जैन धर्म
बौद्ध धर्म के तुलना में जैन धर्म अधिक प्राचीन है।जैन परम्पराओ और धार्मिक गर्न्थो के अनुसार जैन धर्म और वैदिक धर्म के समान ही प्राचीन है। ऋग्वेद के केशी सूत्र में ऋषभवेद का उल्लेख मिलता है। जैन परम्परा ऋषभवेद को अपना पहला तीर्थकर मानती है। जैन धैम के तेइसवे तीर्थकर पाश्र्वनाथ थे और चौबीसवे तीर्थकर महावीर स्वामी हुए।तीर्थकर महावीर:=======>
------>जीवन चरित्र :-
महावीर बुध्द के समकालीन थे। वर्धमान महावीर का जन्म सन ५९९ ईसवी पूर्व में वैशाली गणराज्य के समीप कुन्डीग्राम में हुआ था।इनके पिता का नाम राजा सिध्दार्थ और माँ का नाम त्रिशाला था।महावीर का नाम वर्धमान था।महावीर उच्च कुलीन क्षत्रिय वंश के राजकुमार थे।उनका विवाह यशोदा नाम की सुंदर राजकुमारी से हुआ ।इनसे एक पुत्री भी हुई।
राजमहल का सुख-विलास वर्धमान की आत्मा को शान्ति न पहुँचा सका।इसी समय उनका माता-पिता का देहावसान हो गया। सांसारिक सुख के प्रति उनके मन में विरक्ति का भाव उतपन्न हुआ।तिस वर्ष की आयु में वर्धमान ने मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा से घर त्याग दिया। वर्धमान ने बारह वर्ष तक कठोर तप किया।तेरहवें वर्ष में उन्हें "कैवल्य" अथवा ज्ञान प्राप्त हुआ।उन्हें "केवलिन" अथवा ज्ञानी कहा जाने लगा। सांसारिक माया-मोह,ईर्ष्या-व्देष कारण वे 'निग्रन्थ' भी कहलाए।वे 'अहर्त' अर्थात पूज्य मान लिये गए।और उन्हें महावीर कहा जाने लगा।महावीर स्वामी ने जन-कल्याण के लिए अपने ज्ञान एवं धर्म का प्रचार किया।तीन वर्ष तक उन्होंने मगध, कौशल, काशी,वज्जि, वैशाली आदि प्रदेशो में अपने धर्म के प्रचार के उपदेश दिए।उनके अनेक वर्गो के लोग अनुयायी बने। मगध के सम्राट बिम्बिसार और अजातशत्रु भी उनका बड़ा आदर करते थे।महावीर जैन धर्म अत्यन्न ही लोकप्रिय बनाया, इसी कारण अधिकांशतः उन्हें ही जैन धर्म का प्रवर्तक माना जाता है।बहत्तर वर्ष की आयु तक वे घूम-घूम क्र अपने धर्म का प्रचार करते रहे।ईसा पूर्व सन ५२७ में बहत्तर वर्ष की आयु में पावापुरी(पटना के पास) नामक स्थान पर उन्होंने अपना सरीर त्याग दिया।
-------जैन धर्म की शिक्षाये:------>
तीर्थकर महावीर ने तीर्थकर पाश्वर्नाथ व्दारा प्रतिपादित सिध्दांतो की मान्यता दी। उन्हें "महाव्रत" कहा।ये चार व्रत थे:-----सत्य ,अहिंसा ,आस्तेत्र(चोरी न करना),अपरिग्रह(संग्रह न करना)॥ महावीर ने इसमें एक व्रत और जोड़ा वह था-ब्रह्राचार्य ये पाँचो शिक्षाये "पंच रत्न" कहलाए। महावीर ने कुछ परिवर्तन किया।पार्श्वरनाथ ने जैन-साधुओ को श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुशंसा की थी। उस समय महावीर उन्हें दिगम्बर अथवा नग्न रहने की उपदेश दिया। आगे चलकर जैन धर्म इन्ही दो प्रमुखों वर्गो-श्वेताम्बर और दिगम्बर में बंट गया।महावीर ने इन पंच-रत्नों के अलावा की तीन रत्न अथवा "त्रिरत्न" जैन धर्म को दिए-------नैतिक ज्ञान ,उचित या सम्यक दर्शन ,उत्तम चरित ॥मोक्ष पाने के लिए "पंच रत्न" और त्रि-रत्न अपनाना प्रत्येक जैन के लिए अनिवार्य था।उपवास म्रत्यु का श्रेष्ठ आदर्श स्वीकारा गया।
-------जैन धर्म अन्य सिध्दांत :---->
महावीर ने अपनी शिक्षाओ के अतिरिक्त अन्य तत्त्वो पर भी प्रकाश डाला।उन्होंने जीव,कर्म के सिध्दांत और पुनर्जन्म के सिध्दांतो की भी चर्चा की।
१>जीव :-जैन धर्म में छः प्रकार के जीव माने गए है,ये है---पृथ्वी,जल,वायु,तेज,वनस्पति और ऋण। इनके उध्दार के लिए जैन धर्म में सुजाए गए पंच महाव्रत और त्रिरत्नों के पालन का उपदेश दिया।
२>दुःखवाद:- जैन धर्म दुःखवाद को मान्यता देता है।यह दुःख मानव की तृष्ना और इच्छाओ के कारण उतपन्न होता है।परन्तु सम्यक ज्ञान और नैतिक आचरण से इस दुःख से छुटकारा पाया जा सकता है।
३>पुनर्जन्म और कर्म :- जैन धर्म में पुनर्जन्म को भी स्वीकार किया गया है।जीव अथवा आत्मा को अनेक योनियो में जन्म लेना पड़ता है ,अतःजीव कर्म से बंधा है।अच्छे कर्मो का अच्छा फल और बुरे कर्मो का बुरा फल मनुष्य को मिलता है।कर्म और उसके फल को भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती।
४>भगवान या ईश्वर:- परमात्मा के विषय में जैन धर्म कुछ नहीं कहता।महावीर कहा करते थे की मानव की आत्मा में जो कुछ महान है और जो शक्ति तथा नैतिकता है वही भगवान है।
५>आत्मा:- जीव अथवा आत्मा के महत्व को जैन स्वीकार करते है।आत्मा चेतन सर्वज्ञ और स्वयं प्रकाशमान है।वह अनन्त और सर्ववयापक है ,परन्तु उसे जर शरीर में निवास करना पड़ता है ।वह सन्त है।
६>संसार का स्वरूप :- जैन धर्म संसार को सत्य मानता है।वह माया नहीं है।संसार नित्य और अनादि है।उसका उत्थान,परिवर्तन और पतन होता रहता है ,परन्तु उसका नाश नहीं होता।वह छः तत्त्वो से बना है---आत्मा,पुद्रल(भौतिक तत्त्व), आकाश,धर्म,अधर्म, काल ॥इन छः तत्त्वो में मात्र आत्मा ही चेतन है ,बाकी के पांच तत्त्व जड़ और अचेतन है।
७>मोक्ष:-जीव-मुक्ति को जैन जीवन का परम् ध्येय मानते है।कर्मबन्धन और पुनर्जन्म के बन्धन से चुकारा ही मुक्ति है।कर्मफल और पुनर्जन्म से छूटने के लिए संवर और नीरजश का सहारा लेना चाहिए। आत्मा को कर्म की ओर प्रेरित ओर प्रवाहित होने से रोकने को संवर कहते है।पूर्वजन्म के कर्मो से कठोर तप के व्दारा छुटकारा पाया जा सकता है।वह क्रिया नीरजश कहलाती है।इन दोनों साधन से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
८>स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद :- स्यादवास जैन मत का एक प्रत्येक तत्त्व ओर वस्तु के अनेक पक्षो की स्वीकार करता है।इसीलिए इसे अनेकाततवाद भी कहते है।यह सम्भव नही है की प्रत्येक मानव की अपनी सीमाएं होती है, जब की प्रत्येक वस्तु को अनेक रूपो और विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है।प्रत्येक द्रष्टिकोण न तो अपने आप में पूर्ण है और न ही निरपेक्ष इनसे जैन धर्म में सहिष्णुता और उदारवाद को जन्म दिया।
--------------जैन धर्म की देन:------->
भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जैन मत से बहुत प्रभावित किया।भारतीय कला और साहित्य की पगति में जैनियो ने प्रशंसनीय सहयोग दिया---
१>अहिंसा परम् धर्म :- जैन मत ने पाणिमात्र में आत्म-तत्त्व की उपस्थिति मानी हे इसीलिए उन्होंने किसी भी जीव के प्रति हिंसा न करने का उपदेश दिया।शींसा को उन्होंवे मानव-जीवन का परम् धर्म निरूपित किया।उन्होंने "अहिंसा परमोधर्म" के पालन की अनुशंशा की।
२>संयम एवं नैतिकता:- महावीर ने संयमित और नैतिक जीवन अपनाने की शिक्षा दी।संयम और नैतिकता को अपनाने से जीवन में तृष्ना और अन्य दुष्कामनाये दूर होती है।
३>सामजिक देन :- जैन धर्म जाती-प्रथा में विश्वाश नहीं करता।वह जाती को कर्म-प्रधान मानता है जन्म प्रधान नही। इसीलिए महावीर ने जैन धर्म और मोक्ष के व्दार सभी जातियो,वर्गो और वर्णो के लिए खोल दिए।उन्होंने ब्राह्रण,क्षत्रिय,वैश्य आदि सभी को जैन धर्म में दीक्षित किया।परन्तु बाद में यह धर्म वैश्यो तक ही सिमित रह गया।
४>साहित्य को देन:- जैन धर्म के कारण जैन-साहित्य और जैन दर्शन सम्बन्धी गर्न्थो की रचना की गई।उन्होंने लोकभाषा में अपनी शिक्षाओ का प्रचार किया।उन्होंने संस्कृत और लोकभाषाओं का साहित्य बड़ा ही सम्रध्द हुए।जैन पंडितो ने पाचीनकाल में अर्ध्द-मागधी में 'अंग' साहित्यिक गर्न्थो की रचना की।इनकी संख्या ११ है।ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है।बाद में संस्कृत में 'आचारांग सूत्र'और 'भगवती सूत्र' लिखे गए। राजपूत काल में जैनियो ने स्थानीय भाषाओ के साहित्य को सम्रध्द किया।हेमचन्द्र सूरी ने अपभ्रंश को अपनाया।दक्षिण में जैन साहित्यकारों ने किन्नर,तेलगु आदि में रचनाये की।इसी के बाद में गुजराती,मराठी,हिंदी आदि की रचनाये की।
५>कला को देन:- कला के विकास में भी जैन धर्म का स्मरणीय योगदान रहा।जैनो ने अपने धर्म एंव तीर्थकरो से सम्बन्धित अनेक मन्दिरो जिनालयो,उपाश्रयों,मूर्तियों और मठ अथवा गुफाओ का निर्माण करवाया।ऋषभवेद,पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी की मूर्तियों सैकड़ो की संख्या में बनाई गई।मैसूर का त्रवन बेलगोला,उड़ीसा में पूरी के जैन मंदिर,राज्यस्थान के आबू व देलवारा,मध्य भारत में खजुराहो और ऊन,गुजरात के गिरनार के जैन मंदिर तथा राजकपूर(जोधपुर),पारसनाथ(बिहार)के जैन मंदिर कला सर्वश्रेठ उदाहरण है।इन मन्दिरो में तीर्थकरो के साथ गणेश,सरस्वती,लक्ष्मी,यक्ष-यक्षिणी,अप्सराओ आदि की भी मूर्तियां मिलती है।इसमें भारतीय कला को श्रेष्ठ बनाया उसे सजाया और सँवारा।
६>भारतीय दर्शन की देन:---भारतीय दर्शन के विकास में जैन दर्शन ने बड़ा सहयोग दिया।जैन दर्शन का स्याद्वाद भारतीय दार्शनिको को पसन्द आया और मानवीय क्षमताओ और उसके विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकारा करता है।संसार के निर्माण से सम्बन्धित जैनियो के छःतत्व भी तर्क-सम्मत है।जगत की परिवर्तनशीलता और परिस्थितियों के अनुरूप सत्य की रुपरेखा की भिन्नता भी माननीय है।
जैन धर्म एंव दर्शन की सरलता के कारण उसका बड़ा प्रचार हुआ।
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