुर विपक्ष के नेता थे।लेकिन निर्विवाद नही।मिसन जातीय विभाजन की लकीरे कुछ ऐसे थी की यादव नेताओ कोकरपुरी ठाकुर मंजूर नहीं थे।१९८८ में जब कर्पूरी ठाकुर का निधन हुआ तो विहार में विपक्ष की राजनीति की कोई धुरी ही नहीं थी।तब देवीलाल और शरद यादव ने लालू प्रसाद यादव का नाम तय किया।लालू प्रसाद यादव अब विपक्ष के नेता थे।उसी वक्त पर सत्येंद्र नरायन सिंह के कार्यकाल के दौरान अक्टूबर १९८९ में भागलपुर में भयंकर दंगे भरके दो महीने तक हिंसा आगजनी चलती रही।हजारो लोगो ने अपनी जान गवा दी ,घर-वार गवा दिए।सत्येंद्र नरायन सिंह को हटाकर कांग्रेस ने जगरनाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया।हालांकि सत्येंद्र नरायन सिंह ने बाद में अपनी जीवनी लिखी तो उन्होंने कांग्रेस में अपनी कई साथियो को ही दंगो का दोषी बताया।एक तरफ दंगो के राजनीतिक मायने थे, तो दूसरी तरफ समाजिक समीकरण। प्रदेश के मुसलमान कांग्रेस से छिटक गया और कांग्रेस विरोधी लालू में उमीद तलासने लगे।केंद्र में एक बार फिर कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई।जनता पार्टी के नेतृत्व में नेशनल फ्रंट की सरकार बनी और वी.पि.सिंह प्रधानमंत्री।प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने मण्डल कमीशन के आरकक्षण संबंधित सिफारिसो को लागू करने का फैसला कर लिया।देश में मानो आग लग गई।विहार ने इस दौर में अग्रि और पिछड़ी जातियो के बिच मिसन खुनी संघर्ष देखा।यु तो १९७२ के बाद से ही पिछड़ी जाती के विधायको की संख्या विहार विधानसभा में बढ़ने लगी थी।लेकिन १९९० में पहली दफा पिछड़ी जाती के विधायको की संख्या अग्रि जाती विधायको से अधिक हो गई।१२१ सीटो के साथ जनता दल सबसे बड़े दल के रूप में उभरा तो कांग्रेस सिमट गई ७१ सीटो पर ।मुख्यमंत्री उमीदवार के तौर पर लालू यादव तत्कालीन उपप्रधानमंत्री देवीलाल के पसन्द थे,वी.पि.सिंह राम सुंदर दास के समर्थन कर रहे थे तो चन्द्र शेखर पसन्द थे, रघुनाथ झा।उस वक्त लालू प्रसाद यादव की छवि कदावर नेता की नहीं थी बल्कि उन्हें हसि-मजाक के लिए जाना जाता था।पर विधायक दल के नेता का चुनाव हुआ तो नितीश कुमार,जगणानंद सिंह युवा विधायको की टोली उनके समर्थन में रहे।लॉ को ५८ वोट मिले,रामसुंदर दास को ५४ और रघुनाथ झा को १४।अब तक विहार में २४ मुख्यमंत्री हो चुके थे लेकिन श्री कृष्ण वावू के अलावा कोई भी ५ साल पुरे,नहीं कर पाया था।लालू प्रसाद को तो गम्भीरता से लिया भी नहीं जाता था।सब ने कहा लालू ज्यादा दिन टिकेगे नहीं।तब इण्डिया टुडे ने उनका एक इंटरभूय किया था,उनसे पूछा की जनतादल विधायक उनकी आलोचना करते है।लालू यादव ने जवाब दिया उनको चाणक्य बनने दीजिये पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त मै ही हु।लालू की ये बात सच निकली राजनीति के दिग्ज के तमाम विश्लेषण धरे के धरे रह गए।वो न केवल विहार के मुख्यमंत्री रहे बल्कि प्रदेश आनेवाले दिनों मे देश की राजनीति उनके इर्ध-गिरध घूमने लगी।मुख्यमंत्री बनते ही लालू प्रसाद यादव ने फैसला किया जनता की भीच सपत ग्रहण का।१० मार्च १९९० को राज्यभवन नहीं बल्कि पटना का गांधी मैदान सज-धज कर तैयार था।जय प्रकाश गोलम्बर पर राज्यपाल यूनुस स्लिम ने लालू यादव को विहार के २५ वे मुख्यमंत्री के तौर पर सपत दिलाई।लालू जनता के मुख्यमंत्री बनना चाहते थे वैगर व्यवस्था बदले वो एक नई व्यवस्था शुरू करना चाहते थे।जिसमे राजा और प्रजा का फर्ज मिटे।कमसे कम संकेत तो यही मिल रहे थे।शुरूआती दिनों मे उन्होंने मुख्यमंत्री आवास जाने से इनकार कर दिए।वो भेटनरी कॉलेज कंपाउंड मे वहाँ चपरासी के तौर पर काम कर रहे अपने भाई के एक कमरे के घर मे रहा करते थे।उसी के बाहर मैदान मे वो अपनी कैबनेट मीटिंग भी लिया करते थे।हलाकि कुछ ही महीनों के बाद लालू यादव को काम-काज के लिहाज से वन-वेड-रूम घर मे मुश्किल आने लगी; वो सरकार व्दारा आवंटित मुख्यमंत्री आवास मे रहने लगे।फिर भी उन्होंने अपने आवास को जनता के लिए खुला रखा।घर के बाहर लॉन मे लोग उनसे मिलने के लिए जुटा करते थे।नए मुख्यमंत्री मे आम आदमी की झलक थी।मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू का पहला फैसला था सरको से स्पीड ब्रेकर हटा देना।दरसल ग्वालियर जब दूध बेचने निकलते थे तो स्पीड ब्रेकर पर दूध छलक-छलक वेकार हो जाता था।सुनने मे ये सम्मान सा फैसला लालू की सियासत के कई रंग समेटे था।लालू एक सपना थे जो विहार मे दबे-पिछड़े वर्ग के लोग खुली आँखों से देख रहे थे।वो पिछड़े के सत्ताधिकार के आक्रमक प्रतिनिधि थे।उनकी भाषा बोलते, उनकी की जैसा पहनावे रखते।लेकिन चाँद महीनों मे कुछ-ऐसा होने वाला था जो राष्ट्रीय राजनीति मे लालू की एक अलग जगह बनाने वाला था।मार्च १९९० मे लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने और उसी साल सितम्बर मे अयोद्धया मे राम मन्दिर के निर्माण के लिए लाल कृष्ण आडवाणी रथ यात्रा पर निकले।उस वक्त की केंद्र की वी.पि.सिह सरकार को बीजेपी का बाहरी समर्थन हासिल था।कहते है लालू ने विहार आने से पहले ही आडवाणी से मुलाक़ात की और आप रथ यात्रा मत निकालिये। लेकिन आडवाणी नहीं माने।आडवाणी ने धन्यवाद से लेकर समूचे केंद्रीय विहार का दौर किया जब रथ यात्रा पटना पहुंची तो जन सेलाव उम्र आया आडवाणी के रथ यात्रा पर सम्प्रदायी सौहार्द विगारने के आरोप लगे ।लेकिन आडवाणी बढ़ती लोकप्रियता के मदेनजर इसे राजनीति विरोधियो का डर बताया।कहा जाता है उस वक्त प्रधानमंत्री वी.पि.सिंह यात्रा रोकने के पक्ष मे नहीं थे।लेकिन लालू को अपने राज्य मे इस रथ यात्रा पर करा एतराज था।वो अब आडवाणी के रथ को रोकने के लिए ठोस तयारी कर चुके थे।आडवाणी जब पटना से समस्तीपुर के लिए रवाना हुए।तब तक समस्तीपुर मे प्रसासनिक अमला गिरफ्तारी की तैयारी कर चुका था।आडवाणी ने इस फैसले मे वी.पि.सिंह की मंजूरी देखि।केंद्र मे सरकार गिर गई।लालू यादव इस बात पर कायम रहे की रथ रोकना उनका अपना फैसला था।३० अक्टूबर को उन्होंने सांप्रदायि सौहार्द बनाये रखने के लिए १२ घण्टे का साकेतिक अनसन भी किया।ये भी सच है इसके बाद जब देश संप्रदायी दंगो के आग मे जला तो लालू के शासन मे विहार पर आंच तक नहीं आई।लालू अब तक प्रदेश मे पिछड़ो के मसीहा थे ख़ास कर यादव समुदाय पूरी तरह उन पर मोहित था।अब इस समीकरण मे मुसलमान भी जुड़ गए।लालू का एम,वाय यानी मुसलमान और यादव समीकरण एक ऐसा प्रयोग बना की सोसल इंजीरिंग राजनितिक हलको मे सबसे फैसनेबल शब्द बन गया।पर धीरे-धीरे लालू की कार्य सैली मे बदलाव आने लगा।मुख्यमंत्री बनने के पहले साल मे उन्होंने साइकिल की सवारी की ताकि पेट्रोल भी बचे और गरीवो से उनका समीप बना रहे।पर अब साईकिल की जगह बुलेट पुरूफ कर ने ले ली थी।सरकारी आवास की आलोचना कर आलिशान मकान वो पहले ही ले चुके थे।हलाकि अंदाज अभी भी वही था वो उसी तरह लोगो के बिच पहुचा करते।लालू नायक थे,उस वर्ग के जिसके पास न कोई साधन था,न कोई सपना था।दूर-दूर के गाव से लोग आकर सिर्फ मुख्यमंत्री आवास की परिक्रमा कर के चले जाते थे।लालू के सां मे गीत-कविता लिखी जाने लगी।लालू विहार ही नहीं समूचे देश मे ब्रांड बन गए।लालू यादव जब मुख्यमंत्री बने बहुत कुछ बदल गया।जनता दरवार लगने-लगे।लोग फ़रयाद ले कर बड़ी संख्या मे आते थे।सब का आवेदन लिया जाता था कितने पर अम्ल होता था पता नहीं।लेकिन लालू के दर्शन कर लेना बहुत बरी बात थी।वो किसी को झिझक देते,किसी का मजाक बना देते थे तो किसी का बात संदिज्गयी से भी सुनते।लेकिन उनका अंदाज ऐसा था की लोग मंत्रमुग्ध रहते।लालू दफ्तर मे बैठकर सरकारी फैलो के बिच काम करने वाले मुख्यमंत्री नहीं थे।उनकी कार्यशैली बेहद दिलचप्स थी।और ख़ास कैमरों के लिए थी।सरको से अतिक्रमण हटाना हो या किसी काम का निर्कक्षण करना हो तो रात-रात भर सरको पर रहते थे।लालू ने एक वक्त गरीब बच्चो के बाल कटवाने और नहलाते का कार्य-कर्म शुरू किया।आगे-आगे लालू की भी.आई.पि गाड़ी पीछे पानी का टैंकर बाकी सरकारी अमली जामा।वो सरक किनारे कही भी उत्तर जाते बच्चो को जुटाते साफ़-सफाई का महत्व समझाते।लालू के चरवाहा विद्यालयो को चर्चा खूब हुई।उसके पीछे की सोच बेजोर थी।पिछड़ी जाती के गरीब बच्चे जो मजदूरी या माँ-बाप का हाथ बाटने की वजह से स्कुल नहीं जा पाते थे उन्हें स्कुल जाने के लिए प्रति दिन १ रुपीया दिया जाता।चरवाहा विद्यालय में बच्चो के स्कुल के नजदीक ही जानवर चराने का प्रबन्ध किया गया।लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनते ही राज करने का तरीका मानो बदल गया।वो अपने काफिले को लेकर अचानक किसी दफ्तर पहुंच जाते,अगर सुस्त सोते कर्मचारी पकड़े जाते तो वही-का-वही सस्पेंड कर दिए जाते।११ मई १९९० को उन्होंने एक दिन में २०० कर्मचारी को निलम्बित कर दिया।कर्मचारियों और अधिकारियों को हर वक्त ये डॉ सताने लगी कहीं लालू जी आज अचानक निर्कक्षण नहीं कर ले।इस डर से अधिकारी थोड़ा चुस्त होने लगे थे।लोगो को लगा विहार में एक नया वर्क कल्चर यानी नई कार्य संस्कृति आने वाली है। लोकप्रिय प्रयोगों और चटपटी शैली के साथ ही लालू यादव की चरण वंदना भी शुरू हो चुकी थी।किताबे लिखी गई ,कविता लिखी गई,लालू को ये तारीफ़ रास भी खूब आती थी।१९९३ में ८वी की छात्रों को पाठ्क्रम में लालू यादव की जीवनी को सामिल कर दिया गया।ऐसा पहली बार हुआ की किसी जीवित मुख्यमंत्री की जीवनी पाठपुस्तक में शामिल कर दिया गया।इस महिमा मण्डल के बिच लालू की वास्तविक लोकप्रियता बढ़ रही थी।और उनके आलोचकों को उनका घमण्ड भी बढ़ता दिख रहा था।१९९२ में जब सुप्रीम कोर्ट ने मण्डल कमीशन के पास्ताविक आरकक्षण को मंजूरी दी तो लालू ने झट इस पर अम्ल किया।लेकिन इसका सबसे बड़ा फायदा यादवो को दिए जाने के कारण बाकी जातियो में अंतुष्टि फैलने लगी।ख़ास कर कुर्मी में,नितीश कुमार विहार के सबसे बड़े कुर्मी नेता थे।लगभग १ साल तक उन्होंने लालू को खुलकर चुनोती नहीं दी। लेकिन सरकार में रहते हुए सरकार की आलोचना शुरू कर दी।फरवरी १९९४ में गांधी मैदान में कुर्मी चैतना रैली का आयोजन हुआ।यु तो ये रैली सुबह से शुरू हो गई लेकिन नितीश कुमार जाए या न जाए के मनस्य में घण्टो फसे रहे।आखिरकार दोपहर ३ बजे वो गांधी मैदान पहुच ही गए।ये उनकी बगावत का औपचारिक एलान था।हलाकि इस मुद्दे पर नितीश को पार्टी के भीतर ख़ास समर्थन नहीं था।दो महीने बाद उन्होंने जार्ज फॉन्डाडीस के साथ पार्टी छोर कर जनता दल जार्ज का गठन कर लिया।चन्द और नेता साथ आये तो अक्टूबर १९९४ में पार्टी का नाम समता पार्टी कर दिया गया।अगले साल विधान सभा चुनाव होने थे और समता पार्टी लालू को मजवूत चुनोती देने के लिए तैयारी करने लगी।१९९५ में विधानसभा प्रचार के दौरान नितीश कुमार ने आर्थिक विकास का मुद्दा उठाया।भूखे पेंट भरने की बात की लालू यादव ऐसी कोई बात नहीं करते थे।वह सिद्धान्तिक बाते करते थे।स्वाभिमान और स्वर की बाते करते थे।डरे-सहमे दिमाग और पिछड़ो के गुस्से को हवा देते।लोगो ने दिल से सोचा भावनाये जित गई।लालू बहुमत से सत्ता में लौट आये।लालू दोबारा सत्ता में आये तो लोगो को उनके विकास के वादे से उमीद बढ़ी।जब अमीरीकी विदेश मंत्री रॉबिन रफेल आयी तो कुछ न कुछ तो जरूर होगा।उद्योगपतियों से बैठके शुरू हुई।लालू सिंगापुर,थाईलेंड का उड़ान करने लगे।सत्तू-अचार बांधकर अमेरिका भी हो आये।पटना में निवेश के लिए प्रवासी विहारियों को पटना लेकर आये लेकिन हर वादा कागजी रहा।उदारीकरण के दौर में विहार के मामलो में भी मानो रिवर्स ग्रयर लग गया।प्रदेश के निचले तबके का समाजिक सस्तीकरण लालू की सबसे उपलब्धि थी।लेकिन ये सस्तीकरण में शलतुलन नहीं था।साथ ही सत्ता के हर बीते साल के साथ सत्ता का मद भी बढ़ता जा रहा था।लालू के दो साले सुभाष और साधू यादव मानो एक समांतर सरकार चला रहे थे।लालू आलोचना से वेपरवाह थे उनके ठेठ अंदाज से केवल विहार में भीड़ नहीं जुटती थी वो तो दिल्ली की मिडिया के डार्लिंग बन चुके थे। कभी सात बेटियो दो बेटे भरे-पुरे परिवार को लालू सान से पेस करते।लेकिन सारे तमासे दिखवाते के विच लालू प्रसाद यादव की अहिमयत भी बढ़ रही थी।२९ जनवरी १९९६ को एस.आर.बूमय ने जनता दल पड़ से इस्तीफा दिया तो लालू प्रसाद यादव जनता दल के अध्यक्ष बनाये गए।लालू प्रसाद यादव पाटलापुत्र के किंग थे ,अब केंद्र में वो बननेवाले थे किंग मेकर।लालू यादव से पहले कोई गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री ५ साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया था।दूसरे कार्यकाल में तो लालू यादव को पहले से भी अधिक सीटे मिली, वो पूर्ण बहुमत की सरकार चला रहे थे।विहार में लालू का ग्राफ आस्मां की ओर बढ़ रहा था।लेकिन केंद्र में उनकी पार्टी का जलवा खत्म हो चुका था।१९९१ में ही कांग्रेस की वापसी हो गई थी।हलाकि १९९६ आते-आते एक बार फिर खिचड़ी स्थिति पैदा हो गई।अटल विहारी वाजपेय की अगुवाई में एंडीय की सरकार बनी लेकिन आकड़ो के अभाव में १३ दिन में ही गिर गई।इसके बाद गैर कांग्रेसी,गैर एंडीय पार्टिया एक साथ यूनाइटेड फंड के साथ आई।यूनाइटेड फंड में सबसे अधिक सीटे अगर किसी एक पार्टी की थी तो जनता दल।४६ सीटो के डीएम पर प्रधानमंत्री इसी पार्टी से आना था।एक तो लालू पार्टी के अध्यक्ष थे उस पर से ४६ में से जनतादल को सबसे अधिक २२ सीटे विहार से मिली थी जहां लालू मुख्यमंत्री थे।लालू चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे ,लेकिन उन्होंने चुना कर्नाटक के तत्तकालीन मुख्यमंत्री एच.डी.देवगोरा को।लालू ने केवल देवगोरा के प्रधानमंत्री बनने में अहम भीमिका नहीं निभाई उन्होंने ने तो मन्त्रीयियो मण्डल के गठन में अपनी पैठ दिखाई।अपने खासम-ख़ास लोगो को मलाईदार मन्त्रिमण्डल दिलवाये।लालू किंगमेकर से आगेबढ़कर किंग के काम काग को भी निर्धारित कर रहे थे।राजनीति में उनका रसूख ओर रुतवा निरत्तर बढ़ रहा था।लेकिन जिस दौर में लालू यादव का दबदवा शिकार पर था,जिस दौर में उनकी शख्शियत आसमानी हो रही थी उसी दौर में उनके ही विहार के भूमि पर एक बड़ा विवाद जन्म ले रहा था।हर ओर अब चारा घोटाला की शुंग-बुहाहट हो चुकी थी।करीब एक हजार करोड़ के इस घोटाले के संबन्ध पशुपालन विभाग से था।लालू के भाई इसी विभाग के चरासी थे।लालू शुरू से ही भेटनरी कॉलेज काम्पाण्ड में रहा करते थे।इसीलिए ये उनका जाना-माना विभाग था।लालू की मुश्किल तब ओर बढ़ गई जब उनके छत्र आंदोलन के साथी सिवानाद तिवारी,सुशिल मोदी,रविशंकर प्रसाद चारा घोटाले को लेकर मुखर हो गए।ओर मामले को लेकर हाई कोर्ट का दरवाजा खट-खटा दिया।लालू यादव अब तक विहार के जननायक के तौर पर उभर रहे थे।पर चारा घोटाले की आंधी सी उड़ी ओर अचानक उनकी छवि मानो वबंडर में तिनका-तिनका हो कर विखरने लगी।चारा घोटाला एक ऐसा घोटाला था जिसमे फर्जी विलो पर करोड़ो की हेरा-फेरी हुई।इसमें नेता से लेकर अधिकारी पक्ष से लेकर विपक्ष तक एक एक कर नाम खुल रहे थे।लेकिन सबसे बड़ा नाम था,तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव का।उस वक्त लालू जनता दल के राष्टीय अध्यक्ष थे और केंद्र में भी जनता दल की सरकार ऐसे में लालू पर हाथ डालना बहुत कठिन था।लेकिन जैसे जून १९९७ में राज्यपाल ने अनुमति दी सी.बी.आई ने चार्ट-सीट दाखिल कर दी।लालू गलती मानने को तैयार नहीं थे।वो इसे सिर्फ और सिर्फ साजिस करार देते रहे।लेकिन सी.बी.आई अब तक टीम गठित कर चुकी थी।कोलकत्ता के यु.एन.विस्वास की अगुवाई में लालू से पहली पूछ-ताछ जनवरी १९९७ में हुई।लगभग ६ घंटे और ४०० सवालो के बिच लालू ने इस घोटाले को सामंती साजिस घोसित करने की कोशिस की लेकिन यु.एन.विस्वास एक निडर अफसर थे।उनके सामने घोटाले के जो आंकड़े थे।वो एक अलग खानी कह रहे थे।अब तो केंद्र में नए प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल थे।जिनको विहार से लालू ने खुद राज्य सभा सदस्य बनवाया था।लालू ने केंद्र में गुजराल सरकार पर दबाव बनाने की खूब कोशिस की ,लेकिन सी.बी.आई की जांच अदालत के निगरानी में चल रही थी।राजनितिक तौर पर इसे प्रभावित करने की गुंजायश नहीं बन पा रहा था। उलटे पार्टी के अंदर ये मान उठनेलगी की लालू जनता दल अध्यक्ष पड़ से इस्तीफा देदे। लाख कोशिश की गई लेकिन लालू नहीं माने।लालू के अरे रहने से तंग आ कर पार्टी नेताओ संगठनात्मक चुनाव की तारीख तैय कर दी ३ जुलाई १९९७ ।अब तक लालू के मददगार रहे शरद यादव ने लालू के खिलाप अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का एलान कर दिया।जब किसी भी तरह से बात बनती नहीं दिखी तो लालू ने अपने वफादारों के साथ चुनाव का बहिस्कार कर दिया, शरद यादव अध्यक्ष बन गये।उस वक्त केंद्र की यूनाटेड फ्रंट की सरकार में जनता दल की सबसे अधिक ४६ सांसद थे।जिस में से २२ विहार के थे इन में से १८ लालू के साथ रहे और ५ जुलाई १९९७ को लालू यादव दिल्ली में अलग पार्टी बना ली राष्ट्रीय जनता दल।पार्टी तो अलग हो गई लेकिन मुसीबत कम नहीं हुई।चारा घोटाले में पटना हाईकोर्ट का रुख सख्त होता जा रहा था।सी.बी.आई की विशेष अदालत ने लालू के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया।इसके बाद तो सी.बी.आई लालू की गिरफ्तारी की तैयारी करने लगी।यु.एन.विस्वास ने लालू को गिरफ्तारी करने के लिए सेना की मदद मागने की बात कह दी।लालू नहीं चाहते थे की ऐसी स्थिति में जेल जाय की विहार की कमान किसी और के हाथो में चली जाए।चारो तरफ खुद को घिरता हुआ देखकर लालू ने २५ जुलाई को विधायक दल की आपात बैठक बुलाई।इस बैठक में लालू ने चारा घोटाले में खुद को गलत तरीके से फ़साने जाने की बात कही सहानभूति बटोरने की कोशिश की और हाथो-हाथ एक ऐसा दाव खेल दिया जिसका अंदाजा किसी को भी नहीं था।लालू ने तय कर लिया था की अबतक उनका घर सभाल रही उनकी पत्नी रावरी देवी अब विहार सभांलेगी।दरसल लालू से पहले कई राजनेता मुश्किल के वक्त में अपने परिवार वालो ही सबसे अधिक भरोसा करते रहे है।हलाकि उस वक्त लालू के कई विश्वस्त नेता ऐसे थे जो मन ही मन उनकी कुर्सी सभालने का खाव्ब देख रहे थे।पर रावरी देवी के शिन में आने से कहानी ही बदल गई।एक ऐसी महिला जिसने अपना पूरा जीवन अबतक चूल्हे-चौके में बिताया था।एक ऐंसी महिला जिसने हमेसा पति से चन्द कदम पीछे चलने को अपनी खुस किस्मत माना था।एक ऐसी महिला जो अनपढ़ थी विहार जैसी राज्य की मुख्यमंत्री बनने वाली थी जो बड़े-बड़े दिग्जो की राजनितिक पाठशाला रहा था।रावरी देवी को विधायक दल का नेता चुनवाने के बाद।आखिर कार राज्यभवन जा कर लालू यादव ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।आनन-फानन में उसी साम रावरी देवी को विहार की मुख्यमंत्री के तौर पर सपथ भी दिलवा दिया गया।२९ जुलाई की रात बेहद नाटकीय थी,दिन में पटना हाईकोर्ट ने लालू की अग्रणीम जमानत याचिका खारिज कर दी।लालू हथकड़ी में नहीं ले जाना चाहते थे,लिहाजा घोषणा कर दी वो आत्म समर्पण करेंगे। फिर भी मुख्यमंत्री आवास एक अने मार्ग को सुरक्षा बल ने घेरो में ले लिया था।और भोर तक ये खबरे आने लगी यु.एन.विस्वास ने लालू की गिरफ्तारी के लिए सेना बुला ली है।गिरफ्तारी के डर के भीच वो रात जैसे-तैसे कटी।३० जुलाई को सबेरे १० बजे लालू आत्मसर्पण करने सी.बी.आई कोर्ट पहुचे।लालू १३४ दिन तक जेल में रहे इस दौरान विहार में अर्कज़कता फैल रही थी। आर.जे.डी कार्यकर्ता ट्रेन रोकते,सरक जाम करते मानो पूरा राज्य रुक जाता था।पर जेल से भी लालू मुख्यमंत्री बने रहे।हस्ताक्षर करने वाले हाथ रावरी देवी के होते पर मंजूरी लालू यादव के।फैसले सुनानेवाली जुवान रावरी की होती दिमाग लालू का।इस बिच केंद्र में पार्टी के तौर पर आर.जे.डी यूनाटेड फ्रंट सरकार का हिस्सा नहीं थी, फिर भी आर.जे.डी के मंत्री कैबिनेट में कायम रहे।ये स्थिति तब-तक बनी रही जब तक २८ नवम्बर १९९७ को कांग्रेस ने गुजराल सरकार से समर्थन खीच नहीं लिया।११ दिसम्बर को जब तक लालू जेल से छूटे तब तक केंद्र में गुजराल केवल अंतरिम प्रधानमंत्री के हैसियत में थे।अगले लोकसभा चुनाओ की तैयारियां चल रही थी लालू विहार की राजनीति से अब केंद्र की ओर जाने की कोशिस में जुट गये।१९९८ लोकसभा चुनाव में लालू एक बार फिर शुखीयो में थे।जब यादव बहुमत मधुपुरा सीट से उन्हें जनतादल अध्यक्ष सरद यादव ने खुली चुनोती दे डी पूरी देश की नजर दो दिग्जो की इस टक्कर पर रही।मधेपुरा में बाजी लालू यादव ने मारी लेकिन उनकी पार्टी की सीटे घट कर १७ रह गई।इस बिच नितीश बी.जे.पि का दामन थाम एन.डी.ए में सामिल हो चुके थे।उनका पोलटिकल ग्राफ ऊपर जा रहा था।१९९८ में केंद्र में एन.डी.ए की सरकार आई नितीश कुमार मंत्री बने। हलाकि ये सरकार १३ महीने में गिर गई और १९९९ में फिर आम चुनाव हुए। लालूकी राजनीति को देखने का एक नया नजरिया आकार ले राह था।लोकसभा ने हार मिली,चारा घोटाले में शिकंजा कस रहा था।लालू एक नए संघर्ष में घिरे थे।संघर्ष अपनी सियासत को बचाने का अपनी सरकार को बचाने का।पार्टी के अंदर अशंतोश पनप रहा था।नितीश ताकत के तौर पर उभरे थे।इसी कर्म में अपराधियो से समझौता भी हुआ।अपराधियो को संरक्क्षन भी दिया गया।यु तो लालू के पहले कार्य-काल में ही अपहरण हत्याएं ,लूट-पात की खबरे आणि शुरू हो गई थी।लेकिन प्रशानिक वेब्सी अब और बढ़ती जा राही थी।अपहरण उधोग की सकल लेने लगा था।खबरे तो यहां तक आती थी की फिरौती की रकम को पुलिस से राजनीतिको के भीच बाटा जाता था।लालू के शासन के दौरान कुल १७००० अपहरण हुए.२४००० डकैतियां हुई, २४६९९ लूट की बारदातें हुई।लालू के बिच राबड़ी शासन में तो जातियो विभाजन की लकीरे और गहरी हो गई।कई बड़े नरसंघार हुए।२०० से अधिक लोगो ने अपनी जान गवाई।राज्य में निजी शेनाओ का तांडव मच गया।इस बिच अगस्त १९९८ में सी.बी.आई ने अब लालू के खिलाफ आई से अधिक संपति का मामला भी दर्ज कर लिया था।सर्बोच्च अदालत ने स्लेंडर करने का आदेश सुनाया और अक्टूबर १९९८ में लालू को एक बार फिर जेल जाना पड़ा। इस बार जब लालू आत्मसमर्पण के लिए गये तो केवल १५ मिनट में पहुच गये। पिछली बार समर्थको की भीड़ के भीच इतना ही फासला तक करने में उन्हें ४ घण्टे लगे थे।इस दफा लालू ७० दिनों तक जेल में रहे।हलाकि ये कहने के लिये जेल थी पहली बार तो रावरी सरकारी ने ये निश्चित किया की लालू जेल के नाम पर विहार मिलिट्री पुलिश के गेस्ट हॉस में रहे। बाद में जब सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति की तो उन्हें बेऊर जेल जाना पड़ा।हलाकि वहाँ भी उनके लिए भी.आई.पि व्यवस्था कायम रही।इधर केंद्र की वाजपेय सरकार की अब विहार की ओर नजरे गराई थी।फरवरी १९९९ में रावरी देवी सरकार को जंगल राज के आरोप लगाकर बर्खास्त कर दिया गया।लालू ने अपनी सियासी सफलता का नमूना दिखाते हुए कांग्रेस की मद्त ले ली और केंद्र को बर्खास्तगी का आदेश वापस लेना पड़ा।साल २००० में जब विहार में चुनाव हुए तो लगभग हर राजीनीतिक विश्लेषक ने लालू के अंत की भविष्वाणी कर दी थी।क्योकि इस लराई में एक ओर अकेले लालू यादव थे दूसरी तरफ वाजपेय ,आडवाणी ,जार्ज फन्डाडीश .नितीश कुमार, शस्त्रुध्न सिंहा।लेकिन जब चुनाव के नतीजे सामने आना शुरू हुए तो एक पल को तो लालू को भी विश्वाश नहीं हुआ था।हाँ १९९५ के नतीजे से बहुत पीछे रह गये थे।फिर भी अकेले आर.जे.डी की सीटे एन.डी.ए की कुल सीटो से २ अधिक थी।एन.डी.ए को १२२ सीटे मिली थी नितीश कुमार सर्व समति से मुख्यमंत्री के तौर पर कुबूल थे।उन्होंने राज्यपाल को १४६ विधायको की सूचि सोपि और आर.जे.डी ने विरोध के बावजूद उन्हें सपथ दिला दी गई।लेकिन ये ड्रामे का अंत नहीं था लालू यादव दिल्ली भी गये साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने की खातिर कांग्रेस का समर्थन हासिल किया ।हलाकि कांग्रेस की विहार इकाई में लालू कुबूल नहीं थे।लेकिन विश्वाश्मत की तारीख तक लालू ने कांग्रेसी विधायको को पटना के एक लक्जरी होटल में नजरबंद रखा।छोटी पार्टियां ,इंडिपेंडेंट एम.एल.ए ,सबको रिझाने की होर सी पर गई।आखिर कार विश्वासमत से पहले ही नितीश को अपने कमजोरी का अहसास हो गया।उन्होंने केवल ७ दिनों में कुर्सी छोर दी।राज्यपाल को रावरी देवी को सरकार बनाने की नियोता देना पड़ा।आर.जे.दी को लेफ्ट पार्टियों का साथ मिला और कांग्रेस का बाहरी समर्थन।रावरी देवी दूसरी वार विहार की मुख्यमंत्री बनी।रावरी देवी के मुख्यमंत्री बनने के चन्द हप्ते के भीतर सी.बी.आई ने एक और चार्जसीट दाखिल की जसमे आय से अधिक सम्पति मामले में रावरी और लालू यादव दोनों का नाम शामिल किया गया।लालू को तीसरी दफा जेल जाना पड़ा।रावरो लप बेल मिल गई और उनकी सरकार कायम रही।इस बिच विहार में राज्य बटवारे की मांग जोर पकड़ने लगी।वाजपेय सरकार अपनी घोषणा पत्र में छोटे राज्य बनाने की बात कही थी इससे उत्साहित हो कर झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने अपना आंदोलन तेज कर दिया इधर बी.जे.पि के अंदर भी व्रांचल राज की मांग जोर-सोर से उठने लगी।लेकिन केंद्र सरकार ने विहार ,मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश का बटवारा कर झारखण्ड छतीशगढ और उत्तरांचल बनाने का एलान कर दिया।१५ नवम्बर २००० को विहार से अलग झारखण्ड राज्य का जन्म हुआ।आजादी के बाद विहार के लिए ये सबसे बड़ा टर्निग पॉइंट था प्राकृतिक संसाधनों से समर्ध्य झारखण्ड के अलग होते है विहार को सवारने का संकट खरा हो गया।झारखण्ड को अलग होते ही उधोग से लेकर खनिज तक सब विहार से छीन गए एक गरीब राज्य ने एक आमिर राज्य को जन्म दिया।विहार में सुरक्षा से डर गए कई कारोबारियों ने भी झारखण्ड में दोकान लगाना बेहतर समझा।इस विभाजन के बाद लोकसभा के ५४ में से १४ सीटे झारखण्ड के पास चली गई और विधानसभा की ३२४ में ८१ सीटे भी ।विहार के पास अब रह गई लोकसभा की ४० और विधानसभ की २४३ सीटे।कुछ ने इस वक्त पर झारखण्ड को अलग करने के फैसले को एन.डी.ए की सियासी दौर पर भी देखा ।अगर वाकिये ऐसा था तो ये दाव उलटा पड़ा २००४ में जब संसदीय चुनाव हुए तो आर.जे.डी ने वापसी कर ली विहार की ४० सीटो में आर.जे.डी ने २२ जीती तो एन.डी.ए के खाते में आये केवल ११। आम चुनाओ में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। एन.डी.ए १६९ सीटो पर सिमट गई।कांग्रेस सबसे बरी पार्टी के तौर पर उमरी।सरकार बनाने के लिए यु.पि.ए का गठन हुआ।आर.जे.डी इसका गठबंधन में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बरी पार्टी थी।लालू यादव यहां फिर राजनितिक दवा चला।कांग्रेस विरोधी की सियासत से जन्मे लालू कांग्रेस के समर्थन में खुल कर सामने आये।यहाँ तक की विदेशी मूल के मसले पर घिरी सोनियां गांधी का नाम प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तावित करने वाले वह पहले व्यक्ति थे।लालू रेल मंत्री बने और ऐसा कार्यकाल निभाया की देश-विदेश में उनकी मॉडल की चरचा शुरू हो गई।लालू लोक-लुभावन फैसले लेते।वार-वार उन्होंने ए दावा किया की रेलवे को उन्होंने मुनाफे में पहुचाया।हलाकि इस पर कई सवाल उठे।एक तरफ केंद्र में लालू छाये हुए थे उनके घोटाले का शोर थोरा सांत हुआ था।लेकिन केश में ढिलाई नहीं थी।दूसरी तरफ २००५ में विहार एक बार फिर विधानसभा चुनाव के लिए तैयार था।एक तो पिछली वार के गलत पूर्वानुमान और दूसरी केंद्र में सत्ता से बेदखल होने के बाद एन.डी.ए गठबंधन का आत्मविश्वाश डिगा हुआ था।लालू जोश से भरपूर थे।फरवरी २००५ में जो चुनाव हुए उसमे विहार में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नही दिया।एन.डी.ए ९२ सीटो के साथ सबसे आगे जरूर थी लेकिन नितीश ने दावा पेश करने से इनकार कर दिया।विहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।९ महीने वाद जब नवम्बर २००५ में दोबारा चुनाव हुए तो नितीश के अगवाई में एन.डी.ए को स्पष्ट बहुमत मिल गया।बी.जे.पि , जे.डी.यु को १४३ सीटे मिली आर.जे.डी ५४ सीटो पर सिमट गई।लालू यादव हमेशा कहते थे जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा विहार में लालू ,लेकिन १५ सालो तक सत्ता पर काविज रहने के बाद लालू-रावरी राज्य का अंत हो गया।नितीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनते ही अपने मंत्रियो और अधिकारियों की बैठक बुलाई।इस बैठक में उन्होंने साफ़ कहा की अपराध को राजनितिक सरकक्षण देने के दौर को खत्म करना होगा।पुलिश अधिकारी के लिए एक ही नीति होनी चाहिए जीरो टॉलरेंस।नितीश भरसक जतन कर रहे थे की कानून तोड़नेवाले के साथ सख्ती हो चाहे वह कितना ही रसूखदार व्यक्ति क्यों न हो।उनके पहले ही कार्य-काल में ७००००के करीब मामलो में डॉ सिद्ध करने में सफलता मिली।विहार में बाहुबलियों के खासम-ख़ास कमलेश्वर यादव को जेल में डाला गया।सिवान में कोहराम मचानेवाले लालू के एक और करीवी शाहबुद्दीन को सजा हुई।पापु यादव जेल गए।नितीश के राजीनीतिक दोस्त रहे आनंद मोहन शलाखों के पीछे गए।मोकामा माफिया के सरगना सूरज भान को जेल हुई,वषैली के मुन्ना शुक्ला भी जेल गए।न्याय निर्भीक और निरपक्ष नजर आने लगा।हलाकि यह सच है की नितीश सरकार ने भी चन्द दागी रहे।हाल में ही सजा हप्ता हुए अनन्त सिह उनकी सरकार का हिस्सा थे।लेकिन आम जनता के लिए बारे सच ये भी था की २०१० तक अपराध के आकरो में ६८% कमी आई।विहार अब खुल कर सांस ले रहा था।अपराध घटा,सरको की हालत सुधरी,अपहरण के डर से घर में घुट रहे बच्चे अब बाहर घूम रहे थे।सरके अब सुनसान नहीं थी ,खाने-पिने की दुकानों में अब रातो में भी रौनक दिखती थी।निरीश कुमार के अगुवाई में जे.डी.यु ,बी.जे.पि सरकार ने जंगलराज्य खत्म करने की दिशा में जो कदम उठाये थे वो चुनावी नतीजो के शक्ल में नजर आए।२००९ में जब लोकसभा चुनाव हुए तो केंद्र में यु.पि.ए ने वापसी की लेकिन विहार में लालू यादव के लिए दयवाजे बन्द कर दिए।एन.डी.ए ने ३२ सीटे हासिल की तो आर.जे.डी को मिली कुल ४ और २०१० में जब विधानसभा चुनाव हुए तो जनता ने नितीश कुमार को २०६ सीटो के साथ छपरफार बहुमत दे दिया।ये विश्वास सिर्फ एक आबादी का एहसास नहीं था ,ये बदलाव आकरो में दिख रहा था।२००४-२००५ में जो विकाश दर २.६% थी वो २०१३ तक १४% पर कर गई शिक्षा.शाकक्षरता,कृषि, इंस्फ्राटेक्चर सबकी तस्बीर बदल गई।राज्य में विकाश और शुसान का संयुक्त श्रेय जे.डी.यु और बी.जे.पि का था।विहार की जनता संतुष्ट थी हर क्षेत्र में काम रफ्तार पकड़ रकी थी।विहार को शायद कुछ अपनी तकदीर पर नाज होने लगा था।लेकिन ये खुशहाल परिवार टूट की कगार पर था।
१९९५ में नितीश कुमार ने पहली दफा लालू यादव के सत्ता को चुनोती दी थी।तब उन्होंने सी.पि.आई ML का साथ लिया था।उस वक्त ऐसी करारी हार मिली थी उन्हें जैसे राजनीति से ही वीरकती हो गई थी।लगभग उसी वक्त नितीश को बी.जे.पि की ओर से गठ-जोर की पेशकस की गई।किसी भी समाजवादी के लिए बी.जे.पि के साथ जाना आसान फैसला नहीं था।लेकिन दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है और लालू यादव नितीश कुमार के सबसे बड़े दुश्मन थे।जब २००२ में गुजरात में दंगे हुए तब नितीश कुमार के केंद्र एन.दी.ए सरकार में मंत्री थे ।नितीश को उस वक्त अपनी समाजिक विचारधारा के नाते गुजरात दंगो पर कठोर सवालो का सामना करना पड़ता था।नितीश की दलील थी की में मोदी सरकार का नही वाजपेय मण्डल का हिस्सा हु।लेकिन जब एक दफा २००३ में उन्हें गुजरात में नरेंद मोदी के साथ मंच साझा करना पड़ा तो उन्होंने तारीफो के पुल बाँध दिए।वास्तव में नितीश मोदी के कायल नहीं थे पर लालू को उखाड़ फेकने जरूरत कुछ ऐसी थी की बी.जे.पि में नरेंद्र मोदी में उस वक्त कुछ भी बुरा नहीं दिख रहा था।खैर ए साझेदारी चलती रही ,फलती-फूलती रही कई राजनितिक विश्लेषक तो इसे निश्नवगीक गठबंधन मानते थे।बी.जे.पि ने भी नितीश से अछि दोस्ती निभाई जब २००५ में गठबंधन का मुख्यमंत्री उमीदवार घोषित करने की वारी आई तो नितीश को अटल विहारी वाजपेय ,अरुण जेटली ,प्रमोद महाजन सब का समर्थन मिला जब की जे.डे.यु में ही उनके नाम पर आपत्ति कर दी थी।जेटली ने फंडडीस से मुलाक़ात की उन्हें समझा-बुझा कर राजी कर लिया।और अगले दिन जॉर्ज ने प्रेश कॉन्फ्रेंस में नितीश के नाम पर जे.ड.यु की भी मोहर लगा दी।हलाकि इस घटना के बाद से ही नितीश और जार्ज फ़न्डाडीस के बिच दरार गहरानी शुरू हो गई थी।नितीश के जीवन पर एक पुस्तक अकेला आदमी में लेखक कहते है की नितीश के छात्र रहते हुए नेता बनने की इक्छा पर कहा था सत्ता प्राप्त करुगा चाहे जैसे भी हो लेकिन सत्ता ले के अच्छा काम करुगा।बी.जे.पि. को साथ ले कर ये अभिलासा २००५ में पूर्ण हो चुकी थी।अब अच्छा काम करने की बारी थी।साक्क्षरता से लेकर विकास तक नितीश ने ऐसा काम किया की प्रसंसा और पुरस्कारों की झरि लग गई।सत्ता के दूसरे साल में ही ये अवार्ड नितीश के मेज पर सज गए।इसी विच २००७ में विहार में भयंकर बाढ़ आई।बागमती बूढी गन्धक और कमला बलान ने अपने-अपने तट बाँध तोर दिए।एक ही रात में लगभग दो तिहाई उत्तर विहार जल मंगन हो गया।नितीश तब मॉरीसस यात्रा पर थे और तत्कालीन रेल मंत्री लालू यादव ने इसका फैदा उठाने की भरपूर कोशिश की थी।लेकिन नितीश जितनी जल्दी लौट राहत बचाव कार्य खुद सभाला।२००७ के बाद से निपटे हुए प्रशासन ने आपदा प्रबन्धन का कम से कम बुनयादी ढांचा तयायर कर लिया था।लेकिन अगले साल अगस्त में जब कोशी नदी में बाढ़ आई तो कोई तैयारी काम नहीं आई रात के अँधेरे में नदी ने विकराल रूप धारण कर लिया।जब तक राजधानी तक शुचना पहुच पाती जिले के जिले इसमें चपेट में आ गए।दिल्ली और पटना के बिच दोस मढ़ने की राजनीति शुरू हो गई।लेकिन नितीश ने शहत कार्य का मोरचा सभालने में वक्त नहीं लगाया विहार में बाढ़ तो हर साल आती थी और नेपाल से सन्धि न होने के कारण नियंत्रण भी संभव नहीं था।लेकिन राहत कार्य का ऐसा नमूना कभी देखा नहीं था।एक तरफ थी नितीश की छवि जो चमक रही थी विकाश के आकड़े जो इतरा रहे थे।लेकिन विहार की युवा अभी भी अलग-अलग राज्यो में में काम की खातिर पलायन को मजबूर थे।और इसी दौरान शुरू हुआ एक ऐसा दौर जब देश के कई राज्यो में बिहारियो पर कहर टूटने लगा।यु तो छित-पिट घटना लम्बे समय से चल रही थी लेकिन २००८ के आस-पास इनमे तेजी आ गई।तब एन.डी.ए के मजबूत घटक शिव शेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे ने लेख लिखकर विहार विरोधी भावनाओ को और भड़काया था।नितीश विरोध तो करते थे लईकिन गठबंधन तोड़ने की परिपक्वता के साथ।बरी बात ये है की बदलते विहार में धीमे-धीमे पलायन भी घटने लगा।लेकिन अब नितीश के अस्कूलिसिव भोत बैक भी था साथ ही अब मुसलमानो में पिछड़े पसमंदा को वो अपने पक्ष में समेत चुके थे।ऐसे में अपनी धर्म निरपेक्ष छवि को लेकर नीतीश अब बहुत सवेदनशील हो गए थे।यही कारण था की बी.जे.पि के साथ रहने के बावजूद वो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से दुरी बनाये रखना चाहते थे।नरेंद्र मोदी ने गुजरात को चमका कर उनकी लोकप्रियता आसमान छू रही थी बी.जे.पि में प्रधानमंत्री उमीदवार के तौर पर उनकी नाम की सुगबुहाट थी।लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी विकास पुरुष का खिताब हासिल कर चुके थे तो नितीश की छवि भी शुसासन और विकास से ही जुड़ी थी।हलाकि इसके बावजूद गठबंधन की मजबूरियों में नितीश बधे हुए थे।विहार में मतदाताओ के सामने भले ही वो मोदी के साथ नहीं दिखे।२००९ में लुधियाना में हुई एन.डी.ए की रैली में उन्होंने नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा किया।नितीश जानते थे की राजनीति छवि का खेल है और भोत बैंक खाते में उस छवि की पूजी बेहद अहम थी। वो समझते थे की मोदी के साथ दिखना या उनके करीवी के तौर पर पहचान होने से उनका खुद का कार्य संयोजा हुआ पिछड़े मुसलमानो का वोट बैंक छिटक सकता है।लेकिन क्या हुआ जब दोनों नेताओ की करीबी का इस्तहार छप गया।२०१० विधानसभा चुनाओ से चंद महीने पहले १३ जून को पटना में बी.जे.पि की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक होनी थी।खूब तैयारी चल रही थी।पोस्टर-बैनर लग रहे थे, विहार के तत्तकालीन उप-मुख्यमंत्री सुसील मोदी की गुजारिस पर नितीश कुमार ने मोदी समित बी.जे.पि के सभी नेताओ के लिए भोज का आयोजन किया था।सबको निमन्त्रण भेजा जा चुका था।नितीश उस वक्त पटना में नहीं थे वो आनेवाले विधानसभा चुनाओ के लिए आयोजित विकास यात्रा पर उत्तर विहार की दौरे पर थे।सायद इसीलिए सरको पर लगे पोस्टरों से अनजान थे।लेकिन १२ जून की सुबह जब अखबार खोला तो गुस्से में आग-बबूला हो गए।इस इस्तिहार में २००९ की लुध्याना रैली की वो तस्वीर थी,जिसमे नितीश और मोदी एक मंच पर हाथ पकड़े खरे थे।विहार की जनता के सामने पंजाब की भूमि की व मित्रता जाहिर होने का ख़याल ही चुभने वाला था।लेकिन उससे बढ़कर चुभ रही थी वो बात जो इस्तेहार में लिखी थी।इसमें जीकर था मोदी की ओर से कोशी राहत के लिए ५ करोड़ के दान का जिसे महादान करार दिया गया था।नितीश इतना तमतमाये की फ़ौरन फ़ोन घुमाया आदेश दिया की जिस भोज का उन्होंने आयोजन किया गया है उसे रद कर दिया जाए तब शुशील मोदी ने कई कोशिश की नितीश को समझाया जाए चुनाव सर पर थे।गठबंधन के लिहाज संकेत सही नहीं होते।लेकिन नितीश को तो उस सन्देश पर एतराज था जो बी.जे.पि के इस्तेहार से विहार की जनता के बिच पहुच चूका था।नितीश ने कोशी राहत का वह चेक भी लौटा दिया।२००९ में बी.जे.पि को केंद्र में एक झटका मिल चुका था।बी.जे.पि के वरिष्ठ नेता नहीं चाहते थे की इस्तेहार के नाम पर एन.डी.ए सासित एक राज्य उनके हाथ से निकल जाए।लेकिन न तो नितीश झुकने को तैयार थे नहीं मोदी ये मान रहे थे की पोस्टरों में कुछ गलत था।अगले दिन रैली को संबोधिंत करते हुए उन्होंने गुजरात के विकास ओर बिहार के पिछड़ेपन पर टिपणी कर दी।खुले आम हुए इस झगड़े से संस्थानिये स्तर पर भी दोनों पार्टी के बिच ताना-तानी बढ़ी।लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी और सरदयादव किसी तरह मामले को ठंडा किया गठबंधन नहीं टूटा चुनाव हुए अटकले थी दरार की खबरे से नुक्सान होगा।उलटा एन.डी.ए को २०६ सीटो के साथ प्रचण्ड बहुमत हासिल हुआ।लेकिन रिस्तो के भूकम्प में जो दरारे उभरी थी ।उन्हें जित भी नहीं भर पाई।नितीश कुमार का मानना था २००४ में एन.डी.ए की हार की सबसे बरी वजह थी गुजरात के दंगे यानी नरेंद्र मोदी।२००९ की हार ने उस विश्वास को और पक्का कर दिया।उन्हें न तो मोदी की राजनीति पसन्द थी न ही बी.जे.पि के भीतर मोदी का समर्थन।नितीश ने लाल कृष्ण आडवाणी के अगुवाई के विफलता को देखने से परहेज किया।एन.डी.ए की हार असफलता को नरेंद्र मोदी से जोड़ते रहे ।वैसे २०१० की जित के बाद विहार की राजनीति में मोदी की राजनीति भूमिका न के बराबर रही।यहां तक की एकदफा जब नितीश से पूछा गया की आम चुनाव के प्रचार के लिए व मोदी को बुलायेंगे तो उन्होंने कहा विहार में एक ही मोदी काफी है।उनका इसारा उपमुख्यमंत्री शुशील मोदी के तरफ था।नितीश का एहसास था की वह अकेले नहीं जो मोदी को प्रधानमंत्री उमीदवार के तौर पे नहीं देखना चाहते है।बी.जे.पि के भीतर की कसमसाहट से वो वाकिब थे, आम-चुनाओ की तैयारी के तौर पर २०११ में लाल कृष्ण आडवाणी भष्ट्राचार विरोधी जन चेतना यात्रा शुरू करने वाले थे और सुरुआत के लिए उन्होंने गुजरात के सोमनाथ की जगह विहार के सीताबधिहर को चुना।नितीश ने रथ को हरि झंडी दिखाई।आडवाणी दो चुनाओ की हार के बावजूद एक बार फिर एन.डी.ए में प्रधानमंत्री की उमीदवारी की उमीद लगाए थे।पर बी.जे.पि के भीतर अब मोदी के लिए समर्थन बढ़ रहा था।नितीश को भी पे आभाष होने लगा था।यहां तक की उनके अपने मन्त्रिमण्डल में बी.जे.पि के मन्त्रयो का मोदी जाप शुरू हो चूका था।जब नवम्बर २०१२ में बी.जे.पि के वरिष्ठ नेता कैलाशपति के निधन पर शोक जताने मोदी पटना पहुचे तो बी.जे.पि कार्यकरताओ ने उनके पक्ष में खूब नारेबाजी की नितीश कुमार ने ऐसे गठबंधन का हिस्सा नहीं रहेंगे जिसका चेहरा नरेंद्र मोदी हो।उन्होंने बी.जे.पि नेतृत्व से इस वाहव तोह लेनी शुरू कर दी नितीश गडकरी से लेकर राजनाथ सिंह ने उन्हें भरोसा दिलाया की किसी भी फैसले से पहले गठबंधन से सभी सहयोगी से परामर्श किया जाएगा।नितीश ने बी.जे.पि को प्रधानमंत्री उमीदवार के एलान के लिए दिसम्बर २०१३ तक वक्त दिया।लेकिन सायद बी.जे.पि का शिर्ष नेतृत्व भी नहीं जानता था की कार्यकर्ता के मोदी जाप के बिच किसी भी तरह के सलतुलन ओ रस्मति की गुंजाइस खत्म होती जा रही थी।इस वक्त तक भी नितीश कुमार को भरोसा था की सहयोगी पार्टियां के दवाब में बी.जे.पि मोदी के नाम का एलान नहीं करेगी।लेकिन बी.जे.पि को मोदी लहर नजर आ रही थी वह नितीश देख नहीं पा रहे थे।९ जून २०१३ को बी.जे.पि ने गोवा में मोदी को आम चुनावो के लिए बी.जे.पि की प्रचार समिति का अध्यक्ष घोसित कर दिया।ये फैसला बैठक से पहले ही तय था।नराजगी में लाल कृष्ण आडवाणी उस बैठक में हिस्सा लेने भी नहीं गए।यहां तक की एलान के बाद पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया।उधर नितीश कुमार ने भी अपनी नराजगी जाहिर कर दी।लेकिन पार्टी मन बना चुकी थी।आडवाणी को भी चन्द दिनों में इस फैसले को कुबूल करना पड़ा।जब पार्टी के राजामंदी जरूरी नहीं थी फिर नितीश की क्या मिसाल।गोवा अधिवेशन की उस घोषणा के १३ दिन बाद १६ जून २०१३ को नितीश कुमार ने १७ साल पुराने रिस्ते को तोर दिया।नितीश सीधे राज्य भवन पहुचे राजपाल को बता दिया की १९ जून को नया विश्वासमत हासिल करेगे।क्योकि सभी बी.जे.पि मंत्रियो को बर्खास्त कर रहे थे और बी.जे.पि अब सरकार का हिसा नहीं थी।बी.जे.पि और जे.डी.यु दो ऐसे साथी जो विहार के विकास के साझेदारी थे।अब उस विकास का श्रेय का बटवारा शुरू हो गया।किसने किसे धोखा दिया.किसने किया विश्वासघात ये आरोप लगाने शुरू हो गए।जे.डी.यु के ११७ विधायिकों के अलावा नितीश को समर्थन मिला ४ निर्दलीय, ४ कांग्रेस और १ सी.पि.आई विधायक का कुल १२६ के साथ नितीश ने अपनी शक्ति दिखाई।बी.जे.पि के ९१ विधायक ने वाकॉट किया और आर.जे.डी के २२ विधायको से कुल २४ ने प्रस्ताव के खिलाफ भोट दिया।केंद्र में लरखराती कांग्रेस को तो आम चुनाव से पहले नितीश के रूप में एक दमदार साथी दिख राहा था ।लेकिन समाजवादी नितीश के लिए कांग्रेस का साथ लेना इतना भी सरल नहीं था।पर अब नितीश कुमार खुल कर नरेंद्र पर निशाना साधने लगे।२०१४ के आम चुनाव दोनों ही पार्टी य यु कहे की दोनों ही नेताओ के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया।अब तक नितीश कुमार ने किसी भी चुनाव में नरेंद्र मोड़ो को प्रचार की खातिर विहार की धरती पर कदम नहीं रखने दिया था। अब मोदी विहार में धरा-धर रैलियां करने लगे।यु तो रैलियां में उम्र जन सेलाव को दरकिनार करने के बी कोशिश हुई।लेकिन जब नतीजा आये तो जनादेश सामने था।एन.डी.ए ने ४० में से ३१ साइट हासिल कर ली थी।जिसमे २२ सिर्फ बी.जे.पि ने जीती नितीश के जे.डी.यु को मिली २ सीटे और आर.जे.डी ने हासिल किये ४।इसारा साफ़ था दौर बदल चुका था दुश्मन बदल चुका था।१५ साल पहले किसी से हाथ मिलाने के कीमत पर लालू को उखाड़ फेकने के इक्छुक नितीश के निशाने पर अब नरेंद्र मोदी थे।नितीश की लाख कोशिओ के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री बन गए थे।जिस तरह कभी लालू से पहली बार चुनाव हारने के बाद नितीश राजनीति से ही कटने लगे थे।इस हार के बाद भी उनकी प्रतिक्रिया कमोवेश वेशि ही थी ।नरेंद्र मोदी अपनीविजय यात्रा के तौर पर वाराणसी के दोसमेव घाट पर भगवान विश्व्नाथ के पूजा अर्चना कर रहे थे।जब नितीश ने मुख्यमंत्री पड़ से ही इस्तीफा दे दिया।नितीश ने विहार की जिमेदारी जीतन राम माझी को सौपा।जीतन माझी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा की वह एक दिन विहार के मुख्यमंत्री बनेगे।वो नितीश के विश्वाशपात्र थे।उनके मंत्री-मण्डल के हिस्सा थे ,लेकिन अचानक मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलेगी ए विश्वास से परे था।इस बिच अपने नए दुश्मन नंबर १ को हटाने के लिए नितीश अपनी पुरानी रँजिशो को भूल चुके थे।२० साल पहले जिस लालू यादव से बेहद कड़वाहट के साथ उन्होंने संबन्ध तोरे थे।आज उन्ही से रिस्ता दोबारा कायम कर चुके थे।विहार विधानसभा के १० सीट पर उपचुनाव इस दोस्ती का पहला इन्तेहान था और आर.जे.डी , जे.दे .यु ने इसमें ६ सीटे हासिल कर ली।नितीश के मन में जो संसय थी।वो कुछ-कुछ दूर हुआ मोदी के खिलाप तो महागंठबन्धन जुटाने लगे।
जिस विश्वास के साथ जीतन राम माझी मुख्यमंत्री के लिए चुना था वो दरकने लगा।माझी कभी मंच से भरष्ट्राचार की वकालत कर देते,कभी अजीबो-गरीब ब्यान दे कर पार्टी की पशुपेक्ष में दाल देते।इतना ही नहीं माझी नितीश कार्यकाल के कई फैसले पलटने लगे।उनके द्वारा नियुक्त अधिकारियों के तबादले करने लगे।केंद्र की मोदीसरकार की भी तारीफ़ करने लगे।नितीश अब अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी वापस चाहते थे।लेकिन मुश्किल ये थी न केवल माझी के सुर बगावती थे बल्की उसके समर्थन में कई विधायक खरे हो गए थे।माझी पार्टी का महादलित चेहरा थे इसीलिए उन्हें हटाना आसान फैसला नहीं था।आखिरी दाव के तौर पर माझी ने विहार विधानसभा भंग करने का प्रस्ताव दे दिया।हलाकि केवल ७ मंत्रियो ने इसका समर्थन किया।बाकी २१ ने नितीश को दोबारा मुख्यमंत्री बनाने की सिफारिस कर दी।इसी साल ७ फरवरी को नितीश एक बार फिर विहार के मुख्यमंत्री बन गए।इस दफा अपनी कुर्सी बनाये रखने की उमीद के साथ चुनाव से पहले नितीश व साड़ी योजनाए दुरुस्त कर लेना चाहते थे जिनके डीएम पर वो भोट मागते।तो नरेंद्र भी खुद को विहार का सबसे बड़ा हितेसी साबित करने में कोई कोर कोशिश नहीं छोड़ना चाहते।चुनाव की घोषणा से पहले ही पाटलिपुत्र की जंग तेज हो चुकी थी,राजनीति के दिग्ज एक से बढ़कर एक वक्ता इन शख्सियतो के सामने तो कई दफा मुद्दे भी गौण हो जाते है।नरेंद्र मोदी ने नितीश के डी.इन.ए पर सवाल उठाये तो नितीश ने इसे विहार का अपवाह बताते हुए उनके पास डी.एन .ए सैम्पल भेजवाने शुरू कर दिये।
नितीश कुमार ५ वी बार विहार में मुख्यमंत्री के तौर पर सपथ ली।हलाकि मुकमल कार्यकाल के तौर पर यह तीसरा ही कहा जाएगा।कहना मुश्किल होगा कि नितिश के लिए २००५ की जित ज्यादा बरी थी जब उन्होंने अपने कट्टर दुश्मन लालू यादव को उखाड़ फेका था या फिर इस बार जब लालू का साथ ले कर अपने नये दुश्मन मोदी को शिकस्त दी।
समाप्त
सत्य प्रकाश
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