Friday, 3 March 2017

बौध्द और जैन धर्म

                                       बौध्द और जैन धर्म 


-------समानतायें:-------->


१>दोनों धर्मो ने वैदिक कर्मकांड, यज्ञ सम्बन्धी आडंबरो और धार्मिक रुढियो का विरोध किया।

२>दोनों धर्मो ने ईश्वर के अस्तित्व को महत्व प्रदान नहीं किया था।उन्होंने वेदों और उपनिषदों की प्रमाणिकता को भी अस्वीकार किया।

>कर्म और पुनर्जन्म के सिध्दांतो को दोनों स्वीकार करते थे।

४>दोनों धर्मो ने नैतिक आचरण से सम्बन्धित को अपने जीवन में उतारने का उपदेश दिया।

५>बुद्ध और महावीर दोनों ही क्षत्रिय राजकुमार थे।उन्होंने ब्राह्राणों के धार्मिक महत्त्व को अस्वीकार किया।

६>दोनों धर्म सदाचारी और व्याव्हारिक थे।

७>जाती प्रथा,छुआछूत और समाजिक भेद-भाव का दोनों धर्मो ने विरोध किया।उन्होंने मोक्ष के व्दार सभी जातियो के लिए खोले।

८>धर्म प्रचार के लिए दोनों ने लोक-भाषाओ का उपयोग किया।

९>बौद्ध धर्म "बुद्ध" और "संघ" तथा जैन धर्म "दर्शन", "ज्ञान" और "चरित्र"के रत्नों को मानता है।

१०> दोनों धर्म जन्म-मरण के चक्र के आत्मा को छुटकारा दिलाना चाहते थे और मोक्ष ही उनका लक्ष्य था।



--------------असमानतायें:------------->


१>जैन धर्म कठोर तप और उपवास में म्रत्यु को श्रेष्ठ मानता था।बौद्ध इनमे विश्वास नहीं करते थे।

२>जैन धर्म में अहिंसा को सरवोच्च महत्व दिया गया था,जबकि बौद्ध दुसरो के व्दारा की गई हिंसा के विरोधी नहीं थे।

३>बौद्ध धर्म 'संघ' और 'भिक्षुओ'की शक्ति पर आधारित रहा। जैन धर्म में ग्रहस्थ और भिक्षुओ में कम अंतर है।

४>बौद्ध संसार को परिवर्तनशील और नाशवान मानते है।जैन उसे नित्य, अनादि और अनन्त मानते है।

५>जैन आत्मवादी होने से आत्मा की अपरिवर्तनशीलता को मानते है, जबकि बौद्ध अनात्मवादी होने से उसे परिवर्तनशील बतलाते है।

६>बौद्ध मोक्ष के व्दार अस्तित्व से छुटकारा मानते है ,जबकि जैन शरीर से छुटकारा पाने को मोक्ष कहते है।

७> बौद्ध बुद्ध की शरण में विश्वास करते है।उन्होंने उनकी अश्थियों को पूजनीय माना। जैन इस प्रकार के किसी तत्व को नहीं मानते।

८>जैन धर्म हिन्दू धर्म के अधिक निकट है।बौध्द धर्म ने उसका बहिष्कार किया।

९>जैन धर्म में चौबीस तीर्थकर हुए जबकि बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक मात्र बुध्द थे।

१०>बौद्ध धर्म जीन धर्म की अपेक्षा अधिक सरल और व्याव्हारिक होने से भारत और विदेशो में भी फैला।वह एक विषधर्म बना जबकि जैन-धर्म भारत तक ही सिमित रहा।

बौध्द धर्म

                                            बौध्द धर्म 

ईसा पूर्व की छठी शताब्दी का दुसरा महत्त्वपूर्ण धर्म बौध्द धर्म था।इस धर्म का प्रवर्त्तन भी तत्कालीन धार्मिक जीवन में व्याप्त कुप्रथाओ के विरोध में हुआ था।


बौद्ध:----------->

-----------जीवन चरित्र:------>
                         बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुध्द थे।उनका जन्म ईसा पूर्व सन ५६३ ई.में हिमालय की तराई में स्थित शाक्य गणतन्त्र के प्रमुख राजा शुध्दोधन के यहां हुआ था।इसकी माता का नाम मायादेवी था।लुम्बनी वन में मायादेवी ने बुध को जन्म दिया।पुत्र जन्म के बाद ही मायादेवी का स्वर्गवास हो गया था,अतःउनका पालन-पोसन प्रजापति गौतमी ने शाक्य राजधानी कपिलवस्तु में किया।बुध का बचपन का नाम सिध्दार्थ था।युवावस्था में उनका विवाह यशोधरा नामक सुंदर राजकन्या के साथ हुआ था।यशोधरा ने राहुल नामक पुत्र को जन्म दिया।
                                                                           गौतम की वैरागी आत्मा अधिक समय तक विलास में डूबी न रह सकी।जीवन, मृत्यु और मोक्ष के शाश्वत प्रश्नों ने उन्हें बेचैन कर दिया।अंत में उन्होंने गृहत्याग का निश्चय कर लिया।एक रात्रि को वे पत्नी और पुत्र को सोता हुआ छोड़कर गृहत्याग कर निकल पड़े।बौद्ध साहित्य में यह घटना बुध का "महाभिनिष्क्रमण" कहलाई।गृहत्याग के बाद गौतम वीतराग संन्यासी बन गए
।उस काल के प्रसिध्द दर्शनिक रिषि आलार कालाम और उद्रक के आश्रम में उन्होंने तप ध्यान और योग साधना की।राजगृह के पास स्थित उरुवेला वन में उन्होंने अपने कुछ साथियो के साथ कठोर तपस्या की।तप के कारण उनका शरीर हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया, पर इससे भी उनके आशान्त मन को शान्ति नही मिली।गौतम ने तपस्या को निरर्थक समझ उसका परित्याग क्र दिया।भोगवादी और तपभरष्ट मानकर उनके साथियो उनके साथीयो ने उनका साथ छोर दिया।एक दिन गया में पीपल के व्रक्ष के निचे बैठकर चिंतन कर रहे थे।उन्होंने समाधि लगाई।समाधि के आठवे दिन वैसाखी की पूर्णिमा के रात उन्हें ज्ञान रूपी प्रकाश प्राप्त हुई।वे 'बुध्द' अथवा जागृत कहलाए और पीपल के पेड़ 'बोधव्रक्ष' कहा जाने लगा।गया को उनके नाम पर 'बोध गया' कहा जाने लगा।
                     बुध्दतत्व प्राप्त करने बाद वे और उनके शिष्यो के साथ शिक्षा व संस्कृति के केंद्र काशी पहुचे।वहाँ धर्म का प्रचार करने के बाद मगध की राजधानी राजगृह गए।वहाँ उन्होंने अनेक श्रमण,सन्यासियों और विव्दानों को अपना अनुयायी बनाए।मगध सम्राट बिम्बिसार,अजातशत्रु, महरानी चेलना और सारिपुत्त, महा-मौद्गलायन आदि उनके शिष्य वन गए।अस्सी वर्ष की आयु तक भगवान तथागत ने उत्तर भारत के अनेक स्थानों पर घूम-घूम कर स्वयं अपने धर्म का प्रचार किया।तैतालिस वर्ष तक धर्म प्रचार करने के बाद जब वे मल्ल गणतन्त्र की राजधानी पहुचे तो वहाँ के "शाल वन" में उन्होंने अपने शरीर त्याग दिया।सन ४०३ ईसवी पूर्व में उन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में वैसाखी पूर्णिमा के दिन अपने प्राण त्यागे।इसे बौद्धओ ने "महापरिनिब्बान " माना।

---------------बुद्ध की शिक्षाये :----->
                            पीड़ित मानवता के लिए मोक्ष के व्दारा तथागत बुध्द ने खोल दिए।उन्होंने धार्मिक आदर्शो का सरलीकरण कर दिया।तथागत गौतम बुध्द ने चार आर्यसत्य जन-साधारण के सामने रखे----

१>दुःखवाद:- संसार दुःखवाद है।

२>दुःख का कारण:- तृश्णा ही दुःख का कारण है।

३>दुःख निरोध:- दुःख के कारण का ज्ञान हो जाने पर उसका निरोध होना चाहिए।

४>दुःख निरोध मार्ग:- दुःख दूर करने के लिए 'मझिम निकाय' या 'अष्टांगिक मार्ग' का पालन करना चाहिए।
       
                 तथागत बुद्ध ने आत्मिक शान्ति के लिए अष्टागिक मार्ग का उपदेश दिया---------सम्यक दृष्टि,सम्यक संकल्प,सम्यक वचन,सम्यक कर्म,सम्यक जीविका,सम्यक व्यायाम,सम्यक स्मृति,सम्यक समाधि॥
यह अष्टांगिक मार्ग तृश्णा का नाश करने में सहायक होता है।तृश्णा ही दुःख का कारण है।अष्टांगिक मार्ग के साथ नैतिक आचरण के पालन का उपदेश भी बुध्द ने दिया--------
१>प्रज्ञा-आत्मा के कल्याण के लिए ज्ञान व श्रीध्द। होना जरूरी है।
२>शील को भी जीवन में उतारना चाहिए।
३>सत्य का पालन और झूठ का परित्याग।
४>अहिंसा को अपनाना।
५>अपरिग्रह के व्दारा संग्रह-व्रत्ति से दूर रहना क्योकि परिग्रह तृश्णा को जन्म देती है।
६>आस्तेय अर्थात चोरी न करना।
७>ब्रह्राचार्य का पालन।
८>स्त्री व स्वर्ण का त्याग।
९>कोमल शिष्या का त्याग।
१०>असमय भोजन का त्याग।
११>नृत्य-संगीत का त्याग।

------------बौद्ध धर्म की दार्शनिकता:-------->
                        वह युगधर्म के साथ ही दर्शन का युग भी था।आत्मा परमात्मा,कर्म और पुनर्जन्म पर वयाख्ये की जाती थी, परन्तु तथागत बुध्द ने इन पर कोई चर्चा नहीं की।उन्होंने अपने शिष्य आनन्द को कहा था-----"हे आनन्द तुम अपना दिप आप बनो। मोक्ष के लिए सतत प्रयत्नशील रहो अपने कर्मो से अपना उध्दार करो"।

----------------बौद्ध धर्म की देन:------>


१>पुनर्जन्म का सिध्दांत:-  तथागत बुद्ध हिन्दुओ के समान पुनर्जन्म के सिध्दान्त में विश्वास करते थे।वे मानते थे की आत्मा जन्म-मरण के चक्र से बंधी है।मोक्ष की प्राप्ति तक वह जन्म लेती है।जन्म-मरण के इस चक्र से आत्मा को छुटकारा दिलाना जरूरी है जो केवल मोक्ष सम्भव है।

२>कर्म-सिध्दांत:-- गौतम बुद्ध कर्म सिद्धान्त को भी स्वीकार करते  थे।वे मानते थे की अच्छे कर्मो का अच्छा फल मिलता है और बुरे कर्म कुफल देते है।सुकर्मो से मोक्ष का मार्ग परास्त होता है।

३>ईश्वर का अस्तित्व :- ईश्वर के अस्तित्व के बारे में बुद्ध ने कुछ नहीं कहा ।उन्होंने एक बार अपने शिष्य आनन्द से कहा,"ईश्वर या किसी अन्य देवता पर आधारित होने के बजाय अपने कर्मो से ही अपना उध्दार करना चाहिए।

४>कार्य-कारण नियम :- बौद्ध मानते थे की यह संसार कार्य और कारण नियमो के आधार पर चलता है।प्रत्येक वस्तु और घटना किसी-न-किसी कारण से होती है।कारण का निवारण हो सकता है,कारणों का टाला जा सकता है।इसे पर्सीत्य समुत्पाद का सिध्दांत भी कहते है।

५>आत्मा का स्वरूप :-बौध्द मत आत्मा के स्थायित्व में विश्वास नहीं करता। आत्मा को परिवर्तनशील मानते है।

६>परिवर्तनवाद एंव क्षणिकवाद:--बौद्ध संसार हर वस्तु को क्षणिक और परिवर्तनशील मानते है।विश्व में कुछ भी स्थायी और अपरिवर्तनशील नहीं है।अस्थायित्व और परिवर्तंता जगत का नियम है।

७>मोक्ष या निर्वाण :- बुद्ध मोक्ष को मानव-जीवन का चरम लक्ष्य मानते थे।मोक्ष वासना और तृश्णा के नाश से ही सम्भव है।इसके लिए अष्टांगिक मार्ग को अपनाना चाहिए।

८>जातिवाद का विरोध:-- गौतम बुद्ध ने मोक्ष के व्दारा सभी के लिए खोल दिए।उन्होंने जाती-प्रथा को अस्वीकार किया था।वे जाती-प्रथा के भेदभाव के विरुध्द थे।

बौद्ध का मत एक नैतिकतावादी धर्म है।इसकी रुरेखा स्पष्ट दर्शाती है की वह धार्मिक आडम्बर,कर्मकांड और पूजा-उपासना की जटिलताओं से परे है।

Thursday, 2 March 2017

जैन धर्म

                                         जैन धर्म 

बौद्ध धर्म के तुलना में जैन धर्म अधिक प्राचीन है।जैन परम्पराओ और धार्मिक गर्न्थो के अनुसार जैन धर्म और वैदिक धर्म के समान ही प्राचीन है। ऋग्वेद के केशी सूत्र में ऋषभवेद का उल्लेख मिलता है। जैन परम्परा ऋषभवेद को अपना पहला तीर्थकर मानती है। जैन धैम के तेइसवे तीर्थकर पाश्र्वनाथ थे और चौबीसवे तीर्थकर महावीर स्वामी हुए।

तीर्थकर महावीर:=======>

------>जीवन चरित्र :-
                   महावीर बुध्द के समकालीन थे। वर्धमान महावीर का जन्म सन ५९९ ईसवी पूर्व में वैशाली गणराज्य के समीप कुन्डीग्राम में हुआ था।इनके पिता का नाम राजा सिध्दार्थ और माँ का नाम त्रिशाला था।महावीर का नाम वर्धमान था।महावीर उच्च कुलीन क्षत्रिय वंश के राजकुमार थे।उनका विवाह यशोदा नाम की सुंदर राजकुमारी से हुआ ।इनसे एक पुत्री भी हुई।
                     राजमहल का सुख-विलास वर्धमान की आत्मा को शान्ति न पहुँचा सका।इसी समय उनका माता-पिता का देहावसान हो गया। सांसारिक सुख के प्रति उनके मन में विरक्ति का भाव उतपन्न हुआ।तिस वर्ष की आयु में वर्धमान ने मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा से घर त्याग दिया। वर्धमान ने बारह वर्ष तक कठोर तप किया।तेरहवें वर्ष में उन्हें "कैवल्य" अथवा ज्ञान प्राप्त हुआ।उन्हें "केवलिन" अथवा ज्ञानी कहा जाने लगा। सांसारिक माया-मोह,ईर्ष्या-व्देष कारण वे 'निग्रन्थ' भी कहलाए।वे 'अहर्त' अर्थात पूज्य मान लिये गए।और उन्हें महावीर कहा जाने लगा।महावीर स्वामी ने जन-कल्याण के लिए अपने ज्ञान एवं धर्म का प्रचार किया।तीन वर्ष तक उन्होंने मगध, कौशल, काशी,वज्जि, वैशाली आदि प्रदेशो में अपने धर्म के प्रचार के उपदेश दिए।उनके अनेक वर्गो के लोग अनुयायी बने। मगध के सम्राट बिम्बिसार और अजातशत्रु भी उनका बड़ा आदर करते थे।महावीर जैन धर्म अत्यन्न ही लोकप्रिय बनाया, इसी कारण अधिकांशतः उन्हें ही जैन धर्म का प्रवर्तक  माना जाता है।बहत्तर वर्ष की आयु तक वे घूम-घूम क्र अपने धर्म का प्रचार करते रहे।ईसा पूर्व सन ५२७ में बहत्तर वर्ष की आयु में पावापुरी(पटना के पास) नामक स्थान पर उन्होंने अपना सरीर त्याग दिया।

-------जैन धर्म की शिक्षाये:------>
                    तीर्थकर महावीर ने तीर्थकर पाश्वर्नाथ व्दारा प्रतिपादित सिध्दांतो की मान्यता दी। उन्हें "महाव्रत" कहा।ये चार व्रत थे:-----सत्य ,अहिंसा ,आस्तेत्र(चोरी न करना),अपरिग्रह(संग्रह न करना)॥ महावीर ने इसमें एक व्रत और जोड़ा वह था-ब्रह्राचार्य ये पाँचो शिक्षाये "पंच रत्न" कहलाए। महावीर ने कुछ परिवर्तन किया।पार्श्वरनाथ ने जैन-साधुओ को श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुशंसा की थी। उस समय महावीर उन्हें दिगम्बर अथवा नग्न रहने की उपदेश दिया। आगे चलकर जैन धर्म इन्ही दो प्रमुखों वर्गो-श्वेताम्बर और दिगम्बर में बंट गया।महावीर ने इन पंच-रत्नों के अलावा की तीन रत्न अथवा "त्रिरत्न" जैन धर्म को दिए-------नैतिक ज्ञान ,उचित या सम्यक दर्शन ,उत्तम चरित ॥मोक्ष पाने के लिए "पंच रत्न" और त्रि-रत्न अपनाना प्रत्येक जैन के लिए अनिवार्य था।उपवास म्रत्यु का श्रेष्ठ आदर्श स्वीकारा गया।

-------जैन धर्म अन्य सिध्दांत :---->
                            महावीर ने अपनी शिक्षाओ के अतिरिक्त अन्य तत्त्वो पर भी प्रकाश डाला।उन्होंने जीव,कर्म के सिध्दांत और पुनर्जन्म के सिध्दांतो की भी चर्चा की।

१>जीव :-जैन धर्म में छः प्रकार के जीव माने गए है,ये है---पृथ्वी,जल,वायु,तेज,वनस्पति और ऋण। इनके उध्दार के लिए जैन धर्म में सुजाए गए पंच महाव्रत और त्रिरत्नों के पालन का उपदेश दिया।

२>दुःखवाद:- जैन धर्म दुःखवाद को मान्यता देता है।यह दुःख मानव की तृष्ना और इच्छाओ के कारण उतपन्न होता है।परन्तु सम्यक ज्ञान और नैतिक आचरण से इस दुःख से छुटकारा पाया जा सकता है।

३>पुनर्जन्म और कर्म :- जैन धर्म में पुनर्जन्म को भी स्वीकार किया गया है।जीव अथवा आत्मा को अनेक योनियो में जन्म लेना पड़ता है ,अतःजीव कर्म से बंधा है।अच्छे कर्मो का अच्छा फल और बुरे कर्मो का बुरा फल मनुष्य को मिलता है।कर्म और उसके फल को भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती।

४>भगवान या ईश्वर:- परमात्मा के विषय में जैन धर्म कुछ नहीं कहता।महावीर कहा करते थे की मानव की आत्मा में जो कुछ महान है और जो शक्ति तथा नैतिकता है वही भगवान है।

५>आत्मा:- जीव अथवा आत्मा के महत्व को जैन स्वीकार करते है।आत्मा चेतन सर्वज्ञ और स्वयं प्रकाशमान है।वह अनन्त और सर्ववयापक है ,परन्तु उसे जर शरीर में निवास करना पड़ता है ।वह सन्त है।

६>संसार का स्वरूप :- जैन धर्म संसार को सत्य मानता है।वह माया नहीं है।संसार नित्य और अनादि है।उसका उत्थान,परिवर्तन और पतन होता रहता है ,परन्तु उसका नाश नहीं होता।वह छः तत्त्वो से बना है---आत्मा,पुद्रल(भौतिक तत्त्व), आकाश,धर्म,अधर्म, काल ॥इन छः तत्त्वो में मात्र आत्मा ही चेतन है ,बाकी के पांच तत्त्व जड़ और अचेतन है।

७>मोक्ष:-जीव-मुक्ति को जैन जीवन का परम् ध्येय मानते है।कर्मबन्धन और पुनर्जन्म के बन्धन से चुकारा ही मुक्ति है।कर्मफल और पुनर्जन्म से छूटने के लिए संवर और नीरजश का सहारा लेना चाहिए। आत्मा को कर्म की ओर प्रेरित ओर प्रवाहित होने से रोकने को संवर कहते है।पूर्वजन्म के कर्मो से कठोर तप के व्दारा छुटकारा पाया जा सकता है।वह क्रिया नीरजश कहलाती है।इन दोनों साधन से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।

८>स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद :- स्यादवास जैन मत का एक प्रत्येक तत्त्व ओर वस्तु के अनेक पक्षो की स्वीकार करता है।इसीलिए इसे अनेकाततवाद भी कहते है।यह सम्भव नही है की प्रत्येक मानव की अपनी सीमाएं होती है, जब की प्रत्येक वस्तु को अनेक रूपो और विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है।प्रत्येक द्रष्टिकोण न तो अपने आप में पूर्ण है और न ही निरपेक्ष इनसे जैन धर्म में सहिष्णुता और उदारवाद को जन्म दिया।

--------------जैन धर्म की देन:------->
                               भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जैन मत से बहुत प्रभावित किया।भारतीय कला और साहित्य की पगति में जैनियो ने प्रशंसनीय सहयोग दिया---

१>अहिंसा परम् धर्म :- जैन मत ने पाणिमात्र में आत्म-तत्त्व की उपस्थिति मानी हे इसीलिए उन्होंने किसी भी जीव के प्रति हिंसा न करने का उपदेश दिया।शींसा को उन्होंवे मानव-जीवन का परम् धर्म निरूपित किया।उन्होंने "अहिंसा परमोधर्म" के पालन की अनुशंशा की।

२>संयम एवं नैतिकता:- महावीर ने संयमित और नैतिक जीवन अपनाने की शिक्षा दी।संयम और नैतिकता को अपनाने से जीवन में तृष्ना और अन्य दुष्कामनाये दूर होती है।

३>सामजिक देन :- जैन धर्म जाती-प्रथा में विश्वाश नहीं करता।वह जाती को कर्म-प्रधान मानता है जन्म प्रधान नही। इसीलिए महावीर ने जैन धर्म और मोक्ष के व्दार सभी जातियो,वर्गो और वर्णो के लिए खोल दिए।उन्होंने ब्राह्रण,क्षत्रिय,वैश्य आदि सभी को जैन धर्म में दीक्षित किया।परन्तु बाद में यह धर्म वैश्यो तक ही सिमित रह गया।

४>साहित्य को देन:- जैन धर्म के कारण जैन-साहित्य और जैन दर्शन सम्बन्धी गर्न्थो की रचना की गई।उन्होंने लोकभाषा में अपनी शिक्षाओ का प्रचार किया।उन्होंने संस्कृत और लोकभाषाओं का साहित्य बड़ा ही सम्रध्द हुए।जैन पंडितो ने पाचीनकाल में अर्ध्द-मागधी में 'अंग' साहित्यिक गर्न्थो की रचना की।इनकी संख्या ११ है।ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है।बाद में संस्कृत में 'आचारांग सूत्र'और 'भगवती सूत्र' लिखे गए। राजपूत काल में जैनियो ने स्थानीय भाषाओ के साहित्य को सम्रध्द किया।हेमचन्द्र सूरी ने अपभ्रंश को अपनाया।दक्षिण में जैन साहित्यकारों ने किन्नर,तेलगु आदि में रचनाये की।इसी के बाद में गुजराती,मराठी,हिंदी आदि की रचनाये की।

५>कला को देन:- कला के विकास में भी जैन धर्म का स्मरणीय योगदान रहा।जैनो ने अपने धर्म एंव तीर्थकरो से सम्बन्धित अनेक मन्दिरो जिनालयो,उपाश्रयों,मूर्तियों और मठ अथवा गुफाओ का निर्माण करवाया।ऋषभवेद,पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी की मूर्तियों सैकड़ो की संख्या में बनाई गई।मैसूर का त्रवन बेलगोला,उड़ीसा में पूरी के जैन मंदिर,राज्यस्थान के आबू व देलवारा,मध्य भारत में खजुराहो और ऊन,गुजरात के गिरनार के जैन मंदिर तथा राजकपूर(जोधपुर),पारसनाथ(बिहार)के जैन मंदिर कला सर्वश्रेठ उदाहरण है।इन मन्दिरो में तीर्थकरो के साथ गणेश,सरस्वती,लक्ष्मी,यक्ष-यक्षिणी,अप्सराओ आदि की भी मूर्तियां मिलती है।इसमें भारतीय कला को श्रेष्ठ बनाया उसे सजाया और सँवारा।

६>भारतीय दर्शन की देन:---भारतीय दर्शन के विकास में जैन दर्शन ने बड़ा सहयोग दिया।जैन दर्शन का स्याद्वाद भारतीय दार्शनिको को पसन्द आया और मानवीय क्षमताओ और उसके विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकारा करता है।संसार के निर्माण से सम्बन्धित जैनियो के छःतत्व भी तर्क-सम्मत है।जगत की परिवर्तनशीलता और परिस्थितियों के अनुरूप सत्य की रुपरेखा की भिन्नता भी माननीय है।


                                    जैन धर्म एंव दर्शन की सरलता के कारण उसका बड़ा प्रचार हुआ।

Wednesday, 1 March 2017

भारतवर्ष का इतिहास

भारतवर्ष को इंडिया कहकर सर्वप्रथम ग्रीक लोगो ने पुकारा, इसका कारण यह था की फ़ारसी भाषा में सिंधु नदी को हाईदु कहकर पुकारा जता था। इसी को ग्रीकवासियो ने इंडस कहकर संबोधित किया।

मूलतः भारत को तीन भागो में बाटा गया हॆ----> पहला भाग पहाड़ी प्रदेश जो तराई से लेकर कश्मीर, नेपाल और आसाम की घाटियों तक फैला हुआ है। दुसरा भाग उतरी मैदानी भाग जो गंगा की घाटी से लेकर ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी तक तथा पश्चिम में राजस्थान व सिंधु के रेगिस्तान तक फैला हुआ है। तीसरा भाग दक्षिण मध्य सागर तथा सुदूर दक्षिण के बिच का पहाड़ी भू-भाग एवं चौथा दक्षिण भारत के लंबे और सँकरे भू-भाग जो समुद्र और पूर्वी पश्चमी घाट के भीच इस्थित है। इस भू-भाग में गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी का उपजाऊ भूमि सम्मलित है।

मुख्य तथ्य :--->
               प्रोटो-ऑस्ट्रालोइड्स :--- ये लोग अपने साथ कृषि एवं बर्तन बनाने की कला लेकर आए थे। इन्ही लोगो ने मूर्तिपूजा भारत को दी थी।आत्मा परमात्मा की विचारधारा इन्ही से मिली थी। इन लोगो ने ही चंद्रमा की गति के अनुसार केलेण्डर बनाने की प्रथा प्रारम्भ की थी।


ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता :--------------->  आर्य सभ्यता के प्राम्भिक युग को ऋग्वैदिक युग और उत्तरवर्ती युग को उत्तर- वैदिक काल के नाम से पुकारा जाता है।
                     ऋग्वैद केवल भारत का ही नहीं वरन संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। और उसकी तिथि एवं रचनाकाल को लेकर ऋग्वैदिकालीन सभ्यता की कालगणना की गई है। कुछ लोग ऋग्वैदिकाल ४५०० ई.पू से ३००० ई.पू मानते है।

आर्य:-----> आर्य कहा के मूल निवासी थे? =====इस सबंध में इतिहास, भाषा,विज्ञान, पुरातत्व सामग्री आदि के आधार पर अनेक मत प्रतिपादित किए गए है--- प्रो.मैक्समूलर तथा अधिकाँश यूरोपीय विद्धानो के मतानुसार आर्य मूलरूप से मध्य एशिया के निवासी थे। कुछ वेदिशी लेखको के उत्तरी जर्मनी और कुछ ने दक्षिण रूस को आर्यो का आदि-देश स्वीकार किया है। भारती विद्धवानो में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार आर्यो का मूल निवास स्थान उत्तरी धुर्व प्रदेश था।स्वामी दयानन्द सरवस्ती ने तिब्बत को आर्यो का मूल निवास स्थान बताया तो डॉ.अविनाशचंद्र ने सप्तसिंधु को आर्यो का आदिदेश माना है।
                                 आर्य अनेक कबीलो में बटे हुए थे जो "जन" कहलाते थे। आर्यो के तत्कालीन मुख्य जन(कबीले) भरत,पुरु,अनु,द्रुह्रा,तुर्वश व यद् थे।पुरु प्राचीन सरस्वती तट पर बसे हुए थे,अनु रावी के भू-भाग में बस गए थे ,द्रुह्रा पश्चिमी भाग में तथा तुर्वशु व यदु ने दक्षिणी क्षेत्र में अपने स्थापित कर लिए थे।

उत्तर-वैदिक-काल:------>  उत्तर-वैदिक-काल से आशय उस युग से है जिसमे अन्य तीनो वेदों---यजुर्वेद ,सामवेद, अथर्ववेद तथा ब्राह्रणों, आरण्यकों और उपनिषदों की रचना हुई।
                                    उत्तर-वैदिक-काल ३५०० ई.पू से २५०० ई.पू माना जाता है। ऋग्वेद-काल की तुलना में उत्तर-वैदिक-काल की आर्य सभ्यता बहुमुखी प्रगति की। इस युग में आर्यो ने संघर्ष और युध्द करके अपने राज्य को पूर्व और दक्षिण तक फैला लिया। इस युग के अंत तक आर्यो का साम्राज्य गंगा और सदानीरा(गण्डक ) तक विस्त्रित कर लिया था।
इस युग के राज्य के शासन-व्यवस्था के सरकारी कर्मचारियों पद के नाम------------->

१>पुरोहित:- राजा के राजनितिक और धार्मिक मामलो में उसका प्रधानमंत्री।
२>राजन्य:- यह राजवंश और शासक वर्ग का प्रतिनिधि।
३>महिषी:- पटरानी
४>वावाता:- प्रियरानी
५>परिवर्ती:- परित्यत्क रानी
६>सूत:- बन्दी,चारण या पौरणिक सूत
७>सेनानी:- सेना का प्रधान अधिकारी
८>ग्रामणी :- यह गावो का सैनिक नेता और राजस्व संग्रह करने वाला अधिकारी।
९>क्षता:- यह राजप्रसादो का रक्षक या प्रतिहारी था।
१०>संग्रहित्र:-कोषाध्य्क्ष
११>भागदुध:- राज-कर वसूल करने वाला प्रमुख अधिकारी
१२>अक्षावयाप:- जुआ विभाग का अध्यक्ष
१३>गोनीकरचन:- आखेट का प्रमुख अधिकारी
१४>पालागल :- दूत या सन्देश-वाहक
१५>रथकार:- रथ-निर्माण-विभाग का प्रधान
१६>तक्षण:- राजबढाई

      उत्तर-वैदिक युग में "छान्दोग्य उपनिषद" के अनुसार पाठ्यक्रम में अग्रलिखित विषय सम्मलित थे :----१>ऋग्वेद २>सामवेद ३>यजुर्वेद ४>अथर्ववेद ५>इतिहास पुराण ६>वयाकरण ७>पिन्य ८>राशि ९>देय १०>निधि ११>वाकोवाक्य १२>एकायन १३>वेद-विद्या १४>ब्रह्रा-विद्या १५>भुत-विद्या १६>नक्षत्र-विद्या १७>सर्प-विद्या १८>देवजन-विद्या

           ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक का धार्मिक जीवन बड़ा सरल था, लेकिन उत्तर-वैदिक-काल में वेद-वाद और कर्म-काण्ड ने बल पकड़ लिया। ऋग्वैदिक-काल में जहां लोगो में भक्ति और आत्मसमपर्ण की भावना प्रबल थी,वहाँ उत्तर-वैदिक-काल में मंत्रो की शक्ति व्दारा देवताओ को वशीभूत करने के प्रयत्न किया जाने लगे।और बड़ी संख्या में पशु मारे जाने लगे। ऋग्वैदिक काल में आध्यत्मवाद पर बल दिया जाता था,उत्तर-वैदिक-काल में कर्म की विवेचना अधिक की जाने लगी तथा कर्म के आधार पर ही पुनर्जन्म की योनि निर्धारित होने लगी।प्राकृतिक शक्तियों के सूचक देवताओ की प्रधानता मिटने लगी और स्थान ब्रह्रा, विष्णु,महेश,पार्वती,दुर्गा,भैरव,गणेश आदि ने ले लिया।ऋग्वेदिककाल में विष्णु छोटे देवता थे ,किन्तु इस काल में वे प्रधान यज्ञ-पुरुष बन गए।देवमण्डल के साथ-साथ अप्सरा,गन्धर्व आदि अध्र्ददेव योगियो का विचार भी विकसित हुआ।
        भक्ति आंदोलन का सूत्रपात इसी युग से हुआ।

संगम युग:--------------> भारतीय इतिहास का वह काल जब दक्षिण भारत के तीन राजवंशो-चेरा,चोल व पांड्या राजाओ के व्दारा शासित होता रहा, उसे संगम युग शासित होता रहा,उसे संगम युग कहकर पुकारा जता है।यह शासन तमिल भूमि में हुआ करता था। संगम युग को तीन युगों में बाँटा जाता है-----
 १>ठेमा दुरैई:- यह वर्तमान कन्याकुमारी के दक्षिण में था।
२>कपटापुरम :- यह वर्तमान तमिलनाडु के पूर्वी तट पर स्थित था।
३>वागई:- नदी के तट पर मदुरई माना जाता है।
                                संगम युग तथा इसकी संस्क्रती का काल ईसामसीह से तीन शताब्दी पहले निर्धारित किया गया है। इस युग में समाज चार जातियो में विभाजित था-------
१>अरासार:-- यह उच्च जाती थी जिसका मूल व्यवसाथ रक्षा करना था।
२>अंदानार:- यह जाती उत्तर भारत के ब्राह्राणों के समान थी जो जनेऊ धारण करती थी।
३>वनिगर:- ये लोग कृषक थे और इस जाती के अपने मस्तिष्क पर फूल तथा गले में माला धारण करते थे।
४>बानिगर :- ये जाती के लोग धोबी थे।
                             संगम युग में यजो के समय पशुओ की आहुति देने की परम्परा थी। और सामान्य व्यक्ति विष्णु और तुलसी की पूजा करते थे।संगम युग में लोगो का पुनर्जन्म में अटूट विश्वास था।


जनपद राज्यो की स्थापना:--------------> उत्तर-वैदिक-काल में जन-राज्यो के स्थान पर जान-पद राजो की स्थापना होने लगी।अब राज्य एक जन अथवा जाती तक ही सिमित नहीं रहे बल्कि उनमे अनेक जातिया एक साथ निवास करने लगी।इस युग की राजनितिक परम्परा में "सार्वभौम" और "अधिराज्य"आदि विविध सत्ताओ का उदय हुआ तथा राजा "वाजपेय" , "राजसूय" तथा "अश्वमेघ" यजो व्दारा अपनी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई शक्ति का परिचय देने लगे ।इस काल में कुछ प्रसिध्य राज्य थे---- गांधार, कैकय,मद्र, मत्स्य, आश्यक,राष्ट्र ,विदर्भ, कौशल, विदेह,मगध आदि।कुरु और पाचाल राज्यो के परस्पर संयुक्त हो जाने से कुरु-पांचाल के शक्तिशाली राज्य की नीव पड़ी। यह राज्य पत्तर-वैदिक-काल में विद्या और सभ्यता का केंद्र था। यहाँ का राजा को विव्दानों का संरक्षक समझा जाता था।इसी राज्यकाल स्वर्ण युग माना जाता था,क्योकि यहाँ की जनता धन-धान्य से सम्पन्न थी।
                                        इसी काल में वदेह भी ख्याति-प्राप्त राज्य था।इसकी ख्याति इसके दार्शनिक राजाओ के कारण थी।राजा जनक विव्दानों की सभाओ का आयोजन करता था तथा पुष्कल धनराशि दान करता था।"ब्राहृमण गर्न्थो" व "उपनिषद" गर्न्थो में राजा जनक का सम्राट के नाम से उल्लेख किया गया है ।
                               उत्तर वैदिक-काल का सबसे प्रसिध्द उपनिवेश संस्थापक इक्ष्वाकुवंशी भागीरथ था जिसमे गंगा के पूर्व की ओर वर्तमान स्थापित किया।इसकी राजधानी अयोध्या थी जो सरयू के किनारे बसाई गई थी।ऐसी मान्यता है की राम वैदिक-काल से सर्वमहान राजा थे।उन्होंने बहूत वर्षो तक धर्म और न्याय से शासन किया और अनेक शानदार यज किए। उनके राज्य में प्रजा इतनी खुशहाल थी की "रामराज्य" का अर्थ ही उत्तम राज्य हो गया। राम को हम ऐतिहासिक पात्र माने तो भागीरथ से राम तक के काल को हम प्रसार युग कह सकते है क्योकि इस काल में आर्यो ने दूर-दूर तक राज्य स्थापित किए। राम के कुछ समय बाद कौशल की शक्ति कम हो गई और कुरु तथा पांचाल राज्य उन्नति की ओर अग्रसर हुए।पांचाल से कुरु प्रदेश के एक भाग में पांडवो ने एक नया राज्य स्थापित करके इंद्रप्रस्थ नामक नगर बसाया जिसके स्थान पर वर्तमान दिल्ली बसी है।शेष कुरु प्रदेश पर धृतराष्ट्र का राज्य था जिसने नेत्रविहीन होने के कारण अपने राज्य का साराभार अपने पुत्र दुर्योधन को सौप दिया था।दोनों पक्षो में १००० ई.पू के लगभग कुरुक्षेत्र में एक महान युद्ध हुआ जिसमे दोनों ओर के अनेक राजा सम्मिलित हुए। यह युध्द "महाभारत युध्द" कहलाता है।इस युध्द में पांडव विजयी हुए और दुर्योधन तथा उसके सभी साथी मारे गए । कुरु राज्य का राजा युधिष्ठिर था जिसने बहुत वर्षो तक न्यायपूर्व शासन किया।युधिष्ठिर के राज्यकाल की समाप्ति के साथ वैदिक-काल भी समाप्त हुए।

                         नंदवंश तथा मगध सम्राज्य का उत्कर्ष

भारत के ही नहीं , समस्त संसार के इतिहास में छठी शताब्दी ईसा पूर्व महत्वपूर्ण थी । राजनितिक क्षेत्र में इसी शताब्दी में भारत में मगध सम्राज्य की नींव पड़ी । छठी शताब्दी ईसा पूर्व का  पूवार्द्धव सोलह महाहाजनपद था । और छठी शताब्दी उत्तराद्धर्व् तक आते-आते मगध, कौशल , वत्स और अवन्ति नामक चार महाजनपद शेष सभी महाजनपदों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके प्रमुख बन गए। इन चार प्रधान महाजनपदों में से मगध का उत्कर्ष भारतीय इतिहास की प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण घटना थी । मगध के इस प्रथम साम्राज्य में "हर्यक वंश" "शिशुनाग वंश" और "नन्द वंश" ने अपनी महान भूमिका निभाई ।
'हर्यक वंश' के बिम्बिसार ने लगभग ५४३ई पूर्व में राज्यारोहण करने के बाद मगध के जिस साम्राज्य्वाद की स्थापना की वह लगभग ३१७ई पूर्व में नन्द वंश के अंत तक चलता रहा ।


हर्यक वंश :-
          लगभग ५६६ई पूर्व में छेमवर्मा नामक राजा ने मगध के बृहद्रथ वंश  को नष्ट करके वहाँ के शिहाशन पर कब्ज़ा कर लिया । छेमवर्मा की मृत्यु के बाद ५४६ई पूर्व में उसका पुत्र छेमजीत गद्दी पर बैठा। बोेध ग्रंथो के अनुसार छेमजीत ने पिता से राज्य   पाते ही उसे अपने पुत्र "बिम्ब्मिसार" को सौप दिया । बोेध व जैन साहित्य के अनुसार "बृहद्रथ वंश" के पश्चात आने वाला वंश हर्यक वंश था और इस वंश का संस्थापक बिम्ब्मिसार था । राज्यारोहण के समय उसकी आयु लगभग १५वर्श की थी ।

१>बिम्बिसार :-
           बिम्बिसार ने ही मगध साम्राज्यवाद  की नींव डाली । उसका  पिता भटिय अथवा भट्टिय एक साधारण सामंत था, इसी कारण बिम्बिसार का दुसरा नाम "श्रेणिक" (सेनिय) पड़ा । आरम्भ में उसकी राजधानी गिरिव्रज थी जो पाँच बड़ी-बड़ी दीवारो से राजगृह नामक दूसरी राजधानी निर्मित की ।
वैवाहिक सम्बन्धो तथा विजय दोनों ही से उसने मगध के महत्व को बढ़ाया ।बिम्बिसार ने चार वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए जिनका राजनीतिक महत्व था । उसकी एक रानी "कौशल" के राजा प्रसेनजित की बहन "महाकौशला" थी । उसकी दूसरी रानी चेलना(छलना) लिछवी चेटक की बहन थी । चौथी(उत्तरी पंजाब) के राजा की लरकी थी ।
बिम्बिसार ने राज्य-विस्तार के लिए  और मगध के महत्व को बढ़ाने के लिए तीन नीतियों का अनुसरण किया-वैवाहिक सबंध ,मैत्री संबंध एवं प्रदेश विजय । विम्बिसार ने समान राज्यों के साथ मित्रता की नीति अपनाई । उसने वत्स , भद्र ,गांधार काम्बोज अादि  ।राज्यों से मित्रता की और उसने दोस्ती के सम्बद्ध स्थापित किए ।
विम्बिसार की शासन व्यवस्था सुव्यवस्थित थी । शासन कार्य में योग देने के लिए अधिकारियो की चार श्रेणियों थी जिनमे उपराजा ,महापात्र (मंत्री) , प्रान्तपति और जिलाधिकारी शामिल थे।
------उपराजा:- यह राजा के बाद का सर्वोच्िच पद था।एक पर्कार से यह राजा के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता था ।
------सवतयक महामात्र :- महामात्र की तुलना आधुनिक से की जा सकती है । सवतयक सामान्य प्रशासन की देखभाल करता था।
------सेनानायक महामात्र :-यह न्यायाधीश का कार्य करता था। राज्य की न्याय -व्यवस्था की समूची देख-रेख ऐसी के अधीन थी।
------उत्पादन महामात्र :- यह राज्य के उत्पादन तथा उस पर कर वसूली की व्यव्श्था करता था।
विम्बिसार की धार्मिक नीति उदार थी । यह सभी धर्मो का आदर करता था , इसीलिए विभिन्न धर्मावलम्बी उसे अपनी धर्म का समझते थे ।विम्बिसार महावीर और बुद्ध दोनों का समकालीन था । विम्बिसार के दरबार का सबसे बड़ा विद्वान "जीवक" नाम वैध था जो योग्य शल्य चिकित्स्क था ।
विम्बिसार के जीवन का अंतिम भाग बड़ा दुखांत रहा । उसके लम्बे शासनकाल से अधीर होकर उसके प्रिय किन्तु महत्वाकांछी पुत्र अजातशत्रु ने उसको बंदीगृह में दाल दिया और वही उसका देहांत हो गया । विम्बिसार की रानी महाकोेयाल्या भी उसके वियोग में मर गई । विम्बिसार की मृत्यु ४९५ई पूर्व में हुई ।
२>अजातशत्रु :-
             लगभग ४९०ई पूर्व विम्बिसार का पुत्र कुणिक, अजातशत्रु के नाम से मगध का राजा बना । वह एक बीर राजा था जिसने अपने राज्य के प्रसार में बड़ी रुचि ली । उसने मगध के साम्राज्य का और भी विस्तार किया ।उसके पास 'रथमूसल' और महाशीलकण्टक नामक भयंकर युद्ध यंत्रो था । 'रथमूसल' का सशस्त्र रथ था जो दौरते समय भीषण विनाश करता था। 'महाशिलाकंटक' यंत्र से बड़े-बड़े पत्थर फैके जाते थे। अजातशत्रु ने अपने पराक्रम तथा कूटनीति से मगध साम्राज्य की सीमा में वृद्धि की तथा इसे सृदृढ़ किया ।इसमें अब काशी ,अंग तथा वैशाली राज्य सम्मलित होने से इसका राज्यछेत्र बढ़ गया। मल्लो की पराजय से इसमें देवरिया के आसपास का छेत्र भी सम्मिलित हो गया । कौशल राज्य इसका मित्र हो गया इस तरह के राज्य ने एक विशाल राज्य का रूप केना प्रारम्भ कर दिया।
                        धार्मिक मामलो में अपने पिता विम्बिसार की तरह अजातशत्रु भी उदार था और अपने समय के सभी धर्मो का आदर करता था ।अजातशत्रु के शासनकाल में 'हर्यक वंश' की शक्ति उन्नति के शिखर पर पहुँच गई और मगध राज्य का काफी विस्तार हो गया। अाजातशत्रु ने व्रज्जियो के आकर्मणो को रोकने के लिए पाटिल ग्राम को दुर्गरछक बनाया । इस प्रकार उसने द्वारा एक प्रसिद्ध किले की स्थापना हुई , जो एक पीढ़ी के भीतर पाटलिपुत्र के विशाल नगर के रूप में परिवर्तित हो गया और लगभग चार शताब्दियों तक भारत की राजधानी बना रहा ।
पुराणो के अनुसार अजातशत्रु ने ५५वर्श राज्य किया,यद्यपि बौद्ध ग्रंथो के अनुसार उसका राजयकाल ३२वर्ष का बताया गया है।
अपने जीवन के अंतिम समय में अपने पितृघात का प्रायश्चित करना पड़ा ।वह भी अपने प्रिय पुत्र उदायी के षडयंत्रो में मारा गया ।

शिशुनाग वंश (४०७ईस पूर्व से ३१७ईस पूर्व तक)
               :-
            हर्यक वंश के पतन के बाद मगध में कर्मश: शिशुनाग और नंदवंशजो ने राज्य किया ।पुराणो के अनुसार इस वंशो में शिशुनाम , कालाशोक ने शासन किया ।


१>शिशुनाग :-
            हर्यक वंश के बाद मगध में शिशुनाग अंश का उदय हुआ । इस वंश का संस्थापक शिशुनाग ४०७ईसा पूर्व में मगध के सिंहासन पर बैठा । उसने मगध की पुरानी राजधानी बना लिया ।शिशुनाग एक महान विजेता था ।पुराणो के अनुसार उसने अवन्ति के प्रघोतो की बची-बची शक्ति को भी सदा के लिए समाप्त कर दिया और अवन्नति को मगध में मिला लिया। शिशुनाग मधयप्रदेश , मालवा और उत्तर के अमुक परदेशों का भी शासक हो गया ।उसने वत्स और कौशल राज्य को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया । पुराणो के अनुसार सम्भवत: इस परदेशों को शिशुनाग ने अपने शासन के प्रथम वर्ष से ही अर्थात ४०७ईसा पूर्व में ही मगध राज्य में सम्मिलित कर लिया था । अब शिशुनाग आर्यावर्त के एक बहुत बड़े भाग का स्वामी बन गया । सम्भवतः वाराणसी भी शिशुनाग के अधिकार छेत्र में था । पुराणो के अनुसार उसने पुत्र को वाराणसी का शासक नियुक्त्त किया था । शिशुनाग ने सम्भवतः १४ वर्ष तक राज्य किया । वस्तुतः वह पहला मगध नरेश था जिसे हम सम्राट कह सकते है।

२>कालाशोक :-
            शिशुनाग का उत्तराधिकारी 'कालाशोक' या 'काकवर्ण' था। वह शिशुनाग की मृत्यु के बाद ३९३ईस पूर्व गद्दी पर बैठा और उसने पाटलिपुत्र को पुनः मगध की राजधानी बनाया ।
काकवर्ण का मतलब है -----कौए की तरह काले वर्ण का । कालाशोक में दो शब्द है -------काला और अशोक । इसका मतलब यह हुआ की शिशुनाग का उत्तराधिकारी बिलकुल ही काले वर्ण का रहा होगा और उसका वास्तविक नाम अशोक रहा होगा ।
कालाशोक ने सम्भवतः ३६ वर्ष तक राज्य किया । वह भी एक बड़ा वीर और प्रतापी सम्राट सिद्ध हुआ । उसने कलिंग पर अधिकार कर लिया और कश्मीर तथा पंजाब को जीत लिया , पर इन परदेशों को अपने साम्राज्य का अंग नहीं बनाया ।

बाण ने अनुसार , कालाशोक अथवा काकवर्ण के गले में छुरा भोंककर ह्त्या कर दी गई । यह हत्यारा सम्भवतः महापद्यनन्द अथवा उसने द्वारा नियुक्त्त कोई अन्य व्यक्ति था।महापद्यनन्द ने कुछ समय तक मृत राजा कालाशोक के लरको के नाम पर शासन किया , जिसकी संख्या लगभग दस(१०) थी--------------
१>भद्रसेन २>कोरंडवरण ३>मगुुर ४>सर्वयग ५>जैतविक ६>अभक ७>संजय ८>कौरव्य ९>नन्दिवर्धन १०>पंचमल
किन्तु: सम्भवतः खुछ ही महीनो में महापधानंद ने उन सभी लरको का वध कर दिया या मरवा डाला और शिशुनाग वंश को समूल नष्ट करके मगध के सिंहासन पर अपना पूरा अधिकार जमाकर नन्दवंश की स्थापना की ।

नन्द वंश :---
             नन्द वंश में नौ राजा हुए जिनको नवनन्द कहते थे । महाबोधि वंश के अनुसार नवनन्दो के नाम इस प्रकार है----
१>उग्रसेन  २>पण्डुक ३>भूतपाल ४>पण्डुगति ५>राष्ट्रपाल ६>गोविषाणक ७>दशसिध्दक ८>कैबर्ट ९>धन     , इनमे से प्रथम (उग्रसेन) पिता था और शेष लरके । उग्रसेन को ही पुराणो में महापधानंद कहा गया है और वह इसी नाम से अधिक प्रसिध्द है ।

१>महापधानंद :--
             महापद्यनन्द लगभग ३७५ईस पूर्व में मगध की गद्दी पर बैठा । वह अंतिम हरयकवंशी राजा महानन्द की दासी से उत्पन पुत्र था । जैन अनुश्रिुति के अनुसार वह एक नाई का लरका था , किन्तु एक रानी उस पर आसक्त हो गई , अतः उसने सम्राट का वध करके राज्य का संरछण अपने हाथ में ले लिया और धीरे-धीरे सब राजकुमारों की ह्त्या करके स्वंय सम्राट बन गया । किन्तु "मुद्राराछस" नाटक के अनुसार नन्दराजा को रानी सुनंदा का पुत्र माना है । यदि महापधानंद शूद्र था तो यह भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट घटना है की सर्वप्रथम छत्रियो की राजनितिक सत्ता को तिरस्कृत करके धर्म में ब्राह्मणो की अवहेलना करके शुद्रो ने राज्य स्थापित किया।
जो भी हो , यह निश्चित है की महापधानन्द एक शक्तिशाली और महत्वकांशी सम्राट था । पुरारो के अनुसार भारत के दस (10) प्रसिद्ध छत्रिय राजवंश महापधानन्द के राजकाल में अपना राज्य खो बैठे और उनके राज्य मगध साम्राज्य में मिला दिए गए । सिकंदर के समय साड़ी गंगा घाटी पर नन्द वंश का शासन था । पंजाब के पूर्व का समस्त उत्तरी  भारत , जिसका विस्तार दछिण में आ गया था  । महापधानन्द को सर्वछत्रातिंक अर्थात तत्कालीन सब दछिन राज्यों का अन्त करने वाला कहा गया है । उस समय निम्लिखित छत्रिय राज्य थे-------

१>इक्ष्वाकु २>पांचाल ३>काशी ४>कुरु ५>सूरसेन ६>हैहय ७>कलिंग ८>मिथिला ९>अश्मक १०>मैसूर ११>गुजरात काठियावाड़
दक्षणापथ का कुछ भाग भी सम्भवतः नन्द-साम्राज्य के अन्तर्गत था । इस प्रकार महापधानन्द का राज्य उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्श्चिम भारत के अधिकांश भाग पर फैला हुआ था । इतिहास में पहली बार इतने विस्तृत सम्राज्य की स्थापना हुई जिसकी सीमाये गंगा के मैदान को पार कर दक्षिण तक पहुँची तथा पश्चिम के समुद्रतट को स्पर्श करने लगी।
महापधानन्द के पास अपार धनराशि होने का उल्लेख मिलता है । एक प्रमाण के अनुसार उसके पास लगभग ९९ करोड़ स्वर्ण मुद्राये थी । नन्दो ने एक विशाल सेना का संग्डन किया था जिसमे ८० हजार रथ (चार घोड़े वाले) तथा ६ हजार हाथी थे । नन्द राजा अपने  प्रवेश मार्गो की रक्षा के लिए भी विशाल सेना नियुक्त करते थे ।
नंदराजा केवल विजेता नहीं था , वह एक कुशल प्रशासक भी था। मगध सुदृढ़ (एकरात) एकात्मक राज्य था । प्रशासन के लिए मंत्रियो की एक कौसिंल होती थी जिसे परामर्शदाता या महामात्र कहते थे जिसमे सेनापति सम्मिलित था । महामात्रो के विभाग बटे थे । एक महामात्र भूमि-कर वसूल करने तथा भूमि की देखरेख के लिए होता था ।
मगध प्रांतो में विभक्त्त था । प्रांत "नौम" या जिलो में विभक्त थे जिनका अधिकार "नौमार्क" था । राज्य की सबसे छोटी इकाई ग्राम या जिसका मुखिया ग्रामिक कहलाता था । भारतीय सूत्रों के अनुसार ग्रामो की देख-रेख के लिए 'अधिकृत' नियुक्त होता था। प्रांतो की शासन व्यवस्था भी भिन्न थी । उन क्षेत्रो पर जो राजधानी के निकट थे , राजा का कड़ा अनुशासन था, किन्तु दूरस्थ प्रदेशो को जहाँ राजा अधिक प्रभावशाली नहीं हो सकता था शासन के अधिकार अधिकारियों को दे रखे थे ।नन्द राजाओ के पास अतुल धनराशि थी । इससे सिध्द होता है की ये लोग जनता से काफी धन कर के रूप में वसूलते थे ।हाथीगुम्फ़ा अभिलेख के अनुसार नन्द राजा ने कूलिंग पर आक्रमण किया और उस देश से एक जिन की मूर्ति ले आया था ।इससे स्पष्ट होता है की सम्भवतः उसका झुकाव जैन धर्म की ओर था।
      २८ वर्ष (मत्स्य पुराणो के अनुसार ८८ वर्ष किन्तु वायु पुराणो के अनुसार २८ वर्ष जो ठीक है ) तक शासन करने के बाद ३२९ वर्ष पूर्व में महापधानंद की मृत्यु हो गई।
महापधानंद के उत्तराधिकारी :-
                        महापधानंद के उत्तराधिकारियों के नन्दवंश कहा गया---------
१>पण्डुक २>पण्डुगति ३>भूतपाल ४>राष्ट्रपाल ५>गोविशांक ६>दास सिध्दर्क ७>कैबर्त ८>धननन्द
ये आठो पुत्र योग्य बाप के अयोग्य बेटे थे । वे विलासी थे और प्रजा इनमे असंतुष्ट थी । परिणाम यह हुआ की मगध का विशाल साम्राज्य छिन्न -भिन्न होने लगा और दूर के प्रांत स्वतंत्र होने का प्रयत्न करने लगे। जिस उस समय नन्दवंश ही मगध में सत्तारूढ़ था । किन्तु अपनी जनता में ये सम्राट बदनाम थे । शक्ति और धन के मद में अन्धे होकर इन्होने हिन्दू धर्म की अपमान किया और जैन धर्म को प्रश्रय दिया। महापधानंद के आठो पुत्रो में अंतिम शासक सम्भवतः 'धनानन्द' था और उसे ही यूनानियो ने "अग्निस" या "अग्रमंिज" कहा है । धनानन्द बड़ा ही लोभी ,अत्याचारी और अधर्मिक शासक था।
प्रसिध्द विव्दान कौटिल्य (चाणक्य) का महापद्यनन्द के पुत्रो ने घोर अपमान किया था अतः उसने इसका समूल नाश करने की प्रतिज्ञा की थी । अंत में चन्द्रगुप्त मौर्य और कौटिल्य ने मिलकर नन्दवंश के राज्य को समाप्त कर दिया और मौर्य साम्राज्य की नींव डाली । मौर्य साम्राज्य ने ३२२ ईसा पूर्व से १८८ ईसा पूर्व तक शासन किया ।


मौर्य साम्राज्य :---
            भारतीय इतिहास का ३२२ से लेकर १८५ ई पूर्व का काल मौर्यवंश कहलाता है । मौर्यकालीन शासको ने छोटे-बारे कई स्वत्रंत राज्यों को अपने अधीन कर एक ऎसे शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसमे कला, संस्कृति, व्यापार और वाणिज्य का चतुमुखी विकास हुआ।
 अशोक के तरहवेँ प्रस्तर खण्ड से ज्ञात होता है की उसका साम्राज्य ६०० योजना (५०० मिल) लम्बा था और पुटेलमी , सिकंन्दर जैसे यूनानी शासक उसके समकालीन थे ।

मौर्य साम्राज्य का संस्थापक :---

१>चन्द्रगुप्त मौर्य :-
                     चंद्रगुप्त मौर्य के पूर्वजो के संबंध में विभिन्न मत-मतान्तर है। चन्द्रगुप्त का मगध के साम्राज्य पर किसी प्रकार का वंशानुगत और वैधानिक अधिकार नही था , लेकिन फिर भी चन्द्रगुप्त मौर्य ने ३२२ई पूर्व में नंद वंश का अन्त करके मौर्य साम्राज्य की स्थापना करने में सफलता प्राप्त की ।चन्द्रगुप्त नंद वंश का केवल एक सेनापति मात्र था , लेकिन चाणक्य की नंद वंश के विरुध्द प्रतिरोध की भावना ने उसे पंजाब में विभिन्न जातियों को संगठित करके राज्य स्थापित करने में सहायता मिली । नंद शासको की राजधानी पाटलिपुत्र में विद्रोह करवाकर चन्द्रगुप्त ने वहाँ के अन्तिम नंद शासक को निष्कासित कर दिया। चन्द्रगुप्त ने पहले पंजाब पर और फिर मगध पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार ३०५ई पूर्व तक चन्द्रगुप्त का विशाल साम्राज्य स्थापित हो चुका था ।चन्द्रगुप्त ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था । इसकी सेना में ६ लाख पैदल सेना , ३ लाख घुरस्वार , ९ हजार हाथी और ८ हजार रथ थे । और उनके सेना में नाविक बेड़ा भी था। चन्द्रगुप्त अपने राज्य का सर्वेसर्वा था ।उसे विधायी , कार्यपालिका , न्यायपालिका एवं सेना के संबंध में सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त थे , लेकिन फिर भी उसने विश्वासपात्र और योग्य व्यक्तियों को परामर्श देने के लिए मंत्रियो के रूप में नियुक्त कर रखा था । चाणक्य ने अर्थशास्त्र में आठ मंत्रियो के नाम उलेख किये  है। और वे है ---युवराज ,पुरोहित , सेनापति , अमात्य , महामात्य ,अंतर्वेशिका , अधयक्ष एवं प्रदस्ति । चन्द्रगुप्त विशाल ने अपने विशाल साम्राज्य को चार मंडलों में बात रखा था । वे मण्डल थे --तक्षशिला ,तोषाली , उज्जैन एवं स्वर्णगिरि(वर्तमान सोनगिर) । प्रान्तो का प्रशासन कुमार नामक पदाधिकारी द्वारा चलाया जाता था। वे मण्डल थे------ तक्षशिला, तोषाली , उज्जैन एवं स्वर्णगिरि (वर्तमान सोनगिर) । प्रान्तो का प्रशासन कुमार नामक पदाधिकारी द्वारा चलाया जाता था । चन्द्रगुप्त ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र का प्रबन्ध , तिस व्यक्तियों की एक सभा को सौप रखा था । जिसकी लम्बाई साढ़े नौ मिल और चौड़ाई पौने दो मील थी । शहर की रक्षा के लिए शहरपनाह बानी हुई थी जिसमे ५७० बुर्ज व ६४ द्वार थे ।
चन्द्रगुप्त के शासन में राजा के व्यकतित्व की सुरक्षा को  प्रशासन सर्वाधिक महत्व देता था । चन्द्रगुप्त को बिष देने का असफल प्रयास किया गया था इसीलिए उन्होंने अपने व्यक्तिगत की सुरक्षा के लिए विदेशी नस्ल की स्त्रियों को नियुक्त्त किया था जो चौबीस घंटे उसकी सुरक्षा करती थी।
चन्द्रगुप्त ने अपने शासनकाल में कुछ कल्यारकारी कार्य भी किये थे जिनमे सर्वाधिक महत्व सिचाई विभाग को दिया गया था । सौराष्ट्र के प्रान्तकाल पुश्यगुप्त को उसने सुदर्शन झील के निर्माण का आदेश दिया था । चन्द्रगुप्त जनता के दुखो -दर्दो के प्रति इतना अधिक सजग था की उसने गाँव में ग्रामिक पांच या दस गाँव के संगठन में गोप और उसके ऊपर स्थानीय नाम के पदाधिकारी नियुक्त्त कर रखे थे ।
२४ वर्ष तक शासन करने के बाद चन्द्रगुप्त जैनमुनि भद्रभादु के साथ वर्तमान मैसूर चला गया और वहाँ २९७ई पूर्व में उसकी मृत्यु हो गयी ।

बिन्दुसार :----
         ३०० से २७३ई पूर्व चन्द्रगुप्त की मृत्यु और बिन्दुसार राज्यारोहण की बीच तीन वर्ष का समय रहा । इसका कारण यह था की चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद पहले बिन्दुसार को दक्षिण भारत पर आक्रमण करके अधिकार स्थापित करना पड़ा  । फिर उसे तक्षशिला में विद्रोह का दमन करना पड़ा । चाणक्य के वर्णन के आधार पर लिखा है की बिन्दुसार ने जो काँटो का ताज पहना था उसे उसने तीन वर्ष के समय  में फूलो की सेज में परिवर्तित कर दिया । बौद्ध धार्मिक ग्रन्थो के अनुसार उसने २४ वर्ष के शासनकाल में उसने चन्द्रगुप्त के द्वारा छोड़े गये साम्राज्य को यथावत बनाये रखा था । विदेशी शासको के साथ विशेष रूप से यूनान ,सीरिया और मिस्र के राजाओ के साथ उसने राजदूतों का आदान-प्रदान करने की परम्परा को बनाए रखा था । इस प्रकार बिन्दुसार शक्तिशाली पिता और दैदीन्यमान पुत्र की प्रतिभा में आच्छादित हो जाने की उपरान्त भी मौर्यवंश के इतिहाहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।


अशोक :-
       अशोक ,मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम का पौत्र तथा बिन्दुसार का पुत्र था । अशोक राज्यारोहण से पूर्व तक्षशिला और उज्जैन के प्रान्तपति के रूप में अनुभव एवं ख्याति अर्जित कर चुका था । लेकिन फिर भी उसके भाइयो ने उसके उत्तराधिकार को चुनौती दी और उसने अपने भाइयो के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम लरना पड़ा था । इसीलिए बिन्दुसार के मृत्यु के बाद अशोक के राज्योरोहण में चार वर्ष का समय लग गया ।
अशोक अन्य युवराजों के समान वैभव और विलासित का अभ्यस्त था । वह आखेट खेलने जाता था ।उसे मांस का भी शौक था तथा मदिरा की सामाजित गोष्ठिया आयोजित करता रहता था । अतएव कलिंग युद्ध से पूर्व और सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात अशोक के चरित्र में वे गुण नहीं थे ।राजतरंगिणी के लेखक कल्हण लिखता है की अशोक शैवमत का अनुयायी था और उसने विजेयेश में दो शिव मंदिरो का निर्मार्ण करवाया था । महावंश के अनुसार अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था । अशोक ने अपने पहले शिलालेख में लिखवाया था ,"देवताओ के प्रियदर्शी राजा के रसोईघर में शोखा बनने के लिये हजारो प्राणी मारे जाते थे , परन्तु अब केवल तीन प्राणी ,दो मोर और एक मृग मारे जाते है व मृग भी सदा नहीं। आये ये तीन ये तीन प्राणी भी नहीं मारे  जायेगे ।" उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो गया की अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था ।
           अशोक को सिहासनारोहण के बाद "कलिंग" के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा ।इस युद्ध में भीषण रक्तपात हुआ और उसका प्रभाव अशोक के मानसपटल पर पड़ा ।अपने तेरहवें शिलालेख में अशोक ने लिखवाया था ,"कलिंग देश की विजय में उस समय जितने आदमी मारे गये थे ,कैद हुए थे ,उनके सौवे या हजारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओ के प्रिय के लिये बड़े दुःख का कारण होगा ।" कलिंग के भीषण रक्तपात के २५६ दिन बाद अशोक को पश्चाताप का आभास हुआ था । एक भिक्षु बालबन द्वितीय ने अशोक को बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित किया था । इसका तात्पर्य यह हुआ की अशोक ने २६० ई पूर्व  के लगभग बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था और उसने संघ में शरण ली थी ।
अशोक ने संसार के सम्मुख जिस बौद्ध धर्म को प्रस्तुत किया था । उसके दो रूप थे ----पहला गृहस्थ जीवन वाले लिए धर्म और दूसरा भिक्षुओ के लिए धर्म । अशोक के अनुसार धर्म का पहला सिध्दांत था उपसिनवे (पाप से दूर रहना ) , दुसरा सिद्धांत बहुक्याने (अच्छे कार्य करना) ,तीसरा सिद्धांत दया ,चौथा सिद्धांत दाने (दान) ,पाचवा सिद्धांत सचये(सत्य) और छठा सिद्धांत सोचये(शुद्धाता) । अशोक के धर्म की इस व्याख्या से यह स्पष्ट हो जाता है की उसका धर्म देवी-देवताओ की आराधना ,कर्मकांड और आडम्बरयुक्त क्रियाओ पर आधारित नहीं था । अशोक ने कभी किसी को महात्मा बुद्ध की पूजा करने का आदेश नहीं दिया । उसका धर्म पूर्णतया मानवीय सिद्धांतो पर आधारित था । अशोक ने केवल बौद्ध धर्म का ही प्रचार नहीं किया अपितु उन्हें विश्वशांति और विश्वबंधुत्व का संदेश सिखाया । श्रीलंका ,ब्रह्म श्याम ,जापान और तिव्बत तथा चीन में बौद्ध धर्म के आदर्शो का ढिस उसी प्रकार प्रचार हुआ जैसे अफ्रिका में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ था ।
अशोक ने कई नगर बसाये थे । कश्मीर में श्रीनगर अशोक के द्वारा बसाया गया था । इस नगर में ५०० मठ बनवाये गये जिनमे रहने के लिये ५०० बौद्ध भिक्षुओ को आमंत्रित किया गया। नेपाल में उसने देवपातन नामक शहर बसाया था जिसमे उसकी पुत्री बासमती रहती थी । अशोक ने अपने साम्राज्य में चौरासी हजार बिहार बनवाये थे ।अशोक के भवन निर्माण कार्यो में सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तम्भ है । इन स्तम्भो की पॉलिश इतनी कमकीली है की विदेशी इन्हे धातु अथवा चिकने पत्थर का समझते है , जबकि ये पत्थर में से काटकर बनाये गये है । सारनाथ का स्तम्भ सबसे सुन्दर स्तम्भ है । इसके शीर्ष में सबसे निचे घण्टियों के अकार के उल्टे कमल के फुल है । उसके पत्थर पर चारो दिशाओ में चार पशुओ (हाथी ,घोड़ा ,बैल,शेर) की आकृतियाँ खुदी है । उनके ऊपर धर्मचक्र है । अशोक द्वारा बनाया गया प्रत्येक स्तम्भ ५० फुट लम्बा और बजन में लगभग ५० टन है । अशोक ने गया के करदृ गृह बनवाये इनकी दीवारे शिशो की भाँति चमकती है । इस प्रकार अशोक ने चालीस वर्षीय शासनकाल में विभिन्न निर्माण कार्य करवाये । अशोक प्रजा की सेवा उतनी ही आवश्यक समझता था जितना की ऋण चुकाना । वह स्वंय लिखता है "मेरे लिए विश्व-कल्याण से अधिक महत्वपूर्ण कोई कार्य नही है ।" समस्त प्रजा को अपनी संतान मानता था ।

                                                           अशोक के उत्तराधिकारी
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कुणाल                                 जालुका                                  दशरथ                                               सम्प्रति (२३२ से २३४ई पूर्व)                                                   (२२४ से २१५ई पूर्व)                         (२१४ से २०७ई पूर्व)


अशोक की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कुणाल सिंहासनरुढ  हुआ था ।


मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण
मौर्य साम्राज्य का विघटन अशोक के उन निर्बल उत्तराधिकारी के कारण हुआ जो एवं कश्मीर और गांधार में अपने आप को स्वत्रंत घोषित कर चुके थे और जिन्होंने पतनोन्मुख केंद्रीय सत्ता को सम्बल देने का प्रयास नही किया ।अशोक बौद्ध धर्म के प्रति आसक्ति ने ब्रह्मण धर्म एवं ब्रह्मण समाज में असंतोष के बीज बो दिए थे । परिणामस्वरूप विद्रोहात्मक पर्व्र्त्रिया जन्म ले चुकी थी । समाजिक असनतोष ने हूणों के आक्रमण से देश की रक्षा नहीं की  । दुसरा कारण अशोक की अहिंसा की नीति , शान्ति के पुजारी अशोक ने सैनिक अभ्यासों और प्रदर्शनों को बंद कर दिया था और इसीलिये सेना निकम्मी हो गयी थी ।अतः मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ की हत्या के साथ ही मौर्य साम्राज्य का अंत हो गया ।


साम्राज्य्वादी गुप्त शासक :---
                       मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात लभग पांच सौ वर्षो तक उत्तर भारत में किसी भी शक्तिशाली राज्य का पता नहीं चलता।
उत्तर पशिचम में निरंतर होने वाले आक्रमणों के कारण भरतीय जनता शीघ्र ही ऐसे शक्तिशाली शासक की आवश्यकता का अनुभव किया जो इन उपद्रवों को रोकने में समर्थ हो । फलतः तीसरी शताब्दी ई के उत्तराद्ध में देश के तीन कोने से तीन शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ ।
मध्य देश के पशिचमी भाग से नाग अथवा भारशिव उठे । उनका दावा था की उन्होंने गंगा तक फैली साड़ी भूमि को अपने अधिकार में कर लिया था। दक्षिण में बाकाटको का उदय हुआ । उन्होंने केवल दक्षिण पठार में अपने राज्य का विस्तार किया वरन विन्द्याचल के उत्तर में भी काफी बारे भू-भाग पर प्रभाव स्थापित कर लिया था । तीसरी शक्ति का उदय पूर्व में हुआ था  । वह शक्ति गुप्त की थी । वे पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक कोने से छोटे से राज्य के रूप में उदित हुए और अपने युग की महत्तम शक्ति कहलाने गौरव प्राप्त किया ।उसने साम्राज्य के अन्तरगत विन्द्याचल के उत्तर का सारा भू-भाग समाहित था और दक्षिण पर भी उन्होंने अपना प्रभाव डाल रखा था।
गुप्तवंश किसी जाती से संबद्धs अनेक प्राचीन अभिलेखो में हुआ है । सातवाहन काल के अनेक लेखो में "गुप्त" शब्द मिलता है परन्तु यह निश्चित रूप नहीं कहा जा सकता की "गुप्त नामधारी" सभी व्यक्ति एक ही वंश के थे अथवा भिन्न-भिन्न वंशो तथा उपवंशो के, गुप्तवंश के अभिलेखो से पता चलता है की गुप्त राज्य का संस्थापक महाराजा श्रीगुप्त नामक नरेश था । वे एक साधारण सामंत राजा था। वह पाटलिपुत्र और उसके समीपस्थ प्रदेशो पर शासन करता था । श्रीगुप्त के बाद तृतीय शताब्दी के अन्त में उसका पुत्र महराजा घटोत्क्च गद्दी पर बैठा ।

चन्द्रगुप्त प्रथम (३२० ई से 335 ई):-----
                             चन्द्रगुप्त प्रथम घटोत्कच का पुत्र और गुप्त वंश के क्रम में राजा था । वास्तविक अर्थो में इसे ही साम्राज्य का संस्थापक कहना चाहिए ।अभिलिखो में चन्द्रगुप्त प्रथम को "महरजाधिराज" कहा गया है। चूँकि चन्द्रगुप्त के पौत्र का भी यही नाम या अतः उससे भेंद प्रकट करने के अभिलेख के समय से ही गुप्त सम्वत प्रारम्भ हुआ । यह संवत ३२० ई में प्रारम्भ हुआ था अतः चन्द्रगुप्त प्रथम ३२० ई में गद्दी पर बैठा ।चन्द्रगुप्त प्रथम महत्वाकांक्षी और कुशल शासक था । उसने अपने पूर्वजो की कीर्ति बढ़ाई । लिच्छवि राजकुमारी देवी के साथ उसने विवाह किया ।
चन्द्रगुप्त की राज्य की सीमा का विस्तार गंगा और यमुना के संगम तक किया । तिरहुत ,दक्षिणी बिहार , अवध एवं उसके निकटवर्ती प्रदेश उसके राज्य के अधीन थे । सम्भवतः वैशलि भी उसके समय में ही गुप्त साम्राज्य के अधिकार में आ गया था क्योकि चन्द्रगुप्त ने   
लिच्छवि राजयकुमारी से विवाह किया था । चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तर प्रदेश के अधिकार भाग और क्षक्षिण -पश्चिमी विहार पर पहले से ही अधिकार था । इसमें पाटलिपुत्र सम्मिलित था ।
ऐसा माना जाता है की चन्द्रगुप्त ने अपने राजीभिषेक की तिथि से एक नया संवत् "गुप्त संवत्" प्रारम्भ किया था ।लगभग ३१०-३२० ई से गुप्त संवत् प्रारम्भ होता है । इस संवत् को  ोकप्रिययता दिलाने में आगामी गुप्त शासको ने निश्चय ही काफी योग दिया ।
लगभग १५ वर्ष शासन करने के बाद ३३५ ई में चन्द्रगुप्त प्रथम की मृत्यु हो गई ।

समुद्रगुप्त (३३५ -३७५ ई):--
 चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात मगध के सिंहासन पर ऐसा वीर पुरुष बैठा जिसने अपनी विजयो द्वारा एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और शताब्दियों के लिए गुप्तवंश की नीव सुदृढ़ कर दी । इस विशाल साम्राज्य निर्माता का नाम समुदुर्गुप्त था ।
                                        प्रयाग के अशोक स्तम्भ पर उत्क्रिन अभिलेख से पता चलता है की चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को जब दरबारियों और कुल के सदस्यों की उपस्थिति में अपने उत्तराधिकारी चुन लिया था ।समुद्रगुप्त लगभग ३३५ई में गद्दी पर बैठा । समुद्रगुप्त बचपन से ही बड़ा होनहार था । वह बड़ा वीर, साहसी और विद्वान था । वह साहित्य और कला से विशेष प्रेम रखता था । अपनी वीरता के कारण  उसे 'व्याध्र-प्राक्र्म' की उपाधि प्राप्त थी ।
  समुद्रगुप्त एक महान विजेता था । उसकी विजयो अथवा दिग्विजय के कारण इतिहासकार इनको "भारतीय नेपोलियन" की पदवी से सुभोषित करते है ।
प्रयाग (इलाहाबाद) के प्रशसित स्तम्भ लेख में लिखा है "उसने सैकड़ो युद्धों में विजय प्राप्त की थी । उसका शरीर शस्त्रों से लगे सेकड़ो घावों से सुशोभित था । वह अपने भुजबल पर भरोसा करता था ।" समुद्रगुप्त की विजयो को हम पाँच श्रेणियों में विभाजित कर सकते है ।---------------------------
१>आर्यावर्त (उत्तरी भारत) के राजाओ पर विजय :-
                                                          समुद्रगुप्त ने सबसे पहले आर्यवर्त के नौ राजाओ को परास्त किया और उनके राज्य को अपने सम्राज्य में मिला लिया ।उन राजाओ के नाम निम्नलिखित है ------रुद्रदेव, मातिल , नागदत्त , चन्द्रवर्मन ,नागसेन , अच्युत , नन्दिन , बलवर्सन आदि  ।
२>विध्य-प्रदेश के आटविक राज्यों पर विजय :-
                                       अयविरत अथवा उत्तरी भारत की विजय के उपरान्त समुद्रगुप्त ने विंध्य-प्रदेश के लगभग आठ आटिविक राज्यों को परास्त कर उनके राजाओ को अपना परिचारक बना लिया । ये राज्य जंगलो और पहाड़ो पर थे ।
३>दक्षिण भारत की विजय :-
                         उत्तरी और विंध्यप्रदेश राज्यों को अपने अधिकार में करने के उपरान्त समुद्रगुप्त ने दक्षिण के १२ राज्यों को परास्त किया । इन राज्यों और उनके राजाओ के नाम निम्नलिखित है:---------------------- कौशल का महेंद्र ,म्हाकान्तार का व्यार्ध राज , कौशल का स्वामीदत्त , येरण्डपल्ल का दमन ,कांचर का विष्णुगोप , अवयुक्त का निलराज ,बैगी का हस्तिवर्मन ,पाल्ल्क का उग्रसेन ,देवराष्ट्र का कुबेर ,कूरस्थलपुर का धनंजय  आदि ।
अभिलेख में स्पष्ट है की समुद्रगुप्त इन राजाओ को हराकर अपने राज्य में सम्मिलित किया ।

४>पूर्वी सीमान्त प्रदेश एवं गणराज्यो की विजय :-
                                        समुद्रगुप्त ने सीमान्त प्रदेशीय राज्यों की ओर ध्यान दिया । इस समय तक समुद्रगुप्त  का धाक सम्पूर्ण भारत में जम चुकी थी । अतः समुद्रगुप्त के आक्रमणों के भय से इनमे से कुछ ने युद्ध करने के पश्चात ओर कुछ ने बिना युद्ध किये ही समुद्रगुप्त का अधिपत्य स्वीकार कर लिया । अभिलेखो के अनुसार ऐसे सीमान्त राज्यों की संख्या पांच थी ----समतट(दक्षिण पूर्वी बंगाल का समुद्रतटीय प्रदेश)  ,कामरूप (उत्तरी असम)  ,देवाक(ढाका व चटगांव के जिले)  ,नेपाल ,कतरपुर सम्भवतः कुमायु , गढ़वाल व रुहेलखण्ड के प्रदेश  ।
इन राजो के जैसे कुछ नौ राज्यों ने भी बिना युद्ध किए चन्द्रगुप्त की अधीनता स्वीकार ली ।-----------मालवा , आर्जुनायन ,यौधेय ,मद्रक ,आमिर ,प्रार्जुन ,सनकानिक ,काक ,खरपरिक आदि ।
समुद्रगुप्त ने अपनी महान विजयो क्व आधार पर केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना ही नही की वरन उस साम्राज्य का संगठन भी बहुत कुशलता से किया ।समुद्रगुप्त की मुद्राओ ओर उनके लेखो से ज्ञात होता है की अपनी गौरवशाली विजयो की स्मृति में ओर ओपनि सत्ता को सर्वमान्य बनाने के लिए समुद्रगुप्त ने अश्मेघ यघ किया । उसका यह यघ निर्विरोध एवं निर्विध्न सम्पन्न हुआ ओर उसने "महाराजाधिराज्य" की उपाधि धारण की ।
                                               समुद्रगुप्त ने लगभग ३७५ई तक शासन किया । उसके बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त साम्राज्य के सिहासन पर बैठा ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)  (३७५-४१५ई ) :-
                                         गुप्त अभिलेखो के अनुसार समुद्रगुप्त ने अपने पुत्र चन्द्रगुप्त को ही अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था । वह लगभग ३७५ ई में गद्दी पर बैठा । उसके पितामह से भेद दिखाने के लिए ही उसे चन्द्रगुप्त द्वितीय कहा जाता है । उसने विक्रमादित्य की उपाधि भी धारण की अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय ही व्रिक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है ।
                                                                     चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य गुप्त सम्राटो में अत्यन्त योग्य था और उसका राजयकाल हिन्दू भारत  के इतिहास में गौरवपूर्ण था।जिस समय चन्द्रगुप्त द्वितीय सिहासन बैठा उस समय भारत की विभिन्न जातियों और राज्यों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी । समुद्रगुप्त ने उनका दमन कर दिया था , फिर भी यह दमन स्थायी नहीं रह सकता था । समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात रामगुप्त जैसा कायर शासन सिंहासनारूढ़ हुआ ।ऐसी परिस्थिति में चारो ओर विद्रोह हो सकता था पर चुकी समुद्रगुप्त की विजयो का आतंक अभी ताजा था अतः उसने युद्ध तथा  वैवाहिक सम्ब्न्ध दोनों अस्त्रों द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना उचित समजा ।
उसने अपना विवाह पूर्वलिखित नागवंशीय कन्या कुबेरनाग से किया जिसने प्रभावती नामक पुत्री उतपन्न हुई ।शक्तिशाली नागवंश से सम्बन्ध होने के कारण तो चन्द्रगुप्त की स्थिति सुदृढ़ बनी ही लेकिन चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से करके अपनी स्थिति को और सुदृढ़ बना लिया । अपनी कुमारावस्था से ही चन्द्रगुप्त वीर और साहसी था । शक राजा के मरने और शको के खदेरने से उसने अपने शौर्य और चतुराई का परिचय दिया था ।
                                     चंद्रगुप द्वितीय ने "विक्रमादिय" की उपाधि शक विजय के पश्चात धारण की थी । तत्कालीन भारत में सर्वाधिक शक्तिशाली एवं आक्रामक शक सत्ता को निर्मूल कर देना उसकी प्रशंसनीय कृतियों में चार चाँद लगा देती है। उसमे उज्जयिनी के प्राचीन शासक विक्रमादित्य का अनुकरण करते हुए उस उपाधि को धारण कर लिया , जो भारतीय परम्परा के अनुसार शकारि था और इस सम्राट से लगभग ४०० वर्ष पूर्व राज्य कर चुका था । शक विजय के फलस्वरूप इस सम्राट का राज्य गुजरात , काढियावार और पश्चिम मालवा पर स्थापित हो गया ।
                                     चन्द्रगुप्त ने अपअनी महत्वपूर्ण विजयो की द्वारा गुप्त साम्राज्य की सीमाओ का विस्तार किया और गुप्त साम्राटो के यश में वृद्धि की । उसके समय में गुप्त साम्राज्य हिमालय की घाटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात, कढ़ियावार तक विस्तृत हो गया था । चन्द्रगुप्त ने सम्भवतः पंजाव का भी कुछ भाग विजय किया था । इस प्रकार चन्दगुप्त विक्रमादित्य्कालीन गुप्त साम्राज्य में समस्त बंगाल , विहार उत्तरप्रदिश , पंजाब ,मध्य प्रदेश का कुछ भाग , समस्त मध्य भारत ,गुजरात , काढियावार और उसके प्रदेश सम्मिलित थे ।
                         चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की शासन व्यवस्था  राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी सम्राट था । उसे शासन संसालन में मंत्रणा देने के लिए मंत्री होते थे । विभिन्न विभागों के संचालन के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे । देश के शासक को "गोप्त" कहते थे ।भुक्ति के शासन को "उपरिक महाराज " कहा जाता था  । प्रतेक विषय में अनेक ग्राम हुआ करते थे जिसकी देखभाल करने वाले को "ग्रामिक , महत्तर तथा भोजक" कहा जाता था ।युद्ध के समय सभी उच्च पदिधिकारियो को सैनिक सेवायें देनी प्रति थी । मंत्रियो का पद पैतृक था, किन्तु योग्यता के आधार पर भी चयन होता था ।आय के रूप में किसानो के उपज का छढ़ा भाग (१/६) लिया जाता था  ।इसके अतिरिक्त जुर्माना कर, लोक-कर ,चमरा-कर, अधीन देशो से कर आदि से भी पर्याप्त रूप से राजकीय आय होती थी ।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में जिन सिक्को का प्रचलन हुआ वे बड़े सुन्दर और मौलिक थे । विभिन्न प्रकार के सिक्को प्राप्त हुए  है ।कुछ सिक्को पर वह पर्थक पर बैठा हुआ, कुछ में धन्वा लिए खड़ा हुआ और वेदी पर आहुति डालता हुआ ,कुछ में घोड़े पर बैठा हुआ और कुछ सिक्को में सिंह पर धनुष खींचता हुआ चित्रित किया गया है ।कुछ सिक्को ऐसे भी मिले है जिन पर खड़े हुए सम्राट के पीछे क्षत्र लिए सेवक खड़ा हुआ अंकित किया गया है ।चन्द्रगुप्त द्वितीय के चांदी के सिक्के भी मिले है ,जिनमे मुख भाग पर राजा का सिर और पृष्ठ भाग पर पंख फैलाये गरुड़ चित्रित है ।चन्द्रगुप्त ने अपने शैलयो के तांबे के सिक्को भी चलाये थे जिनमे से अनेक प्राप्त हुए है ।चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में व्यापार बड़ा उन्नत था । उज्जैन व्यापार का बहुत बड़ा केन्द्र था ।
                                                                           चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य स्वंय विद्या-प्रेमी था । उसके राजयकाल में संस्कृत भाषा ने बड़ी उन्नति की ।कहते है की नौ बड़े विद्वान उसके दरबार के 'नवरत्न' थे ।संस्कृय का प्रसिद्धी कवि "कालिदास" भी  इसी समय में हुआ था  ।इस काल में कला की भी बहुत उन्नति हुई । दिल्ली में "कुतुबमीनार के पास लोहे की जो अद्भुत लात खड़ी है" ,वह भी इसी काल में बनी थी  । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने राजनितिक महानता और सांस्कृतिक पुनर्जीवन के युग को उन्नत स्थिति पर पहुँचाया और लोक-हृदय में अपना स्थान बना लिया ।उसकी धर्म-सहिष्णुता भी उच्चकोटि की थी फलस्वरूप राज्य के उच्च पद सभी वर्गो के व्यक्तियों के लिए खुले थे ।वह विष्णु का परम भक्त था और उसने "परम् भागवत" की उपाधि धारण की थी ,किन्तु धर्मिक कटटरता उसको छू भी नहीं पाई थी । वास्तव में वह एक प्रशंसनीय एवं चिरस्मरणीय शासक था ।गुप्त सम्राज्य के ही नही वरन भारत के संम्पूर्ण इतिहास में उसका बड़ा उच्च स्थान है ।


स्कंदगुप्त (४५५-४६७ ई):-
                    कुमारगुप्त के बाद उसका पुत्र स्कंदगुप्त विक्रमादित्य गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ । उसका शासनकाल सम्भवतः ४५५ और ४६७ ईस्वी के बीच रहा ।उसका राज्याभिषेक भी निरापद नही था ।उत्तराधिकार के लिए सम्भवतः उसे अपने भाइयो से युद्ध करना पड़ा था ।सिहासन पर बैठने के बाद ही स्कंदगुप्त को पुष्यमित्र से भी कहि भयंकर शत्रुओ का सामना करना पड़ा ।ये मध्य एशिया के खानाबदोश क्रूर हुन थे ।इनकी शाखा बंक्षु नदी से दक्षिण की ओर बढ़ती हुई अफगानिस्तान को पार करके भारत में आंधी की तरह घुस आई । विश्व-इतिहास की अत्यंत क्रूर ओर विनाशकारी हुन जाती को स्कंदगुप्त ने ऐसी भीषण पराजय दी की हुन न केवल तत्काल पलायन कर गए वरन शताब्दी के अंत तक उन्होंने गंधार के पूर्व की ओर आँख उठाकर देखने तक का साहस नही किया ।
                              स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ने अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने तथा यश बढ़ाने के लिए कुछ उठा नही रखा ।अपने पूर्वजो द्वारा अर्जित साम्राज्य को वह पूर्ववत बनाने रखने में सफल रहा ।स्कंदगुप्त के पराक्रम का गुणगान इन शब्दों किया गया है, "सैकड़ो राजो के सिर दरबार में नमस्कार करते समय उसके चरणो में नत हुए ।वह सैकड़ो नरपतियों का सम्राट था । वह इंद्र के समकक्ष और अपने साम्राज्य में शान्ति का संस्थापक था ।स्कंदगुप्त ने स्वयं को निःसंदेह एक महान विजिता , साम्राज्य का योग्य संरक्षक ,राष्ट्र का से उसने विदेशी आक्रंताओ का दमन किया और आन्तिरिक विदोह को शांत किया ।महान योद्धा होते हुए भी उसका ह्रदय सदैव करुणा और प्रेम से भरा रहता था ।दया ,धर्म,विनय ,उदर्ता आदि महान गुण उसमे निरंतर देखने को मिलते थे ।उसके शत्रुओ ने भी उसकी प्रशंसा की है ।
स्कंदगुप्त स्वयं वैष्णव होते हुए भी अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णु था ।गिरनार के नगराध्यक्ष ने नगर को भगवान चर्कमृत के मंदिर से सुसज्जित किया था ।कहौं अभिलेख से पता चलता है की मर्द-नामक एक व्यक्ति ने जेन तीर्थकरों की पत्थर की पांच मूर्तियों स्थापित कराई ।उसके शासनकाल में प्रजा धर्म के मामलो में पूर्ण रूप से स्वतंत्र थी ।स्कंदगुप्त के सोने के सिक्को की शैलियाँ अधिक नहीं थी ।कुछ सिक्को पर वह धनुष-बाण लिए चित्रित है और कुछ पर रानी अथवा लक्ष्मी के साथ खड़ा हुआ अंकित है ।पृष्ठ भाग पर क्रमलासन पर विराजमान लक्ष्मी है ।कुछ सिक्के ऐसी भी मिले है जिनमे वह अश्वारोही के रूप में दिखाया गया है ।स्कंदगुप्त के चांदी के सिक्को भी मिले है ।संकंदगुप्त के चांदी के सिक्के भी मिले है ।उसके सिक्को से पता चलता है की उसने "विक्रमादित्य" की उपाधि धारण की थी ।उसके चांदी के कुछ सिक्को पर उसका प्रसिद्ध विक्रमादित्य विरुद्ध भी लिखा मिला है ।कहौं अभिलेखो में उसे "क्षतिशपति" अर्थात "सब राजाओ का स्वामी" कहा गया है ।
स्कंदगुप्त की अंतिम ज्ञात तिथियाँ क्रमशः ४५५ और ४६७ ईस्वी है ।अतः उसके राजयकाल और उसकी मृत्यु की क्रमशः ये ही दोनों तिथियाँ होनी चाहिए । स्कंदगुप्त इस वंश का अंतिम महान सम्राट था क्योकि उसके रत्तराधिकारी निर्मल सिद्ध हुए थे जो विशाल गुप्त साम्राज्य को संभाल नही सके ।स्कंदगुप्त के शासनकाल तक गुप्त-साम्राज्य अपने उतकर्ष पर रहा ।
स्कंदगुप्त गुप्तवंश का सन्तीम् महान सम्राट था ।उसने अपने पूर्वजो जैसी धार्मिक सहिष्णुता और उदारता कूट-कूट कर भरी थी ।यधपि उसने समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय की भाति नये प्रदेश नही जीते ,किन्तु हुनो के झंझावात से जिसके प्रहार से रोमन साम्राज्य भी जर्जरित हो गया था , अपने देश की रक्षा करना कम पराक्रम का काम न था ।एक सच्चे स्रमवीर की भाति उसने देश और साम्राज्य की रक्षा में अपनी जीवन दे दिया ।

गुप्त सम्राज्य के पतन के कारण :-
                                   स्कंदगुप्त के बाद से ही गुप्त साम्राज्य का पतन शुरू हो गया था ।बुधगुप्त के बाद पतन की यह प्रक्रिया अधिक तीव्र हो गई जिसके निम्नलिखित कारण थे :---------------------------
१>अयोग्य उत्तराधिकारी :-
                         स्कंदगुप्त के बाद गुप्त राजा अयोग्य ,दुर्बल और विलासी हो गए ।पुरुगुप्त, कुमारगुप्त और बुधगुप्त को छोरकर कोई राजा इतना प्रभावशाली नही था जो इतने बड़े साम्राज्य को संभाल पाता।अतः गुप्त साम्राज्य की जड़े हिलती गई और अन्त में उसका पतन हो गया ।

२>आंतरिक संघर्ष :-
               गुप्त राजाओ में मुगलो की भाँति उत्तराधिकार का कोई निशित नियम नही था , अतः उनकी ही तरह राजा की मृत्यु के बाद उसके पुत्रो में सघर्ष होता था और जिस प्रकार इस कमजोरी से मुगलो साम्राज्य का पतन हो गया ,उसी प्रकार गुप्त राज्य भी कमजोरी हुआ ।

३>निर्बल केंद्र :-
          अयोग्य तथा दुर्बल राजाओ की प्रभावहीनता  के कारण प्रणतो के सरदार एक-एक करके स्वतन्त्र होने लगे ।प्रांतो के शासक बहुधा स्थानीय सामान्त होते थे जो केंद्रीय शक्ति के दुर्बल होते ही सर उठाने लगे तथा मौका पाते ही उन्होंने अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिए । एक-एक करके सब प्रान्त स्वतन्त्र होते चले गए और गुप्त वंश का अन्त हो गया ।

४>गुप्त राजाओ द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार करना:-
                                      पूर्ववर्ती गुप्त राजा वैष्णव धर्म के अनुसार थे ,जो अहिंसा की अपेक्षा राजदंड पर अधिक भरोसा करते थे तथा चक्रवर्ती राज्य की स्थापना के लिए अश्वमेघ तथा राजसूय यज्ञ करते थे ।उसके फलस्वरूप वे सैनिक कुशलता से उदासीन रहते और उनका शौर्य लुप्त होने लगा ।अतः जिस प्रकार अकोश के मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य विधटित हो गया ,उसी प्रकार इन राजाओ के बाद गुप्त साम्राज्य क्षीण होता गया ।

५>विदेशी नीति का परित्याग:-
               गुप्त सम्राटो ने अपने समकालीन राजवंशो के साथ मैत्री संबंध स्थापित करके अपने साम्राज्य के सम्वर्द्धन में उनका सहयोग प्राप्त किया था । परन्तु अवन्ति काल में किसी भी गुप्त सम्राट ने इस प्रकार की कूटनीति का अवलंबन नहीं किया । परिणाम यह हुआ की उन्हें संकटकाल में किसी भी प्रकार की अन्य राजकीय सहायता प्राप्त नही हो सकी।


वर्धन वंश :-
           गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरान्त छठी शताब्दी में कोई ऐसा प्रतापी शासक नही उआ जो विकेंद्रीकरण की शक्तियों को नियंत्रण में कर सकता और देश के अधिकांश भाग को पुनः राजनितिक एकता के सूत्र में बांध सकता । सातवी शताब्दी के प्रारम्भ में इतिहास के मंच पर हर्षवर्धन ने पदार्पण किया । किन्तु लगभग ५५ वर्ष की इस अव्यवस्था के उपरान्त उत्तर भारत में पुष्यभूति वंश ,दक्षिण भारत में चालुक्य वंश एंव सुदूर दक्षिण में यल्हन वंश का अधिपत्य स्थापित हो गया । इन प्रतापी वंशो ने बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित करके देश को पुनः राजनितिक स्थिरता प्रदान की । ।पुष्यभूति वंश , दक्षिण भारत में चालुक्य वंश एवं सुदूर दक्षिण में यल्हन वंश का अधिपत्य स्थापित हो गया ।इन प्रतापी वंशो ने बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित करके देश को पुनः राजनितिक स्थिरता प्रदान की ।पुष्यभूति वंश में जो भी ज्ञात राजा हुए , उनके नाम के अन्त में "वर्धन" शब्द आया ,अतः यह वंश प्रायः वर्धन वंश के नाम से नाम से जाना जाता है जिसका सबसे विख्यात राजा हर्षवर्धन (६०६-६४७ ई) हुआ ।
 प्रभाकरवर्मन इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था जिसने परमभट्टार्क तथा महाराजधिराज्य की उपाधियाँ धारण की ।प्रभाकर वर्धन ने हुनो एवं राजपुताना ,गुजरात ,सिंध ,गांधार तथा मालवा के राजाओ से युद्ध करके उन्हें पराजित किया । प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र थे--- राज्य वर्धन और हर्षवर्धन ।उसके साथ एक कन्या भी थी जिसका नाम राजयश्री था । राजयश्री का विवाह कन्नौज के राजा गृहवर्मन के साथ  हुआ ।६०५ ई में प्रभाकर वर्धन सिंहासन पर बैठा ,किन्तु तभी उसे सुचना मिली की मालव नरेश देवगुप्त ने उसके बहनोई गृहवर्मन की हत्या करके उसकी बहिन राजयश्री को कान्यकुब्ज के कारागार में डाल दिया है और वह थानेश्वर को भी आत्मसात करने के लिए आना चाहता है । इस समाचार को सुनते ही राजयवर्धन अपने पिता की मृत्यु के दुःख को भूल गया और एक विशाल सेना लेकर अपने शत्रु की ओर बढ़ा युद्ध में मालवा का राजा देवगुप्त उसके हाथो परास्त हुआ, किन्तु मालवा नरेश के मित्र गौर के राजा शशांक ने राज्य वर्धन के सरल स्वभाव से लाभ उठकर उसे अपने यहाँ निमंत्रित किया और षड्यन्त्र करके उसकी हत्या कर दी तथा कन्नौज पर कब्जा कर लिया । राजश्री किसी प्रकार बंदीगृह से मुक्त हो विन्ध्य पर्वत की पहाड़ियों में भाग गई ।

हर्षवर्धन :-
          राजा वर्धन की मृत्यु के बाद केवल १६ वर्ष की आयु में हर्ष वर्धन ६०६ई में थानेश्वर की गद्दी पर बैठा  । वह अपने वंश का महानतम सम्राट था ।
गद्दी पर बैठते ही हर्ष ने सर्वप्रथम दो निश्चय किये ---अपनी बहिन राजयश्री को खोज निकलना और शशांक को दण्ड देना । भाई की हत्या का समाचार पाते ही हर्ष ने यह प्रतिज्ञा की "मै कुछ दिनों मै गौर की धरती गौरविहीन कर दुगा " अन्यथा अपने पापी शरीर को पंतग-सा लपटों में झेोक दुगा ।इस उद्देश्यों की पूर्ति के लिये वह एक विशाल सेना लेकर चल पड़ा । मार्ग में उसे प्राग्ज्योतिष (असम) के राजा भास्करवर्मन का दूत मिला , इसने अपने राजा की ओर से हर्ष के साथ अस्थायी मैत्री संधि का प्रस्ताव रखा ।हर्ष ने सहर्ष उस प्रस्ताव की स्वीकार कर लिया ।
मार्ग में ही हर्ष को अपने सेनापति भंडी से सुचना मिली की राजश्री विन्ध्य के वनो में भटक रही है । यह सुनकर हर्ष ने भंडी को तो शशांक से युद्ध करने भेजा ओर स्वंय राजश्री को ढूढ़ने के लिये वनो की ओर चल पड़ा ।आपत्तियों से तंग आकर जब राजयश्री चितारोहण की तैयारी कर रही थी ,तभी हर्ष ने पहुंचकर उसकी जान बचाली ।वह राजश्री को लेकर कन्नौज की तरफ रवाना हो गया ।उधर हर्ष के भय से शशांक ने कनौज छोड़ दिया था क्योकि गृहवर्मन के कोई संतान नही थे अतः मंत्रियो ओर जनता के अनुरोध पर हर्ष ने कन्नौज का सिंहसान भी स्वीकार कर लिया ।इस प्रकार वह थानेश्वर और कन्नौज दोनों ही का शासक बन गया ,उसने कान्यकुब्ज को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करने लगा ।
थानेश्वर और कनौज दोनों का शासक हो जाने से हर्ष की सैनिक और राजनितिक शक्ति में भारी वृद्धि हो गई ।उसके पास एक विशाल सेना थी जिनकी सहायक से उसने दग्विजय कर अपने साम्राज्य विस्तार और भारत की राजनितिक एकता की पुनस्थपिपना का निश्चय कर लिया ।हर्ष ने कई प्रदेशो पर विजय की मोहर लगाई जैसे ---------
१>शशांक पर विजय
२>पंचप्रदेश पर विजय :- पंजाब ,कान्यकुब्ज ,गोर, मिथला और उड़ीसा आदि ।
३>वल्लभी (आधुनिक गुजरात ) विजय
४>सिंध विजय
५>नेपाल एंव कश्मीर विजय
हर्ष ने संभवतः इन संघर्षो के वाद कई वर्षो के लिए युद्ध एंव विजय अभियान बंद कर दिय और अपने सम्राज्य का संगठन किया । हर्ष ने संभवतः ६३१ से ६४१ ई के मध्य मगध को जीतकर अपने में मिला लिया ।इसके बाद ही उसनें बंगाल ,उड़ीसा और कांगोद को जीता ।मगध का स्वामी बन जाने के बाद लगभग ६४१ई. के आस-पास हर्ष ने मगधराज की पदवी धारण की । हर्ष ने जो दिग्विजय की उसने फलस्वरूप वह सम्पूर्ण उत्तर भारत का स्वामी बन गया ।
गुप्त सम्राटो राजनितिक कौशल प्रदर्शित करते हुए हर्ष वर्धन ने भी हेनसांग के माध्यम से चीन के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित   
किये ।संभवतः ६४१ ई के आस -पास चीन के सम्राट ताइट्सनुग के पास उसने एक ब्राह्मण राजदूत भेजा । प्रत्युत्तर में चीन से भी एक राजदूत आया ।हर्ष ने और भी दूर-दूर के देशो के साथ राजनितिक संबंध स्थापित किये ।अपने साम्राज्य में भी शक्ति संतुलन को ध्यान में रखते हुए हर्ष ने कामरूप के भास्कर वर्मा से " चिर-संधि " की और वल्ल्भी से वैवाहिक संबंध स्थापित    किये ।
हर्ष के पूर्वज शिव और सूर्य के भक्त थे ।सम्भवतः हर्ष भी अपने शासन के २५वे वर्ष तक अथवा लगभग ६३१ ई तक परम महेश्वर था,लेकिन बाद में हेनसांग तथा अपनी बहन राजयश्री के सम्पर्क से प्रभावित होकर वह बौद्ध धर्म की ओरक्षुकता चला गया । ऐसे प्रमाण मिले है की वह बुद्ध के साथ - साथ आदित्य और शिव की भी पूजा करता था । बौद्ध और ब्राह्मणो को उसने समान रुप से दान दिया था ।
६४७ अथवा ६४८ ई में हर्ष की मृत्यु हो गई ।वह निःसंदेश भारत के महान सम्राटो में से एक था जिसने युद्धकला और शासन व्यवस्था में समान रूप से ख्याति अर्जित की केवल अपने गुणों पर ही उसने थानेश्वर जैसे छोटे से राज्य को एक विशाल सम्राज्य में परिणत कर दिखाया ।
               हर्षवधर्न उत्तर भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट था ।



                             दक्षिणापथ के प्रमुख राजवंश

चालुक्य वंश :-
         दक्षिण में चालुक्य वंश की राजसत्ता की नींव डालने वाला "जयसिंह" था ।वह एक पराक्रमी राजा था जिसने राष्ट्रकूटों और कदम्बो से युद्ध किया तथा अपने लिए छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया ।कुछ समय बाद चालुक्य राजाओ की तीन शाखाये हो गई ---------------
१>वातापि (बादमी, बीजापुर जिला ,हैदराबाद)
२>वेंगी
३>कल्याणी

१>वातापि :-
             वातापि अथवा बादामी चालुक्य वंश का पहला महान राजा "पुलकेशिन" प्रथम था ।उसने लगभग ५३५ ई से ५६६ ई तक राज्य किया ।उसने पल्ल्वो को पराजित करके अपने राज्य का विस्तार किया और वातापि (आधुनिक बादामी) को अपनी राजधानी बनाया ।
इस वंश का दुसरा प्रसिद्ध राजा "पुलकेशिन" प्रथम का पुत्र "कीर्तिवर्मन" प्रथम था ।जिसने लगभग ५६७ई से ५९७ई तक राज्य किया ।उसने उत्तरी कोंकण के मौर्य बनवासी के कदम्बो तथा नल जाती के शासको को हराकर अपने पिता के छोड़े हुए राज्य का विस्तार किया ।
कीर्तिमान के बाद उसके भाई "मंगलेश" ने कुछ समय तक राज्य किया ।उसने कलचुरियों को पराजित किया तथा रेवती द्वीप (रत्नागिरी जिले में ) को जीता ।उसके द्वारा वातापि में एक सुंदर विष्णु मंदिर का भी निर्माण कराया गया ।
इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा "पुलकेशिन द्वितीय" था ।जिसने ६१०-११ ई से ६४२ ई तक राज्य किया ।इस प्रतापी राजा का समस्त जीवन युद्ध में बिता । पड़ोस के अनेक राजवंशो को परास्त करके उसने समस्त दक्षिण में अपनी सत्ता स्थापित की । उसने 
उत्तर भारत के सम्राट हर्ष को युद्ध में पराजित किया ।उड़ीसा और मद्रास उत्तरी भारत को उसने जीत लिया ।उसने कर्नाटक को भी विजय कर लिया ।पल्ल्व राजा महेंद्रवर्मन् उसके हाथो परास्त हुआ । मैसूर के शक्तिशाली गंगवंश को भी उसने हराया ।६४२ई में पुलकेशिन द्वितीय और पल्ल्व राजा नरसिंहवर्मन के बीच युद्ध हुआ जिसमे पुलकेशिन द्वितीय मारा गया । इस महान विजेता की मृत्यु ने चालुक्यों की शक्ति को असहन धक्का पहुंचाया ।इसके बाद वातापि के चालुक्यों की शक्ति घटती ही चली
 गई ।
पुलकेशिन द्वितीय के पुत्र "विक्रमादित्य प्रथम" ने पल्ल्वो को परास्त करके और उन्हें अपने राज्य से भगाकर अपने पूवजो के सम्पूर्ण राज्य पर अधिकार कर लिया ।लेकिन पल्ल्वो ने अन्त में फिर बदला लिया विक्रमादित्य को हराया और राजधानी वातापि 
को लूटा ।
विक्रमादित्य का उत्तरादिकारी "विन्यादित्य"(६८१-696)ई हुआ ।उसने पल्ल्वो, केरलो,चोलो तथा पाण्डय्ो को परास्त किया और उत्तर में मालवो तथा हैहयों को भी पराजित किया ।
विन्यादित्य के बाद विजयादित्य (६९६-७३३ई ) राजगद्दी पर बैठा ।इसने भी पल्ल्वो को हराकर उनसे कर वसूल किया ।
उसके पुत्र "विक्रमादित्य द्वितीय" के समय भी पल्ल्वो से संघर्ष चलता रहा ।विक्रमादित्य द्वितीय के हाथो भी पल्ल्वो ,चोलो ,केरलो ,पाण्डय्ो आदि को मात खानी परी ।परन्तु इन सब राजाओ के पास अपने पूर्वज पुलकेशिन द्वितीय जैसी प्रतिभा और शक्ति नही थी अतः वातापि के चालूकयो की शक्ति निरंतर क्षीण होती गई ।
       इसके अंतिम राजा "कीर्तिविरमन द्वतीय" (विक्रमादित्य द्वितीय का पुत्र) को राष्ट्रकूट वंश के सरदार दन्तिदुर्ग ने परजीत किया ।दन्तिदुर्ग ने चालुक्यों के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया ।इस प्रकार ८ वीं शताब्दी के मध्य में चालुक्य वंश समाप्त हो गया ।

२>वेंगी :-
       पुलकेशिन द्वितीय ने पूर्वी समुद्रतट के राज्यों को जीत लिया था जिनमे पिष्ठापुर तथा वेंगी सम्मिलित थे । अपने राज्य की विस्तृत सीमाओ को देखते हुए उसने अपने भाई कुब्ज "विष्णुवर्द्धन" को इस प्रदेश का शासक नियुक्त किया था ।पर विष्णुवर्द्धन ने वहाँ शीघ्र ही अपने को स्वतंत्र कर लिया और एक नए राजवंश की नीव डाली ।चुकी विष्णुवर्द्धन की राजधानी वेंगी थी ,अतः उसका वंश के चालुक्यों के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
                  इस वंश में विष्णुवर्द्धन के बाद कोई प्रतापी राजा नही हुआ ।लगभग ७६९-७० ई में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम ने जबरदस्त आक्रमण करके वेंगी के राजा को अपनी अधीनता स्वीकार करके के लिए बाध्य किया इस तरह पूर्वी चालुक्यों और राष्ट्रकूटों में जो संघर्ष के दौर छिड़ गए वे दीर्घकाल तक चलते रहे ।

३>कल्याणी :-
           चालुक्य वंश की तीसरी शाखा की राजधानी कल्याणी थी ,अतः यह वंश कल्याणी के चालुक्य वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।राष्ट्रकूटों की सत्ता का उन्मूलन करके "तैलप" ने फिर से चालुक्य वंश की शक्ति की स्थापना की ।वह अपने आपको वातापि (बादामी) के चालुक्यों का वंशज मानता था ।
          कल्याणी के चालुक्य वंश में तैलप शक्तिशाली राजा हुआ ।उसने गद्दी पर बैठने के बाद आहवमल्ल और भुवनैकमल्ल की उपाधियाँ धारण की ।उसने उत्तरी गंगा राज्य के शासक पाँचालदेव को हराकर उसका राज्य छीन लिया ।चोल नरेश उत्तम भी उसके हाथो पराजित हुआ ।दक्षिणी कोंकण के शिलाहारो और देवगिरि के यादवो ने भी उसकी अधीनता स्वीकार की ।दक्षिण में अपने पैर जमा कर उसने गुजरात के चालुक्यों , मालवा के परमारों और चेदि के कालाचुरियो से युद्ध किया ।तैलप का सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष मालवा के नरेश गूंज परमारों और चेदि के कालाचुरियो से युद्ध किया ।तैलप ने मालवा पर छःबार आक्रमण किए पर हर बार उसे पराजित होकर लौटना परा ।अंत में उसके आक्रमणों से मुक्ति पाने के लिए मुज ने स्वय एक विशाल सेना लेकर उस पर हमला कर दिया । इस बार तैलप ने मुंज को हराकर कैद कर लिया तथा उसके राज्य के दक्षिण भाग पर अधिकार कर लिया ।भागने का प्रयत्न करने पर उसने मुज का वध करवा दिया । २४ वर्ष के शासन के बाद ९९७ई में तैलप की मृत्यु हो गई ।
तैलप के बाद उसका पुत्र "सत्याश्रय" गद्दी पर बैठा ।उसके समय मालवा नरेश सिन्धुराज ने तैलप द्वारा विजित राज्य वापस ले लिया । सत्याश्रय को कालाचुरियो के हाथो हार खानी पड़ी किन्तु उत्तरी कोंकण के शिलाहारो को उसने परास्त किया ।गुजरात पर हमला करके मूलराज के पुत्र चामुंडराज को भी उसने हराया ।सत्याश्रय को राजराज चोल महान के भयंकर आक्रमण का सामना करना परा ।चोल नरेश ने विशाल सेना के साथ चालुक्य राज्य को रौंद डाला और उसके अनेक भागो पर अधिकार कर लिया ,लेकिन अंत में उसे हराकर पीछे लौटना परा ।सत्याश्रय ने अपने खोये हुए प्रदेशो को पुनः जीत लिया ।
                       सत्याश्रय के बाद क्रमशःतीन लरके सिंहासन बैठे जिनमे "जयसिंह द्वितीय" अधिक प्रसिद्ध हुआ ।वह कालाचुरियो परमारों और चोलो के आक्रमण से अपने राज्य की रक्षा करने में सफल हुआ ।
जयसिंह द्वतीय उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम का लगभग समपर्ण शासनकाल परोसी राजाओ से युद्ध करने में बिता ।चोल नरेश ने उसे हराकर राजधनी कल्याणी को लूटा और जला दिया ।सोमेश्वर प्रथम ने किसी असाध्य रोग से तंग आकर तुंगभरदा नदी में प्रवेश करके प्राण त्याग दिए ।सोमेंश्वर प्रथम के बाद १०६८ ई.में उसका पुत्र सोमेश्वर द्वितीय राजा बना ।उसके समय में कोई उल्लेखनीय घटना नही हुई ।
कुछ वर्ष बाद सोमेश्वर द्वितीय का अनुज "विम्रकादित्य षष्ठ" ने गद्दी छीन ली ।विक्रमादित्य षष्ठ इस वंश का महानतम शासक हुआ जिसने लगभग ५९ वर्ष (१०७६-११२६ ई.)तक राज्य किया ।गद्दी पर बैठते ही उसने एक नया संवत चलाया जिसे चालुक्य विक्रमा संवत कहते है।इस लम्बे शासनकाल में उसने सठोरता से दमन किया ।१११८ ई. के लगभग उसने वेंगी को गीतकार अपने राज्य में मिला लिया  ।उसके प्रसिद्ध दरबारी कवि ने "विक्र्मांक चरित" लिखकर अपने आश्रयदाता को अमर कर दिया ।उसके दरबार के अन्य विव्दान विझणेश्वर ने "याघवल्क्यं स्मृति" पर मिताक्षरा नामक विख्यात भाष्य लिखा ।यह भाष्य हिन्दू उत्तरधिकारी कानून का आधार बना ।विक्रमादित्य षष्ठ के समय भी चोलो से युद्ध हुआ ।१०८५ ई. में उसने कांची को लूटा ।उसने विक्रमपुर नामक एक नगर बंसाया और एक विशाल मंदिर का भी निर्माण कराया ।११२६ ई. में इस महान राजा की मृत्यु हो गई ।विक्रमादित्य के बाद "सोमेश्वर तृतीय " मगदेकमल्ल तैलप तृतीय " आदि कई राजा हुए ।इन राजाओ के समय मव भी परोसी राज्यों से निरंतर संघर्ष चलते रहें ।

राष्ट्रकूट वंश :-------

राष्ट्रकूट वंश की शक्ति की नीव डालने वाले "दन्तिदुर्ग" नामक सामंत था ।उसने अपने स्वामी चलुक्य राजा कितिवर्मन को परास्त करके दक्षिण के बड़े भाग पर अधिकार जमा लिया । भड़ौच के पास गुर्जर राज्य को भी उसने जीत लिया और प्रतिहारों से मालवा छीन लिया ।कहा जाता है की दन्तिदुर्ग ने काची के पल्ल्वो को भी परास्त किया ।
  दन्तिदुर्ग के बाद उसका चाचा "कृष्ण" गद्दी पर बैठा जिसकी ज्ञात तिथि ७५८ ई. है ।कृष्ण ने चालुक्यों की सत्ता को पूर्णतः नष्ट कर दिया ।उसने मैसूर के गंग तथा वेंगी के पूर्वी चालुक्य को भी पराजित किया ।लगभग ७७३ई. में इस यशस्ति राजा की मृत्यु हो गई ।कृष्ण की विजयो से राष्ट्रकूट साम्राज्य काफी विस्तृत हो गया ।कृष्ण एक विजेता के रूप में ही नही बल्कि महान भवन निर्माता कैलाश मंदिर बनवाया गया ।
कृष्ण प्रथम की मृत्यु के बाद लगभग ७७३ ई. में उसका पुत्र "गोविन्द"  राजा बना ।प्रारम्भ में कुछ सक्रिय रहने के बाद वह विलासी और लंपट बन गया ।उसने शासन का कार्य अपने अनुज "ध्रुव" पर छोर दिया ।ध्रुब ने विद्रोह करके लगभग ७८० ई. में गद्दी पर कब्जा कर लिया ।
"ध्रुव" राष्ट्रकूट वंश का शक्तिशाली राजा हुआ ।उसने मैसूर, वेंगी,कन्नौज ,और बंगाल के राजाओ को परास्त किया ।दक्षिण में अपनी प्रभुता स्थापित करके उसने उत्तर भारत की ओर मुख मोड़ा।वह अवन्ति के वतसराज और बंगाल के धर्मपाल के बीच कन्नौज प्रभुता के लिए संघर्ष चल रहा था ।ऐसे समय ध्रुव ने आक्रमण करके वतसराज को इतनी बुरी तरह हराया की वह राजस्थान के मरुप्रदेश से भाग गया ।इसके बाद ध्रुव ने पाल नरेश को पराजित किया ।यधपि उत्तरी भारत पर ध्रव की विजयो का कोई स्थायी प्रभाव नही पड़ा,तथापि सम्पूर्ण भारत में उसकी शक्ति की धाक जम गई ।
राष्ट्रकूट वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा "गोविन्द तृतीय" हुआ जो ध्रुव का पुत्र था ।उसने लगभग ७९३ ई. से ८१४ ई. तक राज्य किया ।मैसूर और पल्लव राजा को परास्त करके सारे दक्षिण भारत को उसने जीत लिया ।गोविन्द के भाई ने १२ सामंत राजाओ की सहायता उसके विरुद्ध विद्रोह किया ,पर गोविन्द ने उसे पराजित करके बंदी बना लिया ।भी के पश्चात्ताप करने पर गोविन्द न केवल उसे छोड़ ही दिया वरन गंगा राज्य में राज्य -प्रतिनिधि बनाकर भेज दिया ,पर उसने पुनः विद्रोह किया और उसे फिर हराकर बंदी बनाना पड़ा ।दक्षिण भारत को विजय करने के बाद गोविन्द तृतीय उत्तर की तरफ बढ़ा ।गोविन्द तृतीय का राज्य कन्नौज ,बनारस और भड़ौच से लेकर निचे के सारे दक्षिण में फैल गया ।
दक्षिण भारत में गोविन्द की अनुपस्ति का लाभ उठाकर चोल ,केरल ,पाण्ड्य ,काची और गंगवारी के राजाओ ने उनके विरुद्ध संघ बनाया ।लेकिन गोविन्द ने उनकी सयुक्त शक्ति को धूल चटा दिया ।गोविन्द की इन विजयो से दरकार लंका के राजा ने उपहार भेजकर उसे प्रसन्न करने का प्रयास किया ।इस महान सम्राट की मृत्यु के बाद धीरे-धीरे राष्ट्रकूट वंश की शक्ति घटने लगी ।
गोविन्द तृतीय के बाद ८१४ ई.में उसका पुत्र "अमोघवर्ष" राजा बना जिसने ८७८ई. तक शासन किया ।उसके समय में चालुक्यों ने विद्रोह किया ,किन्तु उन्हें परास्त होना पड़ा ।अमोघवर्ष के समय में मैसूर राष्ट्रकूटों के हाथ से निकल गया ।उसका गंगो से भी वर्षो तक संघर्ष चलता रहा ,पर अंत में उसने गंगा नरेश से अपनी पुत्री का विवाह करके संघर्ष समाप्त किया ।अमोघवर्ष ने मान्यखेत नामक नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया ।इस मान्यखेत को ही आजकल मालखेर कहते है जो शोलापुर से लगभग ९० मिल दक्षिण-पूर्व में है ।लगभग ६४ वर्ष तक राज्य करने बाद अमोघवर्ष की मृत्यु हो गई ।यधपि वह एक बहुत बड़ा योद्धा नही था,तथापि उसने राष्ट्रकूट सामाज्य को संकटो से बहुत उबारा ।
अमोघवर्ष के बाद ८७८ई. में उसका पुत्र "कृष्ण द्वितीय" राजा हुआ जिसके समय वेंगी के चालुक्यों से निरंतर युद्ध चलता रहा ।चालुक्यों को प्रारम्भिक संघर्षो में हराने बाद उसने बाजी मार ली ।उसका चोलो से भी युद्ध हुआ किन्तु उसने हार हुई ।९१४ई. में कृष्ण की मृत्यु हो गई ।
कृष्ण तृतीय उत्तराधिकारी "इंद्र तृतीय" ने भी साहस और कुशलता का परिचय दिया ।उसने प्रतिहार राजा महिपाल को परास्त किया तथा कन्नौज को लूटा ।पूर्व चालुक्य नरेश विजयादित्य पंचम भी उसके हाथो मार गया ।९२२ ई. में उसकी अकाल मृत्यु के उपरान्त राष्ट्रकूट वंश का परामव नजदीक आ गया ।उसके बाद की राजा हुए जिनके राजयकाल में युद्ध चलते रहे ।
"कृष्ण तृतीय" इस वंश का अंतिम महान शासक हुआ जो ९३९ ई.में गद्दी पर बैठा ।उसने कांची और तंजोर पर अधिकार कर लिया ।कहा जाता है की कृष्ण तृतीय ने रामेश्वरम तक विजयपताका फहराई और एक विजय स्तम्भ खड़ा किया ।उत्तर में उसने उज्जैन को जीता और बुंदेलखंड तक घावे मारे ।कृष्ण तृतीय को उत्तर में चाहे विशेष सफलता न मिली हो ,पर सम्पूर्ण दक्षिण भारत में उसने अपनी निश्चित रूप से प्रभुता स्थापित कर दी ।
कृष्ण तृतीय के बाद ९६७ई. उसका अनुज खोट्टिग राजा बना ।परमार नरेश सीयक से उसका भीषण युद्ध हुआ  ।विजयी सिंयक ने ९७२ई. में राष्ट्रकूटों की राजधानी को दिल खोलकर लूटा  ।इस अपमान से अघात से खोट्टिक की शीघ्र ही मृत्यु हो गई ।
तत्प्श्चात उसका भतीजा "कई द्वतीय" राजा बना ,किन्तु वह पतनोन्मुख राष्ट्रकूट साम्राज्य को बचा न सका।९७३ ई में उसके एक सामंत तैलप ने ,जो चलुक्य वंश का था ;हराकर दक्षिणापथ पर कब्जा कर लिया ।

चोल राजवंश :-----------

सुदूर दक्षिण में जो भी राजवंश थे ,उनमे चोल वंश सबसे अधिक प्राचीन व प्रसिद्ध था ।ये लोग  दक्षिण भारत की एक अत्यंत प्राचीन व प्रसिद्ध था। ये लोग दक्षिण भारत की एक अत्यंत जाती के थे ।ई. पु.चौथी शताब्दी के लगभग कात्यायन ने चोलो का उल्लेख किया है ।अशोक के शिलालेख में पांड्यों सतीय पुत्रो और केरल पुत्रो के साथ चोलो के स्वतंत्र राज्य का उल्लेख मिलता है ।मौर्य साम्राज्य के बाद ईसा की तीसरी शताब्दी तक संगम युग के तमिल साहित्य तथा रोमन लेखक प्लिनी व पेरिप्लस के लेखो में इसका उल्लेख मिलता है ।मौर्य साम्राज्य के बाद ईसा की तीसरी शताब्दी तक संगम युग के तमिल साहित्य तथा रोमन लेखक प्लिनी व पेरिप्लस के लेखो में इसका उल्लेख मिलता है ।कारोमंडल के तट पर उसका छोटा-सा राज्य सदियों तक चलता रहा । दूसरी शताब्दी में "करिकाल" नाम के राजा के समय में पहली बार चोल शक्ति प्रकार में आई ।करिकाल लंका के राजा गजबाहु प्रथम के समकालीन था ।उसने पांड्यो तथा केरल की संयुक्त शक्ति को क्षीण किया तथा केरल के राजा को अपने पुत्री का उसके साथ विवाह करने को विवश किया ।
उसने श्रीलंका पर भी आक्रमण किया तथा वहाँ से १२०० लोगो को बंदी बनाकर लाया ।उसने अपनी राजधानी बसाई और उसका नाम " कावेरी-पट्ट्म" रखा ।
उसके बाद उसके पौत्र "नेदुमुदी किल्ली" को भारी कठनाइयो का सामना करना पड़ा ।समुद्री डाकुओ द्वारा उसकी राजधानी ध्वस्त कर दी गई तथा परोसी राजाओ के आक्रमणों से भी चोलो की शक्ति कमजोर हो गई ।न वी शताब्दी से पूर्व तक उनके भाग्य में उतार -चढ़ाव आते रहे  ।जब न वी शताब्दी में पल्लव शासको की शक्ति क्षीण हुई तो चोलो ने अनुकूल अवसर पाकर राज्य स्थापित कर लिया ।
चोल वंश का पहला प्रसिद्ध शासक "विजयालय" हुआ ,जो ८५० ई. से पूर्व पल्लव राज्य का सामंत था ।इस पराक्रमी युवक ने पल्लव शासक की अधीनता त्याग कर अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया और तंजौर पर अपना अधिकार जमा लिया ।इस प्रकार इस चोल राजकुमार ने अपने वंश के वैभव की नींव डाली । विजयालय ने तंजौर में दुर्गमाता का मंदिर बनवाया ।विजयालय का शासनकाल ८५० ई. से ८७० ई.तक रहा ।विजयालय द्वारा चोल शक्ति की स्थापना से लेकर १३वि शताव्दी के अंत तक चोल वंश दक्षिण भारत के इतिहास का केंद्रबिंदु बना रहा ।
बिजयालय के बाद ८७१ ई. में उसका पुत्र "आदित्य प्रथम" गद्दी पर बैठा ।उसने अंतिम पल्लव नरेश अपराजिवर्मन को हराकर तोण्डमण्डलम् पर अधिकार कर लिया ।तत्प्श्चात उसने पांड्यो से कोयंबटूर तथा रोलम के जिले घिन लिए ।८८३ई. में कांची पर अधिकार कर लिया ।पश्चिमी गंगो में तळकोंड भी उसने जीत लिया तथा कोंगु प्रदेश को भी जीता ।उसने राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वतीय की पुत्री के साथ विवाह किया ।चेरो के साथ उसके मैत्री संमबन्ध थे  ।इस प्रकार आदित्य प्रथम ने चोल राज्य की नीव सुदृढ़ की ।अपने पिता की भाति वह भी पक्का शैव था और उसने अनेक मंदिर बनवाए ।गंगवंशी शासक पृथ्वीपति द्वितीय ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली ।स्थाणुरवी ने अपनी पुत्री का विवाह आदित्य प्रथम के पुत्र प्रांतक से कर दिया ।चोलो का राज्य कलहरित से लेकर पुडुकोट्ट व कोयंबटूर तक फैल गया ।
आदित्य प्रथम के बाद उसका पुत्र "परान्तक" चोल लगभग ९०७ ई. में सिंहासनारूढ़ हुआ उसने पांड्यो को पूरी तरह परास्त करके उनके राज्य पर अधिकार कर लिया । ने गंगा नरेश पृथ्वीपति द्वितीय की सहायता से  बाणो और वैदुम्ब्को  पर भी विजय प्राप्त की ।पल्लवों की बची-खुची शक्ति को भी नष्ट करके उत्तर में नैल्लोर तक का प्रदेश उनसे जीत लिया ।अपनी इन विजयो से उसने चोल राज्य का काफी विस्तार किया ।लेकिन जीवन के अंतिम वर्ष उसके लिए दुःखदायी साबित हुए ।लगभग ९३४ई. में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के हाथो उसे मात खानी पड़ी और तोण्डमण्डल उसके हाथ से निकल गया ।इसके बाद ९४९ई.में राष्ट्रकूटों और चोलो में भंयकर युद्ध हुआ जिसमे चोल पुनः बुरी तरह पराजित हुए तथा चोल युवराज 'राजदित्य' मारा गया ।राष्ट्रकूटों द्वारा दो बार पूरी तरह पराजित होने से चोलो की उदीयमान शक्ति को भारी धक्का लगा ।परान्तक की ९५३ ई. में मृत्यु हुई ।उसके उत्तराधिकारी अयोग्य निकले ।छोले की शक्ति बहुत सिमित रह गई और लगभग ३२ वर्षो तक कोई उल्लेखनीय घटना नही हुई ।
                                                                 
राजराज -----------------
लगभग ९८५ई.में चोलो का सितारा फिर चमका ।उत्तम चोल का पुत्र राजराज ९८५ ई.में चोल गद्दी पर बैठा ।वह इस वंश का प्रसिद्ध राजा हुआ और वह लगभग १०१४ ई.तक राज्य किया ।अपनी विपयो द्वारा उसने छोटे से चोल राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया ।
उसने  पश्चमी गंग राज को पराजित करके उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया ।वेगि के पूर्वी चालुक्य राजा ,मदुरा के पाण्ड्य राजा और मलाबार तट के सरदारो को हराकर और लंका के कुछ भाग की जीत लिया ।एक शक्तिशाली जहाजी बेरा बनाकर उसने समुद्रतट पर अपना अधिकार कर लिया ।उसने केरल के शासक को हराकर उसके जहाजो को त्रिविन्द्रम के निकट कांदलुरशालय के समय पर नष्ट किया और किलो पर भी आक्रमण किया ।उसने कुड्मली (कुर्ग) में उदय पर भी अधिकार कर लिया ।इससे उसकी शक्ति पाण्ड्य और केरल शासको के विरुद्ध प्रबल हो गई ।लक्षदीव और मालदीव पर उसने अपनी विजयपताका फहराई और पूर्वी द्वीपसमूहो पर आक्रमण किया ।उसने वेगि को जीतकर अपने पक्ष के शक्तिवर्मा को वहाँ का राजा बनाया ।उसके साथ घनिष्ठ मैत्री करने के लिए उसने अपनी पुत्री कुनवी का विवाह शक्तिवर्मा के छोटे भाई विमलादित्य से किया ।इस प्रकार उसके राजयकाल में चोल राज्य में समस्त सुदूर दक्षिण सम्मिलित था ।अपनी विजयो के फलस्वरूप राजराज ने दक्षिण भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो उत्तर में कृष्ण नदी तथा उत्तर -पश्चिम में तुगभरदा नदी से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैला हुआ था ।उत्तरी लंका तथा अरबसागर और बंगाल की खाड़ी के कई द्वीप भी उसके साम्राज्य में शामिल थे ।अपनी विजयो के फलस्वरूप राजराज प्रथम सम्पूर्ण वर्तमान मद्रास प्रान्त ,दुर्ग ,मैसूर और सिंहल के अनेक द्विपी का स्वामी बन गया ।साम्राज्य की तंजौर थी ।
राजराज प्रथम केवल वीर विजेता ही नही था अपितु एक सुयोग्य शासक भी था ।उसने अपने विभिन्न शासन संबंधी कार्यो द्वारा अपने साम्राज्य की नीव सुदृढ़ कर दी ।भूमिकर निश्चित करने के उदेश्य से भूमि की ठीक-ठाक पैमाइश कर वाड्रो तथा कर दी दर निश्चित की ।
         राजराज ने तंजौर में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया जो राजराजेश्वर का मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है ।इसका अहाता ७५० फुट लम्बा और २५० फुट चौरा है ।मंदिर की मीनार जिसकी उचाई लगभग २०० फुट है लगभग १०० फुट चौरस जमीन पर बनी है ।राजराज स्वयं शिव का परम भक्त था ,तथापि एक महान शासक के रूप में धर्म के मामलो में सहिष्णु था ।उसने अपने राज्य में वैष्णव सम्प्रदाय को फलने फूलने का अवसर दिया ।उसके शिलालेखो के ज्ञात होता है की उसने विष्णु के कई  मंदिरो का निर्माण करवाया और उन्हें दान दिया ।उसने मलय प्रायद्वीय में और जावा के शैलेन्द्र शासक मारविजयोतु मगर्मन को नेगापट्ट्म में बौद्ध बिहार बनाने की केवल आज्ञा ही नही दी अपितु उसकी सहायता भी की  ।इस बौद्ध बिहार को उसने एक गांव दान में दिया ।
राजराज प्रथम निःसंदेह चोलवंश का महान शासक था । १०१४ ई. में राजराज का मृत्यु हो गई।

राजेन्द्र :----------------
राजराज प्रथम ने १०१२ ई.में ही अपने पुत्र राजेन्द्र को युवराज तथा अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया । उस समय से ही राजेन्द्र ने शासन प्रबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी,लेकिन पिता की मृत्यु के बाद १०१४ ई. में उसका राज्याभिषेक हुआ ।राजेन्द्र भी अपनी पिता की भाति महान विजेता था ।राजेन्द्र ने चोल साम्राज्य का विस्तार किया और उसे उन्नति के चरम शिखर पर पंहुचा दिया ।उसने अपने राजकाल के प्रारम्भ में ही राजाधिराज  को युवराज बनाया ।उसने लंका विजय का कार्य को पूरा किया ।लंका ,पाण्ड्या और चेर को चोल साम्राज्य का प्रान्त बना लिया ।चालुक्यों को भी उसने कई युद्धों में हराया परन्तु उसे स्थायी सफलता नही मिली। उसने पश्चिमी और दक्षिणी बंगाल के राजाओ को हराया ।पर उसने उत्तर के किसी राज्य को अपने राज्य का अंग नही बनाया ।इस समय पूर्वी द्वीपसमूह के साथ भारत का व्यापार अरबो के हाथ में था ।चोल राजा अरबो पर प्रत्यक्ष आक्रमण न कर सके किन्तु उन्होंने पहले लंका  पर आक्रमण करके उसे हानि पहुचाई ।सम्भवतः वह भारत के चीन के साथ समुद्री व्यापार की रक्षा चाहता था ।इस समय मलय प्रायद्वीप ,जावा ,सुमात्रा और कई अन्य द्वीपों पर शैलेंद्र राजाओ का अधिपत्य था ।उसका झंडा गंगा के किनारे से लेकर लंका तक ,बंगाल की खाड़ी के पास से जावा ,सुमात्रा और मलाया तक लहराने लगा ।उसने कलीग के गंगो को हराया और वहाँ से पवित्र गंगाजल अपने साथ लाया ।इस जल को उसने इसी उदेश्य से निर्मित कर तड़ाग में डलवाया और उसे चोलागंगम नाम दिया ।कहा जाता है की यह जल यहाँ तक पराजित राजाओ के सिर पर लाया गया था ।अपने महान विजयो के उपलक्ष में राजेन्द्र चोल ने 'गंगाईकोडा' (गंगोकणड) तथा कीदारकोडा की उपाधिया धारण की तथा गंगाईकोंड चोलपुरम नामक नगर बसाया ।सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में वही ऐसा एकमात्र शासक था ,जिसने अपनी नौ-सेना का प्रयोग किया ।
उसने अपने पिता द्वारा स्थापित शासन -व्यवस्था को जारी रखा और साथ ही कई सुधार भी किए। उसने नई राजधानी बनाई जिसका नाम गंगाईकोण्डा-------चोलपुरम रखा ।उसने प्रजा के कल्याण पर और विशेष रूप से किसानो के हित पर ध्यान दिया ।सिंचाई के लिए नई राजधानी में लगभग १६ मिल लम्बे सुंदर तलाब का निर्माण करवाया ।
राजेन्द्र चोल भी अपने पीछे योग्य उत्तराधिकारी छोड़ जाना चाहता था अतः उसने अपने पुत्रो को शासन प्रबंध में भाग लेने तथा व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने ंका अवसर प्रदान किया ।उसने मदुरा तथा केरल के विजित प्रदेशो में "सुन्दरचलपाण्डय" को युवराज नियुक्त किया  ।१०१८ ई. में उसने अपने सबसे  योग्य पुत्र राजाधिराज को युवराज बनाया और तभी से युवराज नए प्रदेशो को जितने और शासन प्रबंध तभी से युवराज नए प्रदेशो को जितने और शासन प्रबंध में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगा ।पुत्रो के इस सहयोग से राजेन्द्र चोल की शक्ति में वृद्धि हुई ,साथ ही राजकुमारों की शक्ति का सही उपयोग होने लगा और वे संतुष्ट रहने लगे ।राजमहल में षडयंत्रो और क्रांतियों की संभावना कम हो गई तथा बढ़ते हुए साम्राज्य के शासन प्रबंध को नई दिशा मिली ।उसने सेना को सुसंगठित किया और जहाजो का सक्तिशाली बेड़ा स्थापित किया ।वह जानता था की समुद्री व्यापार राज्य की समृद्धि का प्रतीक है ,अतः उसने व्यापार राज्य की समृद्धि का प्रतीत है ,अतः उसने व्यापार की विशेष उन्नति पर ध्यान दिया ।
राजेन्द्र चोल ने कला और साहित्य को संरक्षण दिया।नई राजधानी में उसने भव्य राजमहलों ,मंदिरो और तलाबों का निर्माण करवाया ।वैदिक साहित्य की शिक्षा के लिए राजेन्द्र चोल ने एक विशाल विधालय की स्थापना की ।शैव मत का अनुयायी होते हुए भी राजेन्द्र चोल धार्मिक क्षेत्र में सहिष्णु रहा ।उसने लोगो के धार्मिक विश्वासो का आदर किया ।वह गंगा को पवित्र मानता था और उसने नई राजधानी के तालाव को गंगा जल मंगवाकर पवित्र किया ।उसने शिव और विष्णु के अनेक सुंदर मंदिर बनवाये।
                                                                          इन महान विजयो के बाद भी राजेंद्र चोल का समय शांतिपूर्ण नही रहा ।उसके राज्य में विद्रोह उठ खरे हुए जिनका युवराज राजाधिराज ने दमन किया ।इसके अतिरिक्त चालुक्य राजा भी उसे तंग करते रहे यधपि उन्हें लगभग हर बार पराजित होना पड़ा ।३० वर्ष के लम्बे शासक के बाद १०४४ ई.में राजेन्द्र की मृत्यु हो गई ।

राजाधिराज ------------------
राजेन्द्र चोल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजाधिराज सत्तारूढ़ हुआ ।जिसने १०४४ ई. से १०५२ ई. तक शासन किया ।उसने पाण्ड्य ,केरल और श्रीलंका के लोगो के विद्रोहों को दबाया । चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम से भी उसका संघर्ष जारी रहा ।अंत में वह १०५२ई .में चालुक्यों से युद्ध में लरते हुए मारा गया ।
राजाधिराज के बाद "राजेन्द्रदेव" ,"वीर राजेन्द्र" ,"अधिराजेन्द्र" क्रमशः सिंहासन पर बैठे ।उनके राजयकाल में भी पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध चलता रहा जिसमे कमी एक पक्ष प्रबल रहता तो कमी दूसरा पक्ष ।इसी अविधि में आंतरिक विद्रोह के कारण चोल साम्राज्य छिन्न -भिन्न हो गया ।

कुलोत्तुंग --------------
कुलोत्तुंग चोल साम्राज्य का अंतिम महान शासक था ।उसने राज्य को सुव्यवस्थित करने की पूरी चेष्टा की ।उसने पाण्ड्य और चेर विद्रोहों का दमन किया ।दो बार कलीग पर भी उसने आक्रमण किया ,किन्तु अंत में कलिंग नरेश अनन्तवर्मन ने अपना सारा राज्य वापिस ले लिया ।श्रीलंका कुलोत्तुंग के हाथो से निकल गया । दूसरी ओर होयसल सामंतो के विद्रोह भी होने लगे ।फिर भी अनेक सफल-असफल युद्धों और संकटो के बाद भी लगभग १११५ ई. में कुलोत्तुंग के राज्य का विस्तार केवल श्रीलका को छोरकर चोल साम्राज्य के पूविवर्ति विस्तार से कम नही था ।१११८ ई. में कुलोत्तुंग की मृत्यु हो गयी ।
तुलोतंग के शासनकाल का गौरव इसी बात में है की उसने अपने राज्य में शांति स्थापित रखने तथा शासन व्यवस्था को दृढ़ बनाने के लिए विविध उपाय किय ।आन्तिरिक शासक के संबन्ध में उसने ग्राम सभा की स्वायंत्र संस्था को सुदृढ़ बनाया और उसके प्रत्येक विभाग की देखरेख के लिए अफसर नियुक्त किय ।राजराज ने जलाशय,उधान तथा कार्यकारिणी समिति की कुछ अन्य विभागों की स्थापना की थी ,किन्तु खेतो ,म्युनिसिपल विभागों तथा संन्यासियों और ब्राह्मणो की बस्ती के कल्याण के लिए कर्मचारियों की नियुक्ति  कुलोतुग का कार्य था ।उसने सिंचाई व्यवस्था को विकसित करने की ओर पूरा ध्यान दिया ।अनेक व्यापारिक शुल्कों व करो को उसने माफ़ किया जिसमे आंतरिक और बाह्रा दोनों प्रकार के व्यापार प्रोत्साहन प्राप्त हुआ ।करो को माफ़ करने के कारण उसने 'सुगंद्व्रत्त' की उपाधि की ।
                           कुलोतुग के शासनकाल का कुछ धार्मिक और साहित्यिक महत्त्व भी है ।उसने सभी चोल शासको की भाति शैव मत को राज्याश्रय प्रदान किया ।उसने बोद्धो के प्रति भी सहिष्णुता दिखलाई और नागपट्टिनम के बौद्ध चैत्यो को प्रचुर मात्रा में दान दिया ।
कुलोतुग के बाद भी चोल वंश लगभग १५० वर्षो तक अस्तित्व में बना रहा,किन्तु बाद के सभी शासक अयोग्य और निर्बल निकले ।"विक्रम चोल" (११२०-११३५ ई.),"कुलोतुग द्वितीय"(११३५-११५०ई.),"राजराज द्वितीय"(११५०-११७३ई.),"राजाधिराज द्वितीय" तथा "कुलोतुग तृतीय"(११७३-१२१६ ई.) क्रमशः चोल वंश के शासक हुए ।प्रत्येक के शासनकाल में चोल शक्ति शनैः-शनैः क्षीण होती गई।
१३ वीं शताब्दी के अंत तक चोलो की शक्ति बिलकुल क्षीण हो गई ।मारवर्मन कुलशेखर पाण्ड्य ने चोल राज्य को पाण्ड्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया ।

पालवंश
आठवी शताब्दी के मध्य में पालवंश की स्थापना से बंगाल के इतिहास में एक नवीन युग का सूत्रपात होता है । शशांक की मृत्यु (६३० ई.)के पश्चात लगभग एक शताब्दी तक बंगाल में अव्यवस्था एंव अराजकता व्याप्त रही जिससे दुःखी होकर वहाँ की जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया स्वरूप गोपाल नामक एक वीर तथा साहसी व्यक्ति ने पाल वंश की स्थापना कर व्यवस्था स्थापित की ।

गोपाल (७५०-७७०ई.)--------------------
                गोपाल पाल वंश का संस्थापक जिसे अपना शासक बंगाल की जनता ने निर्वाचित किया था ।गोपाल ७५० ई. में शासक बना ।उसका पिता वप्पट तथा पितामह दयित विष्णु था ।
गोपाल ने साम्राज्य विस्तार उसने समुद्रतट तक विजय प्राप्त की । गोपाल ने बंगाल की अराजकता दूर कर सुदृढ़ शासन स्थापित किया ।
राज्य विस्तार के अतिरिक्त गोपाल ने बौद्ध धर्म तथा शिक्षा सुविधाओं के विस्तार का कार्य भी किया ।गोपाल ने ओदन्तपुरी (आधुनिक बिहार शरीफ) के निकट नालंदा -बिहार की स्थापना की ।
गोपाल ने २७ वर्ष तक शासन किया ।७७० ई. में गोपाल की मृत्यु हो गई ।

धर्मपाल (७७०-८१०ई.):-
                 गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल ७७०ई.में सिंहासन पर बैठा ।धर्मपाल ने ४० वर्षो तक शासन किया ।
धर्मपाल ने कन्नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलक्शा रहा । उसने कनूज की गद्दी से इन्द्रायुध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया ।चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की ।
धर्मपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था ।उसने काफी मठ व बौद्ध बिहार बनवाये ।
                                  उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया था ।उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिए थे ।
उल्लेखनीय है की प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एंव राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था ।और ८१० ई. में उनकी मृत्यु हो गई ।

देवपाल (८१०-८५० ई.)---
           धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठ ।इसने अपने पिता के अनुसार विस्ताखादि नीति का अनुसरण किया ।इसी के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था ।
उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई ।उसने पूर्वोत्तर में प्रज्योतिषपुर ,उत्तर में नेपाल ,पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया ।उसके शासनकाल में दक्षिण -पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे ।
उसने जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर नालंदा में एक बिहार की देखरेख के लिए ५ गाँव अनुवाद में दिए ।
देवपाल ने ८५० ई. तक शासन किया था ।
देवपाल के बाद पाल वंश की अवन्ति प्रारम्भ हो गई ।

।>शुर पाल महेन्द्रपाल (८५०-८५४ई)


।>विग्रह पाल (८५४--८५५ ई.)

।>नारायण पाल (८५५--९०८ई.)

।>राज्यों पाल (९०८--९४०ई.)

।>गोपाल -॥ (९४०--९६०ई.)

।>विग्रह पाल---॥ (९६०--९८८ ई.)

।>महिपाल (९८८--१०३८ई.):---११ वी सदी में महिपाल  प्रथम ने ९८८ ई --१०३८ ई. तक शासन किया ।महिपाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है ।उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया ।
          महिपाल के बाद पाल वंशक शासक निर्बल थे जिससे आंतरिक दवेशऔर सामंतो ने विद्रोह उतपन्न कर दिया
।>नाय पाल (१०३८-१०५५ ई.)
।>विग्रह पाल -३ (१०५५--१०७०ई.)
>महिपाल -२ (१०७०-१०७५ई.)
।>शुरपाल-२ (१०७५-१०७७ई.)
।>रामपाल (१०७७ -११३०ई.)
।>कुमारपाल (११३०-११४०ई.)
।>गोपाल -३ (११४०-११४४ई.)
।>मदनपाल (११४४-११६२ई.)
।>गोविन्द पाल (११६२-११७४ई.)
                       इस तरह ११७४ई. के बाद पाल वंश पूरी तरह सफाया हो गया ।और इसके बाद सेन राजवंश ने बंगाल पर १६०वर्ष तक राज किया ।

पल्लव वंश
पल्लव वंश के राजाओ का मूल कहा से हुआ ,इस प्रश्न को लेकर एतिहासिको ने बहुत तर्क- वितर्क किया है।पल्लव लोग पल्हव या पार्थियन थे,जिन्होंने शको के कुछ समय बाद भारत में प्रवेश कर उत्तर-पशिचमी क्षेत्र में अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किये थे ।पल्लव लोग ब्राह्मण थे ,क्योकि वे अपने को द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा का वंशज मानते थे ।इतना निश्चित है ,की पल्लव-राज्य की स्थापना उस समय में हुई ,जबकि सातवाहन-साम्राज्य खंड-खंड हो गया था ।इस वंश द्वारा शासित प्रदेश पहले सात-वाहनो की अधीनता में थे ।यह माना जाता है की ,पल्लव -राज्य का संस्थापक पहले सातवाहनों द्वारा नियुक्त प्रांतीय शासक था,और उसने अपने अधिपति की निर्बलता से लाभ उठाकर अपने को स्वतंत्र कर लिया था ।पल्लव वंश की सत्ता का संस्थापक यह पुरुष सम्भवतः बप्पदेव था ।
शिवस्कंद वर्मन ----
             शिवस्कंद वर्मन ने कांची को अपनी राजधानी बनाया था ।प्राकृत भाषा के ताम्रलेख से पता चलता है की प्रथम पल्लव शासक  सिंह वर्मा था ।
उसे अग्निष्टोम ,वाजयपेय एंव अश्वमेघ आदि यज्ञो का यज्ञकर्ता माना जाता है ।

विष्णुगोप (चौथा शती ई. के मध्य काल)---
                                विष्णुगोप के बाद ईसा की पांचवी एंव छठी शताब्दी में पल्लव वंश का इतिहास अँधेरे में था ।समुद्रगुप्त द्वारा विष्णुगुप्त के पराजित होने के बाद पल्लव राज्य विघटन के कगार पर पहुंच गया था ।

सिंह विष्णु (५७५-६००ई).:---
              सिंह विष्णु के समय में पल्लव इतिहास का नया अद्याय आरम्भ हुआ ।सिंह विष्णु के दरबार में संस्कृत का महान कवि भर्ती रहता था ।
सिंह विष्णु को सिंह विष्णुयोत्तर युग एंव अवनीसिंह भी कहा जाता था ।उन्होंने कलमों ,मालवो ,चोलो ,पांड्यो ,करलो तथा सिंहल के शासको के शासको के साथ युद्ध किया ।उसने चोलो को परास्त कर कावेरी नदी के मुहाने तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया और चोलमण्डल की विजय के बाद ही उसने अवनि सिंह था शिंगविष्णु पेरूमार की उपाधि धारण की ।
                       भारती वैष्णव धर्म का अनुयायी था ।उसके समय में ही मामल्ल्पुम के आदिवराह गुहा मंदिर का निर्माण किया गया ।इस मंदिर में सिंह विष्णु एंव उसकी दो रानियों की प्रतिभा भी स्थापित की गई है ।

महेंद्र वर्मन प्रथम (६००-६३०ई.):----
                     महेंद्र वर्मन सिंह विष्णु का पुत्र एंव उत्तराधिकारी था ।करक्कुड़ी ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है की किसी युद्ध में महेंद्र वर्मन प्रथम ने पुलकेशी को परास्त किया था ।महेंद्र वर्मन प्रथम के समय में पल्लव साम्राज्य न केवल राजनितिक दृष्टि से ,बल्कि सांस्कृतिक ,साहित्यिक एंव कलात्मक दृष्टि से भी अपने चरमोतकर्ष पर था ।उसने 'मत्तविलास' 'विचित्र्चित्' एंव 'गुणभर शत्रुमल्ल ',ललितकूर एवंिविभाजन ,संक्रीणजाति ,महेंद्र विक्रम ,अलुप्तकाम कलहप्रिय आदि प्रशंसासूचक पदवी धारण की थी ।पल्लव वंश के इतिहास में इस राजा का बहुत अधीन महत्व है ।उसने ब्रहमा ,विष्णु और शिव के बहुत से मंदिर अपने राज्य में बनवाये और 'चेत्यकारी' का विरुद्ध धारण किया ।
उसने 'मंतविलास प्रहसन' तथा 'भगवदज्जुकियम' जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथो की रचना की ।'मंतविलाय प्रहसन' एक हास्य ग्रन्थ है ।प्रारम्भ में महेंद्र वर्मन प्रथम जैन थे ,किन्तु बाद में अय्यर नामक शैव संत के प्रभाव में आकर शैव धर्म अपना लिया ।

नरसिंह वर्मन प्रथम (६३०--६६८ई.):----
               नरसिंह वर्मन प्रथम अपने पिता महेंद्र वर्मन प्रथम की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा ।वह पल्लव वंश का सबसे प्रतापी और शक्तिशाली राजा था ।असाह्ररण धैर्य एंव पराक्रम के कारण उसे 'महमल्ल' भी कहा जाता है ।नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को परिमल ,मणिमंगलाई एंव शुरमार के युद्धों में परास्त किया था ।नरसिंह वर्मन ने पुलकेशी द्वितीय की पीठ  पर 'विजय' शब्द अंकित करवाया था ।नरसिंह वर्मन प्रथम के काशाक्कुटी ताम्रपत्र अभिलेख एवं महावंश के उल्लेख से उसकी लंका विजय प्रमाणित होती है ।इसी कारण इस लेख में नरसिंह वर्मा प्रथम की तुलना लंका विजय राम से की गई ।

महेंद्र वर्मन द्वितीय (६६८-६७०ई.):---
                          महेंद्र वर्मन द्वितीय ,नरसिंह वर्मन प्रथम का पुत्र एंव महेंद्र वर्मन द्वितीय,नरसिंह वर्मन प्रथम का पुत्र एंव उत्तराधिकारी था ।
उसने बहुत कम समय तक शासन किया था ।उसने घटिका (विद्वान ब्राह्मणो की संस्था) का विस्तार किया ।कुछ लेखो में इसे 'मध्यम लोकपाल' कहा गया है ।

परमेश्वर वर्मन प्रथम (६७०-६९५ई.):----
        परमेश्वर वर्मन प्रथम महेंद्र वर्मन द्वितीय का पुत्र एंव उत्तराधिकारी था ।
उसका संघर्ष सबसे पहले चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम से हुआ ।परमेश्वर वर्मन प्रथम ने विद्याविनित उग्रदंड ,लोकादित्य ,चित्रमान,गुणाभाजन ,श्रीमर एकमल्ल ,रणंजय आदि विरुद्ध धारण किए।इसके समय में मामललपुर का प्रसिद्ध गणेश मंदिर निर्मित हुआ तथा कुरम के शिव मंदिर का निर्माण हुआ ।यह परम शैव था ।
                  कुरम के शिव मंदिर का नामकरण इसी के नाम पर विदया विनती पल्लव  परमेश्व्रघ्म किया ।

नरसिंह वर्मन द्वितीय (६९५-७२०ई.):----
                     नरसिंग वर्मन द्वितीय का समय सांस्कृतिक उपलब्धियाँ का रहा है।उसके महत्वपूर्ण निर्माण कार्यो में महाबलीपुरम का समुद्रतटीय मंदिर ,कांची का कैलाशनाथर मंदिर एंव एरावतेश्वर मंदिर की गणना की जाती है ।
परमेश्वर वर्मन प्रथम के प्रताप और पराक्रम से पल्लवों की शक्ति इतनी बढ़ गई थी ,की जब सातवी सदी के अंत में उसकी मृत्यु के बाद नरसिंग वर्मन द्वितीय कांची के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ ,तो उसे किसी बड़े युद्ध में जुक्षने की आवश्यकता नही हुई।
                                           राजसिंग ,आगमप्रिय एंव शंकर भक्त की सर्वप्रिय उपाधियाँ नरसिंग वर्मन द्वितीय ने धारण की थी ।मंदिर निर्माण की शैली में नरसिंग वर्मन द्वितीय ने एक नई शैली राज सिंह शैली का प्रयोग किया था ।महाकवि दण्डिन् संभवतः उसका समकालीन था ।
नरसिंह वर्मन द्वितीय का शासन काल शान्ति और व्यवस्था का काल था ।

परमेश्वर वर्मन द्वितीय (७२०-७३१ई.):-------
                   परमेश्वर वर्मन द्वितीय नरसिंह वर्मन द्वितीय का छोटा पुत्र और उसका उत्तराधिकारी था। कशाक्कुड़ी-अभिलेख में इसे बृहस्पति नीति का आदर्श संरक्षक एंव कुशल प्रशासक कहा गया है ।
           चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने नंग शासक दुविर्नित एरयप्प की सहायता से पल्लव नरेश परमेश्वर वर्मन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया और फिर उसकी हत्या कर दी  ।

नंदी वर्मन द्वितीय (७३१-७९५ई.):-----
                   नंदी वर्मन द्वितीय के शासन काल में पल्लवों का चालुक्यों ,पांड्यो तथा राष्ट्रकूटों से संघर्ष हुआ ।पूर्वी चालुक्य राज्य पर नंदी वर्मन द्वितीय ने कब्जा कर लिया ।किन्तु राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने पल्लवों की राजधानी कांची पर विजय प्राप्त कर अपनी पुत्री का विवाह नंदी वर्मन द्वितीय से कर दिया था ।इन दोनों के संयोग से दन्ती वर्मन नामक पुत्र ने जन्म लिया ।नंदी वर्मन द्वितीय वैष्णव धर्म का अनुयायी था ।नंदी वर्मन द्वितीय ने बैकुण्ड ,पेरुमल एंव मुक्तेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था ।इसने पल्लव राजाओ में सबसे अधिक समय (६५ वर्ष) तक शासन किया ।

दंती वर्मन (७९६-८४७ई.):-------
               दंती वर्मन द्वितीय के बाद दंती वर्मन ही अगला पल्लव राजा था। उसके समय में पल्लव राज्य पर राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय एंव  पांड्य शासको ने आक्रमण किया ।
दंती वर्मन को अभिलेखो में "पल्लवकुल भूषण"  कहा गया है ।उसने मद्रास के निकट बने पार्थसारथी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।

नंदी वर्मन तृतीय (८४७-८६९ई.):---
                         यह दंती वर्मन का पुत्र उत्तराधिकारी था ।उसने अपने बाहुबल एंव पराक्रम से चोलो ,पांड्यो एंव चेरो को पराजित कर पुनः एक बार पल्लव साम्राज्य को शक्ति प्रदान की ।यह महान पल्लव शासको की पक्ति का अंतिम पराक्रमी शासक था ।
                                                                                इसके समय में मामल्ल्पुर तथा महाबलीपुरम के नगर अत्यंत प्रसिद्ध हुए ।इसकी उपाधि अवनीनारायण थी ,नंदीपकलम्ब्कम में इसे चारो समुद्रो का स्वामी खा गया है ।इसकी संरक्षण में तमिल कवि पेरुदेवनार ने भारत वेणवा नामक काव्य की रचना की थी ।


नृपतुंग वर्मन (८७०-८७९ई.):---
                 यह नंदी वर्मन तृतीय का पुत्र था। उसका शासन काल शांति का काल था ,उसके शासन काल के अंतिम दिनों में सौतेले भाई अपराजित ने विद्रोह कर दिया ।विद्रोह में पांड्यों ने नृपतुंग का एंव चोलो तथा पश्चिमी गंगा ने अपराजित का साथ दिया ।दोनों ओर की सेनाओ की बीच श्रीपुरम्बियम के मैदान में धमासान संघर्ष हुआ ,इस संघर्ष में नृपतुंग वर्मन पराजित हुआ ।

अपराजित (८७८-८९७ई.):----
                    अपराजित ने नृपतुंग वर्मन को उपदस्थ करके पल्लव वंश का राज्याधिकार प्राप्त किया ।उसने पल्लव वंश के अंतिम शासक के रूप में शासन किया ।
उसके समय में चोल शासक आदित्य प्रथम ने 'टोडमंडलम' पर अधिकार कर लिया   ।इस प्रकार दक्षिण भारत में एक नवीन शक्ति के रूप में चोलो का उदय हुआ ।अपराजित ने विरुक्तनि में 'विरत्तानेश्वर मंदिर' को निर्मित करवाया ।
अपराजित के बाद नंदी वर्मन चतुर्थ ,कम्प वर्मन आदि कुछ समय तक पल्लव शक्ति को बचाने का प्रयास किया ,पर असफल रहा ।


                                   तुर्की आक्रमण

भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमांत को तुर्की आक्रमणों से बचाने में हिन्दुशाही राजाओ की असफलता के अत्यंत विनाशकारी परिणाम हुए ।
सुबुक्तगीन के पुत्र और उत्तराधिकारी महमूद गजनवी ९९८ई. में सिंहासन पर बैठा  ।गद्दी पर बैठने के शीघ्र बाद ,उसने १०००से लेकर १०२७ई. तक भारत पर १६ या १७ बार आक्रमण किए।इस सत्ताईस वर्षो के दौरान वह आमतौर पर सितंबर-अक्टूबर में भारतीय वर्षा ऋतू समाप्त होने पर गजनी से चलता था , सर्दी का मौसम भारत में व्यतीत करता था और भारत से लुटे गए भारी खजाने के साथ अगली वर्षा ऋतू आरम्भ होने से पूर्व मार्च-अप्रैल में वापस गजनी चला जाता था ।महमूद गजनी ने व्यापारिक एंव धार्मिक नगरो और धन-सम्पन्न मंदिरो की धन-दौलत लूटने के लिए भारत पर आक्रमण किए ।
उसके कुछ उल्लेखनीय अभियान इस प्रकार हे:-------------------
१>नगरकोट और उसके प्रसिद्ध मंदिर (१००६)
२>थानेश्वर (१०१२-१३)
३>मथुरा और कन्नौज (१०१६-१८)
महमूद का सर्वाधिक उल्लेखनीय (पन्द्रहवाँ) आक्रमण गुजरात में समुद्र तट पर स्थित  सोमनाथ या सोमेश्वर के मंदिर पर था ।अपने अभियानों के दौरान महमूद ने मुल्ल्तान सहित पंजाब को गजनी के साम्राज्य में मिला लिया ।यह कदम उसने अपने आक्रमणों के लिए अपनी संचार व्यवस्था को बनाये रखने और भारत के सीमांत प्रदेशो से होकर अपनी सेनाओ के मुक्त रूप से आवागमन के लिए उठाया था ।महमूद के आक्रमणों ने उत्तरी और पश्चिमी भारत की समूची व्यवस्था को विनष्ट कर दिया और भावी तुर्की आक्रमणों के लिए देश के द्वारा उन्मुक्त कर दिया ।
महमूद की मृत्यु के पश्चात भारत को लगभग ढेर सौ साल तक विदिशी आक्रमणों से राहत मिली ।११७५ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के नेतृव में तुर्की आक्रमणों की एक अन्य लहर ने पूरी तरह से देश को अपनी चपेट में ले लिया जिसके परिणामस्वरूप १२०६ ई.में दिल्ली सल्तनत की स्थापना  हुई है।

                                दिल्ली सल्तनत
उत्तरी भारत के अंतिम तुर्क विजेता मुइज़ुद्दीन मुहम्मद गोरी की कोई संतान नही था ।वह अपने साथ बरी संख्या में अपने साथ दास लाया था,लेकिन किसी को भी उसने ख़ास तौर पर अपना उत्तराधिकारी नामजद नही किया था ।परन्तु इतिहासकारो के अनुसार उसने भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक को औपचारिक रूप से राजकीय अधिकार दे रखे थे  ।१२०६ ई. में मुहम्मद गोरी की अचानक मृत्यु होने पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने लाहौर में स्थानीय नागरियों के अनुरोध पर सत्ता ग्रहण की ।इस प्रकार कुतुबुद्दीन ऐबक ने १२०६ ई. से सत्ता ग्रहण करके दिल्ली सल्तनत की नीव रखी और इसे ही सल्तनत का प्रथम सत्ताधारी राजवंश माना गया ।
दिल्ली सल्तनत (१२०६-१५२६) में पाँच शासक राजवंश हुए :---
>िलबरी (१२०६-९०)
२>खिजली (१२९०-१३२०)
3>तुगलक (१३२०-१४१३)
४>सैय्यद (१४१४-१४५१)
५>लोदी (१४५१-१५२६)
     इस पाँच राजवंशो में से प्रथम तीन राजवंश तुर्की मूल के थे और लोदी अफगानी मूल के ।

>िलबरी राजवंश (१२०६-१२९०):-----
                        िलबरी राजवंश का स्थापना १२०६ ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा हुई ।इस राजवंश के संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक तुर्क विजेता मुइज़ुद्दीन मुहम्मद गोरी के सिपहसालाकार थे ।मुइज़ुद्दीन मुहम्मद गोरी के कोई संतान नही था ।१२०६ में अचानक मुइज़ुद्दीन मुहम्मद गोरी के मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी के लिए अरकजकता फैल गई ।तब लाहौर में स्थानीय नागरिको के अनुरोध पर कुतुबुद्दीन ऐबक राजगद्दी पर बैठाया गया ।और सत्ता के बाद िलबरी राजवंश नीव डाली ।

२>कुतुबुद्दीन ऐबक (१२०६-१२१०):---
                          यह ऐबक जनजाति का एक तुर्क था ।तुर्की भाषा में इसका अर्थ 'चन्द्रमा का स्वामी' है।उसे दिल्ली सल्तनत के संस्थापक के रूप में मान्यता एक औपचारिकता मात्र थी  ।उसने अपना शासन 'मालिक' और'सिपहसालार'  की साधारण उपाधियों से शुरू किया था जो मुहम्मद गोरी द्वारा उसे प्रदान की गई थी ।।लाहौर तथा बाद में दिल्ली को उसने अपनी राजधानी बनाया ।चार वर्षो के संक्षिप्त शासनकाल में उसने कोई नई विजय प्राप्त नही की क्योकि उसका पूरा ध्यान कानून और व्यवस्था बनाए रखने तथा अपनी तुर्की सेना को शक्तिशाली बनाने में ही लगा रहा ।
    जब १२१०ई.में लाहौर में चौहान खेलते समय घोड़े से अचानक गिर जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई ,उस समय उसका केवल आधा कार्य ही पूरा हो पाया था  ।वह अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध था और इसी कारण उसे लाख-बख्श (लाखो का दात्ता) का उपनाम मिला था ।उसने प्रसिद्ध सूफी संत ख्वाजा में 'कुतुबमीनार बख्तियार काफी' के नाम पर दिल्ली में 'कुतुबमीनार'की नीव रखी जिसे इल्तुतमिश ने पूरा किया ।
                    कुतुबद्दीन का उत्तराधिकारी उसका अनुभवहीन व अयोग्य पुत्र आरामशाह ने इल्तुतमिश द्वारा पराजित और अपदस्थ किए जाने के पूर्व , लाहौर में लगभग ८ माह तक शासन किया था ।

इल्तुतमिश (१२१०-1236):-
शमसुद्दीन इल्तुतमिश ही दिल्ली सल्तनत का वास्तविक स्थापक था ।कुतुबुद्दीन की मृत्यु के समय वह बदायूँ का सूबेदार (गवर्नर) था ।उसने दिल्ली को सल्तनत की राजधानी के रुप में घोषित किया ।इल्तुतमिश ने अपने शासन के प्रारम्भिक दस वर्षो में अपने दो प्रतिव्दंदियो ताजुद्दीन यल्दूज और नासिरुद्दीन कुबाचा के विरोध से अपनी राजगद्दी की रक्षा करने में व्यतीत किये। यह दोनों पंजाब में उस समय मुहम्मद गोरी के अधिकारियों के रूप में कार्यरत थे ।इल्तुतमिश ने इन दोनों को १२१६-१७ में पराजित करके अपना राजसिंहासन को सुरक्षित किया ।
इसी बीच उसे केंद्रीय एशिया में मंगोल साम्राज्य के संस्थापक चंगेज खा ,जिसने १२१५ में पेकिंग (आधुनिक बेइजिंग) पर और इसके पाँच वर्ष उपरान्त ट्राँस आक्सियाना पर अधिकार कर लिया था ,के आक्रामक अभियानों का समाचार मिला ।इल्तुतमिश ने बड़े प्रशंसनीय रूप से कूटनीतिक दूरदर्शिता के द्वारा अपनी नवजात सल्तनत की चंगेज के भयानक आक्रमण से रक्षा की ।इल्तुतमिश इस मंगोल आक्रमण की आशंका से इतना अधिक भयभीत हो गया था की उसने १२२७ में चंगेज खा की मृत्यु तक कोई भी सैनिक अभियान नही कीए।
मंगोल के संभावित आक्रमण की आशंका से मुक्त होते ही उसने १२२७-२८ में मुल्तान और बंगाल को पुनः विजित किया तथा १२२९ में बंगाल और विहार में अपना अधिकार जमा लिया तथा राजस्थान में रणथम्भौर और भाण्डोर पर कब्जा कर लिया ।१२२९ में उसे बगदाद के अब्बासिद खलीफा से मान्यता का अधिकार-पत्र प्राप्त हुआ, हुआ ,जिससे सुलतान के रूप में उसकी स्वतंत्र स्थिति एंव दिल्ली सल्तनत को औपचारिक मान्यता प्राप्त हुई । इसके द्वारा दिल्ली सल्तनत को इस्लामी विश्व-बन्धुत्व का एक सदस्य भी स्वीकार किया गया।
                                          इल्तुतमिश मध्यकालीन भारत के अत्यंत महान शासको में एक था। भारत में मुस्लिम सत्ता का इतिहास वस्तुतः उसके साथ प्रारम्भ होता है ।इल्तुतमिश ने ही ,देश(सल्तनत) को एक राजधानी संप्रभुता-सम्पन्न राज्य एक राजतंत्रात्मक प्रकार की शासन-व्यवस्था और तुकार्ण-ए-चाहलग्नी या चालीसा (चालीस अमीरो का समूह) नामक शासक था आमिर वर्ग ,जो इस काल का एक प्रवर शासक वर्ग था ,प्रदान किया।उसने सल्तनत-कालीन दो प्रकार के मूल सिक्को चांदी का टंका और ताँबे के जीतल का प्रचलन किया ।
इल्तुतमिश ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में ज्येष्ठ  पुत्र का चयन करने की सामान्य प्रथा को तोड़ दिया ।उसने अपनी पुत्री रजिया को इस आधार पर तरजीह देने की घोषणा की उसका कोई भी पुत्र राज्य पर शासन करने में सक्षम नही है।उसकी मृत्यु के बाद तुर्की अमीरो ने उसके पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज को गद्दी पर बैठाया लेकिन वह राज काज ठीक ढंग से चला नही सका ।शिक्तिशाली अमीरो के नेतृत्व में होने वाले विद्रोहों तथा साम्राज्य के विभिन्न भागो में अव्यवस्था होने से बड़ी विकट स्थिति उतपन्न हो गई जिसका रजिया ने भरपूर लाभ उठाया। उजिया ने कुछ अमीरो ,सेना तथा दिल्ली के नागरिको के समर्थन से रुकनुद्दीन ,जिसने लगभग सात महीने तक असफल शासन किया था को गद्दी से हटाकर स्वयं उस पर अधिकार कर लिया।

रजिया (1236-1240):-
                वह मध्यकालीन भारत की पहली तथा अंतिम मुस्लिम महिलापशासिका थी ।दिल्ली के नागरिको ने पहली बार अपने-आप उत्तराधिकार के मामले का निर्णय किया था। परिणामस्वरूप रजिया ने जनवादी दृष्टिकोण अपनाकर दिल्ली के लोगो से कहा की यदि वह उनकी अपेक्षाओं को पूरा न कर पाए तो उसे गद्दी से हटा दिया जाए ।राजगद्दी पर उसके आरूढ़ होने और किसी महिला को शासक के रूप में स्वीकार करके ,तुर्की आमिर वर्गो ने अपने पौरुष और अपनी मानसिक दृढ़ता एंव विशालता का परिचय दिया था।
रजिया का शासन साढ़े तीन वर्षो तक चला।उसने चतुर कूटनीतिज्ञ और युध्दनीतिज्ञ के रूप में स्वयं को अच्छी तरह प्रस्तुत किया।प्रशासन का पुनर्गठन तथा हर प्रकार के कार्यो पर सीधे नियंत्रण रखने के उसके प्रयासों का काफी विरोध हुआ ।उसने परदा करना छोर दिया,वह पुरुषो की भाति पोशाकें पहनने लगी तथा जनता के बीच हाथी पर जाने लगी जो की कटटर मुस्लिम दृष्टि से एक गंभीर शिकायत यह थी की उसने एक अबिसिनियाई व्यक्ति जलालुद्दीन याकूत को पदोन्नत करके शाही अस्तबल का प्रमुख (आमिर-ए-अखुर) के रूप में नियुक्त कर दिया था,जिस पर अभी तक केवल तुर्की अधिकारियों को ही नियुक्त किया जाता था ।संस्थापित जातीय विशेषधिकारो पर रजिया के इन स्पष्ट प्रहारों के विरुद्ध विरोध ने शीघ्र ही विद्रोहों का स्वरूप ग्रहण कर लिया ।
पहला विद्रोह लाहौर के गवर्नर कबीर खा द्वारा किया गया  ।रजिया ने स्वंय उसने खिलाफ मोर्चा लिया और विद्रोह को कुचल दिया ।इसके पंद्रह दिनों भीतर ही भटिण्डा के गवर्नर अल्तूनिया ने भी विद्रोह कर दिया ।रजिया ने सीधे भटिण्डा की ओर कूच किया लेकिन अल्तूनिया ने उसे पराजित कर बंदी बना लिया और उससे विवाह कर लिया ।विवाह के बाद वे दोनों सेना का नेतृत्व करते हुए दिल्ली की ओर बढ़ा लेकिन इसी बीच दिल्ली के असंतुष्ट अमीरो ने इल्तुतमिश के दूसरे पुत्र बहराम शाह को गद्दी पर बैठा दिया।जब रजिया आपने पति के साथ दिल्ली की ओर बढ़ रही थी ,तभी उसे बहराम ने पराजित कर दिया। अपने सेनिको द्वारा परित्यक्त कर दिय जाने पर उसे लुटेरो ने मार डाला।
रजिया के पतन के मुख्य कारण यह नही था की उसने तुर्की सामाजिक परम्पराओ का उल्ल्घन करके अरूढ़िवादी ढंग से शासन करना प्रारम्भ कर दिया था,अपितु तुर्की अमीरो के सत्ता पर एकाधिकार एंव उनकी शक्ति को चुनौती देकर रजिया ने आत्म-विनाश कर लिया ।

रजिया के बाद गद्दी पर बहराम शाह बैठा ,जो की एक शक्तिहीन तथा अक्षम था जिसे दो वर्षो (१२४०-४२) के संक्षिप्त शासन के उपरान्त अमीरो द्वारा गद्दी से हटा दिया गया।
उसके बाद अल्लुद्दीन मसूद शाह (१२४२-४६) बैठा , उसका भी अंत भी बहराम की तरह ही हुआ। उसके बाद सुलतान नासिरउद्दिन महमूद (१२४६-६६) बैठा ,जो की इल्तुतमिश का पौत्र था ।१६ वर्ष की अवस्था में वह गद्दी पर बैठा। उसने सत्तासीन व्यक्तियों के प्रति पूर्ण आत्मसमपर्ण की परवर्ती को अपनाया तथा उनके हाथो की कठपुतली बना रहा ।सुलतान के गद्दी पर बैठने (१२४९) के तीन वर्षो पश्चात तुर्की अमीरो में अग्रणी गयासुद्दीन बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुलतान से कर दिया ।इसके बदले सुलतान ने उसे नायब-ए-मामलकात के पद पर नियुक्त कर दिया और उलुग खा (प्रधान 'खान') की उपाधि प्रदान की ।
                                                                              १२५३-५४ के अक्षिप्त अंतराल को छोरकर बलबन सल्तनत का वास्तविक शासक बन गया ।
                          
बलबन (१२६६-१२८६):--
             १२६६ई. में गयासुद्दीन बलबन सम्राट नासिरउद्दिन महमूद को मार कर कुछ गद्दी पर बैठ गया ।उसके गद्दी पर बैठते ही इल्तुतमिश के परिवार की सुल्तानों की परम्परा का अंत हो गया ।अपने राज्यारोहण के तत्काल बाद उसे दिल्ली तथा सल्तनत के अन्य प्रदेशो में कानून और व्यवस्था की पुनर्स्थापना की अत्यंत गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा।उसने कानून और व्यवस्था की पुनः स्थापना पर तत्काल ध्यान दिया और उसे अपने प्रशानिक नीति के मार्गदर्शी सिध्दांत के रूप में 'दृढ़ीकरण' और विस्तार में से चुनाव करना पड़ा ।उसने दृढ़ीकण को चुना क्योकि विद्रोही हिन्दू अधीनस्थ-शासक दिल्ली सुल्तान की अधीनता से मुक्ति का प्रयास कर रहे थे और मंगोल आक्रमणकारी दिल्ली की ओर आगे बढ़ रहे थे। बलबन ने अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रो पर अधिकार बनाए रखने में अपनी साड़ी शक्ति लगा दी और अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं को कभी उभरने नही दिया।बलबन सल्लत्न का पहला सुल्तान था ,जिसने राजत्व या राजपद के सिध्दांत का विस्तार से विवेचन किया।उसने शाही ताज को एक उच्च एंव गौरवपूर्ण पीठ पर प्रतिष्ठापित करने और आमिर वर्ग एंव सुल्तान के मध्य संघर्ष तथा कलह की विचारधारा का प्रतिपादन अत्यावश्यक माना। उसने इस विचारधारा के द्वारा लोगो को यह विश्ववाश दिलाया की राजतत्व या सुल्तान पृथ्वी पर खुदा या ईश्वर का प्रतिनिधि (नियाबत-ए-खुदाई) है और प्रतिष्ठा की दृष्टि से उसका स्थान पैगंबर के बाद दुसरा है। सुल्तान खुदा की प्रतिधाया (जिला-ए-इलाही) और ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में वह यह स्पष्ट करना चाहता था की वह ईश्वरीय आदेशो से सासन करता है और कर्त्तव्यों का निर्वहन करने के लिए किसी सांसारिक सत्ता के प्रति वह जबाबदेह नही है ।
वह किन्द्रियकुत राजनितिक सत्ता में विश्वास करता था। अधिकाँश सरकारी नियुक्तियाँ सीधे उसी के द्वारा या उसके अनुमोदन से की जाती थी। अपने निरंकुश शासन के अबाध संचालन के लिए उसने कुशल तथा निष्ठावान गुप्तचर प्रणाली का गठन किया।
भारतीय लोगो ,चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान के लिए बलबन की सेना में अधिकारियों के रूप में पदोन्नति या नियुक्ति प्राप्त करने की कोई संभावना नही थी ,क्योकि बलबन ने मुख्यतः विदेशी सैनिको को भर्ती करके अपनी सेना का गठन किया था ।उसकी सेना का उस समय सैन्य-शक्ति परीक्षण हुआ जब १२७५ में बंगाल के गवर्नर तुगरील ने बलबन के विरुध्द विद्रोह कर दिया ।तुगरील के विरुध्द दो अभियानों में लगातार विफलता के उपरान्त बलवन ने स्वंय लखनौती की ओर कूच किया ,जो मध्यकालीन बंगाल राजधानी था ।बलवन ने बड़ी क्रूरता से तुगरील के विद्रोह को दमन किया और उसके स्थान पर अपने छोटे पुत्र बुगरा खा को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया ।
वृध्दावस्था में बंगाल के विरुध्द किए गए सैनिक अभियान का बलबन के स्वास्थ पर बहुत अधिक दुष्प्रभाव पड़ा। उसे बंगाल में व्यवस्था स्थापित करने में तीन वर्ष लग लए और तीन वर्ष तक बंगाल में व्यस्त रहने के बाद दिल्ली वापस आ सका।बलबन ने मंगोल आक्रमणों के विरुध्द उत्तर-पश्चिमी सीमांत को सुक्षित रखने के लिए कठोर कदम उठाए ।उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र शहजादे मुहम्मद को सीमांत की संपूर्ण सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौपा ,जिसने कुछ समय तक विरितापूर्वक मंगोलों से सीमांत की सुरक्षा की परन्तु मंगोलों के एक प्रबल आक्रमण का सामना करते हुए, शहजादा महम्मूद मार गया ।वही बलबन का उत्तराधिकारी होने वाला था ।उसकी मृत्यु बलबन एंव उसके वंश के लिए एक मरणांतक आधात सिध्द हुई ।शहजादे मुहम्मद के मृत्यु के एक वर्ष के भीतर ही बलबल की मृत्यु हो गई और चार वर्ष बाद ही इिलबरी वंश का भी अंत हो गया।
                                   बलबन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कैकुबाद उसका उत्तराधिकारी हुआ,जो अत्यंत विलासी एंव कामुक व्यक्ति था। परिणामस्वरूप संपूर्ण प्रशासन अराजकताग्रस्त हो गया और राजदरबार अमीरो की उच्चाकांक्षाओ एंव संघर्षो की गिरफ्त में आ गया। अमीरो के एक गुट का नेता आरिज-ए-मुमालिक मलिक फिरोज था,जिसने कैकुबाद की हत्या करके राजगद्दी पर स्वंय अधिकार कर लिया ।                  

ख़िलजी वंश (१२९०-१३२०):----
                 खिलजियो का दिल्ली सल्तनत की राजगद्दी पर अधिकार एक राजवंशीय परिवर्तन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण घटना थी।ख़िलजी वंश की स्थापना ख़िलजी कार्न्ति के नाम से प्रसिध्द है,क्योकि इसके द्वारा तुर्की आमिर वर्ग का सत्ता पर एकाधिकार और तुर्की लोगो की जातीय तानाशाही समाप्त हो गई ।ख़िलजी ने एक महान साम्राज्यवादी युग का सूत्रपात किया ,जिसमे तुर्की साम्राज्य को राजनितिक एकात्मकता प्रदान की।

जलालुद्दीन फिरोज ख़िलजी (१२९०-१२९६):----
                     जब वह गद्दी पर बैठा उस समय वह सत्तर वर्ष का बूढ़ा व्यक्ति था। उसकी अतिशय विनम्रता एंव उदारता को सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा के लिए हेय माना जाने लगा और इस कारण जनता ने नवीन राजवंश का बहुत सम्मानजनक रूप से मूल्यांकन नही किया। सुल्तान ने मंगोलों के प्रति भी सन्टुष्टीकरण की नीति अपनाई ।उनकी सदभावंता अर्जित करने के लिए उसने अपनी एक पुत्री का विवाह चंगेज खा के वंशज मंगोल सरदार उलुघ खान के साथ कर दिया। उलुघ खान एंव उनके जिन मंगोल अनुयायिओं ने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया उन्हें दिल्ली में रहने के लिए आवासगृह ,निर्वाह के लिए भन्ते और यहाँ तक की सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान की गई ।
जलालुद्दीन फिरोज ख़िलजी के शासनकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना,सुल्तान के भतीजे और दामाद तथा कड़ा के गवर्नर अली गुर्शप द्वारा दक्क्न के यादव वंश की राजधानी देवगिरि पर आक्रमण था। १२९६ में देवगिरि पर अपने सफल अभियान के उपरान्त अली गुर्शप ने सुल्तान को दक्क्न से लाई गई प्रभूत सम्पदा को मेट्स्वरूप ग्रहण करने के लिए कड़ा में आमंत्रित किया। जुलाई १२९६ में जलालुद्दीन कड़ा पहुंचा ,जहाँ अली गुर्शप ने उसकी हत्या कर डाली और अलाउद्दीन के नाम से स्वंय को सुल्तान घोषित कर दिया ।

----->अलाउद्दीन ख़िलजी (१२९६-१३१६):------
                             सुलतान बनने के उपरान्त अल्लुद्दीन ने सर्वप्रथम भूतपूर्व सुलतान के पुत्र अर्कली खा सहित उसके परिवार के शेष समस्त सदस्यों का कत्लेआम किया। तुपरांत उसने बलबनी और जलाली अमीरो को "जड़-मूल से नष्ट कर दिए"।
                                                                            अलाउद्दीन के राज्यारोहण के साथ "सल्तनत के साम्राज्यवादी युग" का सूत्रपात होता है ।इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद नए प्रदेशो को विजित कर उन्हें सल्तनत में शामिल करने का कोई गंभीर प्रयास नही किया गया। अलाउद्दीन ने इस लम्बे यथास्थिति युग को समाप्त किया और विजयो के तूफानी दौर को प्रारम्भ किया।उसकी प्रथम महत्वपूर्ण सफलता गुजरात के समृध्द साम्राज्य की विजय थी, जिस पर बघेलो का शासन था।१२९९ में उलुघ खान और नुसरत खा के सयुक्त नेतृत्व में अलाउद्दीन की सेना ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ पर आक्रमण किया ।बघेला शासक कर्ण ने इस आकस्मिक आक्रमण की राजधानी देवगिरि में अपनी पुत्री देवल देवी की साथ शरण ली ।उसकी महरानी कमला देवी विजेताओ के हाथ लगी ,जिसके साथ अलाउद्दीन ने सम्मानपूर्वक विवाह कर लिया ।खम्भात के समृध्द पत्तन नगर से अलाउद्दीन के सेनानयक नुसरत खा ने हिन्दू से मुसलमान बनाये गए दास मलिक काफूर (जसे हजारदीनारी भी कहा जाता है)को खरीद कर प्राप्त किया। बाद में यही मलिक काफूर अलाउद्दीन का महान सेनापति और मालिक नायब बना।
                                                          गुजरात की विजय के उपरान्त अलाउद्दीन राजपुताना की ओर उन्मुख हुआ जहाँ उसने १३००-१ में पृथ्वीराज तृतीय के वंशज हमीरदेव से रणथम्भौर को जीत लिया।१३०३ में उसने मेवाड़ की राजधानी चिंतौर पर आक्रमण किया जिस पर गहलोत राजा रत्न सिंह राज कर रहा था।अलाउद्दीन ख़िलजी का मुख्य उदेश्य राणा रत्न सिंह की रानी पदिमनी को हस्तगत करना था। पर समकालीन ऐतिहासिक स्रोत में इसका कोई उल्लेख नही है ,यहाँ तक की आमिर खुसरो जो इस अभियान के दौरान अलाउद्दीन के साथ था ,उसने भी इस घटना के बारे में कोई भी उल्लेख नही किया है।लगभग आठ महीने लम्बी घेराबंदी के बाद अलाउद्दीन ने चित्तोर पर अधिकार कर लिया जिसका नाम अलाउद्दीन के पुत्र खीज खा के नाम पर खिजराबाद रखा गया। १३०५ में अलाउद्दीन ने मालवा की विजय के लिए एल-उल-मुल्क मुल्तानी को भेजा जिसे मालवा की विजय के उपरान्त वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया गया।
                          उत्तर भारत के विजय अभियानों को पूरा करने के उपरान्त अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत की विजय के लिए मालिक काफूर के नेतृत्व में एक सैनिक अभियान भेजने का निश्च्य किया। १३०७ और १३१२ के बीच मालिक काफूर ने १३०७ और १३११ में देवगिरि के यादव राजा रामचन्द्र को ,१३०९-१० में वारेगल के काकतीय राजा प्रताप रुद्रदेव व्दितीय को ,तथा १३११ में होयसल राजा वीर बल्लाल तृतीय को पराजित किया। १३१३ में यादव राजा रामचन्द्र की मृत्यु के उपरान्त जब उसके पुत्र सिंघण तृतीय ने अपने को स्वतंत्र घोषित किया तो मलिक काफूर ने देवगिरि पर आक्रमण किया और उसे विजित कर दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।अलाउद्दीन के दक्षिण अभियानों का उद्देश अपार धन-सम्पति प्राप्त करना था तथा दक्षिणी राज्यों से सल्तनत की आधीनता  स्वीकार करना था।
अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन के प्रथम चार वर्षो में मंगोलों ने छःबार से अधिक सल्तनत पर आक्रमण किए तथा यहाँ तक की दिल्ली और पड़ोसी प्रदेशो को लूटा। इस गंभीर संकट से मजबूर होकर अलाउद्दीन ने उत्तर-पश्चिम सीमा प्रदेश की सुरक्षा के लिए कठोर उपाय किए ।उसने सेना की संख्या में वृध्दि की ,सीमांत प्रदेशो की सुरक्षा के लिए विशेष सैनिक दस्तो को गठित किया और गाजी मालिक सहित अनेक सेनानायकों की उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश के सीमारक्षको के रूप में नियुक्त किया ।अलाउद्दीन ने मंगोलों के खतरे से निपटने के लिए बलबन की 'रक्त और तलवार' की नीति का अनुसरण किया। उसकी मंगोलों के विरुध्द सीमांत नीति अत्यधिक सफल सिध्द हुई।
अलाउद्दीन एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ व्यावहारिक राजनेता तथा महान प्रशासक था।उसने अपने शासन के पूर्व प्रचलित शासन व्यवस्था का बारीकी से मूल्यांकन किया और उसने इसमें व्यापक सुधार किए।
अलाउद्दीन ने अपने जिस साम्राज्य का इतनी शक्ति एंव निम्र्मतापूर्वक निर्माण किया था, वह उसके जीवन के अंतिम दिनों में ही धाराशायी होने लगा।जिस मालिक काफूर को उसने मलिक नायब(रीजेंट)के उच्च पद पर नियुक्त किया था,वह सभी संभावित प्रतिव्दंव्दियो को मिलाकर राज्य पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास करने लगा।बंगाल के योग्य तथा निष्टावान शासक अल्प खा की हत्या कर दी गई। गुजरात ,चित्तोड़ तथा देवगिरि में विद्रोह होने लगे। इन परेशानियों के बीच ही १३१६ई.में अलाउद्दीन का निधन हो गया।


------>कुतुबुद्दीन मुबारक शाह ख़िलजी (१३१६-१३२०):-------
                                    अलाउद्दीन की मृतयु के बाद मालिक काफूर ने दिवंगत सुलतान के छोटे पुत्र शहाबुद्दीन उमर को गद्दी पर बैठाया तथा स्वयं उसका पतिशासक (रीजेंट) बन गया। लेकिन शीघ्र ही सुलतान के अंगरक्षकों ने मलिक काफूर की हत्या कर दी और कुछ ही सप्ताह बाद अलाउद्दीन के दूसरे पुत्र मुबारक शाह ने गद्दी पर अधिकार कर लिया।उसने अलाउद्दीन की कठोर प्रशासनिक नीतियों को उदार बनाया तथा उसके आर्थिक अधिनियमों को रद्द कर दिया।इसके परिणामस्वरूप पूर्ण अव्यवस्था तथा भष्टाचार व्याप्त हो गया।मुबारक शाह के दुराचार और व्यभिचार से स्थिति और बिगड़ गई। उसने अपने एक दास के पुत्र खुसरो खा पर विशेष अनुग्रह-वृत्ति करके उसे वजीर ,प्रधान सेनानायक एंव मलिक नायब के उच्च पद पर आसीन किया।यह खुसरो खा मूलतः गुजरात की एक हिन्दू ब्रादु जाती से संबंधित था।अप्रैल १३२० में खुसरो खा ने मुबारक शाह की हत्या करके ख़िलजी वंश का अंत कर दिया ।
खुसरो खा नासिरुद्दीन खुसरो शाह के नाम से सल्तनत की गद्दी पर बैठा। उसने आंतंकपूर्ण ढंग से शासन करके तुर्की आमिर वर्ग को भयभीत कर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया , जिसका अमीरो ने विरोध किया। अमीरो के इस विरोध का नेतृत्व गाजी मालिक ने किया ,जिसने सुल्तान को पकरकर उसकी गर्दन काटकर हत्या कर डाली ।


तुगलक वंश (१३२०-१४१२):------


------->गयासुद्दीन तुगलक (१३२०-१३२५):----
                                 गाजी मालिक जिसने खुसरो खा के लज्जास्पद या निंदनीय शासन का अन्त कियाथा ,सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक शाह के नाम से गद्दी पर बैठा तथा सल्तनत के तीसरे राजवंश की राजवंश की स्थापना की। तुगलक शब्द किसी जनजाति या कुल का नाम नही था ,अपितु यह गयासुद्दीन तुगलक का व्यक्तिगत नाम था।तुगलक सुल्तान करोना तुर्क जनजाति के थे ,जो की तुर्को और मंगोलों की एक मिश्रित जनजाति थी।
गयासुद्दीन एक अनुभवी योध्दा ,राजनेता तथा योग्य प्रशासक था। उसने कतिपय मामलो में प्रशासन का उदारीकरण किया।आर्थिक अपराधो के मामले शारीरिक यातनाए देना तथा ऋणो की वसूली को बंद करवा दिया। उसने भू-राजस्व के निर्धारण के लिए भूमि मापने की अलाउद्दीन की प्रणाली का भी परित्याग कर दिया।भू-राजस्व की दर को भी कम करके कुल उत्पादन का एक -तिहाई कर दिया।उसने सिचाई के लिए नहरो के निर्माण की योजना बनाई तथा सूखे की स्थिति में किसानो की सहायता के लिए उसने अकाल नीति को तैयार किया ।
उसने बंगाल ,गुजरात तथा साम्रज्य के अन्य भागो में फिर से व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया ।१३२१ में उसने शहजादे जोना खा (मुहम्मद बिन तुगलक) को दक्षिण भारत में सल्तनत के प्रमुख की पुनर्स्थापना के लिए भेजा।जोना खा ने वारंगल के काकतीय एंव मदुरा के पाण्ड्य साम्राज्य को विजित करके दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया।
                                           १३२५मे जब सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक बंगाल में सैनिक अभियान को समाप्त करके लौटा रहा था , तब शह्जादें जोना खा ने सुल्तान का स्वागत करने के लिए दिल्ली के पास अफगानापुर गाँव में लकड़ी का एक मण्डप तैयार किया। जिस मण्डप में सुल्तान का स्वागत किया जा रहा था वह अचानक गिर गया और सुल्तान अन्य कुछ गणमान्य व्यक्तिया के साथ इस मुडप के मलवे के निचे दब कर मर गया।यह  अफगानपुर दुर्घटना पूर्व नियोजित थी और शहजादे जोना खा ने सुल्तान की हत्या करको के लिए इस योजना को कार्यरूप दिया था ।

------>मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५-१३५१):--------
                                  गयासुद्दीन की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र जौना  खा , मुहम्मद  बिन तुगलक के नाम से सल्तनत की राजगद्दी पर आसीन हुआ ।दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों वे वह एक सर्वाधिक विलक्षण व्यक्तित्व वाला शासक था ।वह अरबी एवं फ़ारसी का महान विव्दान तथा ज्ञान -विज्ञान की विभिन्न विधाओ जैसे खगोलशास्त्र ,दर्शन ,गणित ,चिकित्सा-विज्ञान,तर्कशास्त्र आदि में पारंगत था। धर्म एवं दर्शनिक मामलो में वह तार्किक बुध्दिवादी था। हिन्दू योगियों और जैन सन्तो से परिचचए करको के मामलो में वह अकबर का पर्वानुगामी प्रतीत होता है। उसने रूढ़िवादी मुस्लिम उलेमाओं के राजनितिक प्रभात को नियत्रित कसे एंव राज्य की धर्मनिरपेक्ष समस्याओ का धर्मनिरपेक्ष ढंग से निदान का प्रयास किया ।
मुहम्मद बिन तुगलक की पांच महत्वाकांक्षी योजना जौ पूर्ण तरह विफल हो गई-----------------
१>राजधानी परिवर्तन :------
              सुल्तान की सर्वाधिक विवादास्पद योजना दिल्ली से देवगिरि में राजधानी परिवर्तन था।१३२७ में राजधानी परिवर्तन से पूर्व देवगिरि को दौलतावाद नाम दिया गया। सल्तनत के केंद्र में स्थित होने तथा दक्षिण का निकट होने के कारण दौलताबाद में राजधानी परिवर्तन किया गया था। राजधानी परिवर्तन दिल्ली का सम्पूर्ण जनसंख्या का पूर्ण निष्क्रमण था और इसके कारण दिल्ली नगर पूरी तरह से वीरान हो गया।जिन लोगो को दोलताबाद ले जाय गया था,उन्हें नया वातावरण पसंद नही आया।इन असंतोष के कारण सुल्तान के विरुध्द व्यापक रूप से वुरोध व्याप्त हो गया, जिसके परिणामस्वरूप सुल्तान ने दौलताबाद से दिल्ली राजधानी पुनर्स्थानांतरिक की ।
२>सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन :---
              सुल्तान की दूसरी विवादस्पद योजना सांकेतिक मुद्रा का चलन था।चांदी के टंका के स्थान पर कांसे के टंका का प्रचलन।कांसे के टंके का मूल्य चांदी के टंके के समतुल्य रखा गया अर्थात कोसे का टंका चांदी के टंका का प्रतीक या उसकी समतुल्य सांकेतिक मुद्रा था ।इस योजना की विफलता का मुख्य कारण व्यापक स्तर पर जाली या नकली सिक्को का प्रचलन था,जिसके कारण व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में पूर्ण अव्यवस्था व्याप्त हो गई ।परिणामस्वरूप सुल्तान को सांकेतिक मुद्रा वापस लीनी परी और उसने सांकेतिक सिक्को के बदले चांदी के सिक्के प्रदान किए।
३>खुरासान और इराक अभियान :---
               सुल्तान की तीसरी योजना जौ विफल रही ,वह था इराक एंव खुरासान की विजय के लिए सैनिक अभियान।सैनिक अभियान के लिए ३७००० सेनिको की विशाल फौज खड़ी की गई और सैनिक को पुरे एक वर्ष का अग्रिम वेतन प्रदान किया गया,पर इस संपूर्ण तैयारी के बावजूद इस अभियान को लक्षित उदेश्य के लिए रवाना नही किया जा सका और इस उद्देश के लिए खड़ी की गई फौज को भंग कर दिया गया।इस योजना का उस समय परित्याग करना पड़ा, जब सुल्तान को यह विदित हुआ की इराक में राजनितिक परिस्थितियों में काफी सुधार हो गया है ,जौ सैनिक अभियान भेजने के अनुकूल नही थी ।इस प्रकार विशेष राजनितिक परिस्थितियों के कारण ही इस अभियान की योजना बनाई गई थी और उन परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण ही इस योजना का परित्याग करना पड़ा।
४>कराचिल का सैनिक अभियान :-----
                               सुल्तान की अगली योजना कराचिल की विजय के लिए सैनिक भेजना था, इसका भी विनाशकारी अन्त हुआ ।कराचित की तुलना हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा के पर्वतीय प्रदेश के साथ की गई है ।चुकी यह क्षेत्र विद्रोहियों की शरणस्थली था, अतः इसे सुल्तान अपने नियत्रण के अधन लाना चाहता था।सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक का भतीजा खुसरो मलिक इस अभियान का सेनानायक था। वह कराचिल की सुगम विजय से इतना अधिक उत्साहित हो गया की वह तिब्बत तक आगे बढ़ गया।तिब्बत की सर्दी और बर्फीली तूफ़ान में उसकी लगभग संपूर्ण सेना मारी गई ,जौ सैनिक इस प्राकृतिक आपदा से बच गए वे प्लेग में मारे गए।
५>दोआब में लगान वृध्दि :-----
                            दोआब अर्थात गंगा-यमुना के मध्यवर्ती उपजाऊ क्षेत्र में लगान-वृध्दि सम्बन्धी सुल्तान की पांचावी और अंतिम योजना भी पूर्णतः विफल रही।इस योजना को सुल्तान ने अपने शासन के अंतिम दिनों में क्रियान्वित किया था।दोआब में लगान-वृध्दि को इस कारण लागू किया गया था, क्योकि यह सल्तनत का सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र था।परन्तु यह स्पष्ट नही है की लगान कितना बढ़ाया गया।पर दुर्भाग्य से इस योजना को गलत समय पर लागू किया गया था, क्योकि इस समय दोबारा भयंकर अकाल और तदुपरांत प्लेग की महामारी के चपेट में था ।इस संकटपन्न स्थिति में सुल्तान को क़्रषको को सहायता प्रदान करना पड़ा ।
मुहम्मद बिन तुगलक के शांसन के अंतिम दशक (१३४१-५१)के दौरान विद्रोह का सामना करना पड़ा ।अपने संपूर्ण शासनकाल में चौंतीस विद्रोह का सामना करना पड़ा ,जिनमे सताईस विद्रोह अकेले दक्षिण भारत में हुआ ।उसके जीवनकाल में ही संपूर्ण दक्षिण भारत स्वतंत्र हो गया।दक्षिण भारत के सल्तनत से पृथक हो जाने के प्रति सुल्तान ने संतोष कर लिया ,पर उसने गुजरात और सिंध में व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया।इस प्रयास के अंतर्गत उसने गुजरात में तो व्यवस्था स्थापित कर ली , पर सिंध में थट्टा की ओर जाते समय १३५१ मे उसकी मृत्यु हो गई  ।

---------->फिरोजशाह तुगलक (१३५१-८८):----
                                 मुहम्मद बिन तुगलक का सम्भवतः कोई पुत्र नहीं था और न उसने किसी को अपना उत्तराधिकारी नामजद किया था।ऐसी संकट की स्थिति में अमीरो ने सुल्तान के चचाजाद भाई फिरोज तुगलक को राजगद्दी को राजगद्दी पर बैठाया।पर सुल्तान में एक सफल शासक के गुर्णो एंव साहस दोनों का अभाव था। मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में जौ प्रदेशो सल्तनत से पृथक हो गए थे ,उन्हें पुनर्विजित करने का भी उसने कोई प्रयास नही किया ।उसने शक्तिशाली एंव सुसज्जित सेना के रख-रखाव की ओर भी ध्यान नहीं दिया ।उसके अकुशल ,ढीले प्रशासन ,कमजोर विदेश नीति और दोषपूर्ण सैनिक संगठन के दुष्प्रभावो के परिणामस्वरूप सल्तनत का तेजी से पतन और विघटन हो गया ।
प्रशासन के मामले में फरोज का दृष्टिकोण सस्ती लोकप्रियता अर्जित करना था। उसने कर प्रणाली को धार्मिक या महजबी स्वरूप प्रदान किया और कम से कम तेईस प्रचलित करो को समाप्त करके इस्लामी शरीयत कानून द्वारा अनुमत केवल चार करो- खराज ,जकात ,जजिया और खम्भ को आरोपित किया।अपने महजबी उत्साह पर भी जजिया लगाकर,इस कर व्यवस्था का विस्तात किया।उल्लेखनीय है की ब्रहामण अभी तक जजिया से मुक्त थे।
फिरोज अयोग्य एंव साहसविहीन एक अकुशल सेनानायक था।उसके अधिकाँश सैनिक अभियान निष्फल सिध्द हुए ।उसकी सर्वाधिक उल्लेखनीय सैनिक विफलता बंगाल के विरुध्द उसके दो निष्फल सैनिक अभियान थे।
१३८८ में बुढ़ापे की स्थिति में फिरोज तुगलक की मृत्यु हो गई। उसके शासन के अंतिम वर्ष त्रासदियों ,आपदाओ एंव विक्षोभों से ग्रस्त रहे ।
फिरोज तुगलक के उपरान्त उसका एक पौत्र तुगलक शाह गयासुद्दीन तुगलक व्दितीय के नाम से गद्दी पर बैठा ।अपने राज्यारोहण के दो वर्ष के भीतर ही वह षडयंत्रो का शिकार हो गया और १३८९ में गर्दन काटकर उसकी हत्या कर दी ।अगले पांच वर्षो के दौरान तीन सुल्तान -अबूबक्र ,मुहम्मद शाह और अल्लाउद्दीन सिकंदर शाह गद्दी पर बैठे।इनके बाद नासिरउद्दिन महमूद (१३९४-१४१२) सिंहासनारूढ़ हुआ, जो तुगलक वंश अंतिम शासक था।
सुल्तान नासिरउद्दिन महमूद के शासनकाल में मध्य एशिया के महान मंगोल सेनानायक तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया ।दिसंबर १३९८ में तैमूर की सेनाए दिल्ली तक जा पहुंची और तैमूर ने नगर में कत्लेआम का आदेश दिया।इस आदेश के बाद कुछ दिन तक दिल्ली के लोग लुटे, मारे और अपमानित किए जाते रहे।१३९९ के प्रारम्भ में तैमूर ने दिल्ली से विदा ली, "पर उसने भारत पर विपत्तियों और कष्टो का जो पहार ढाया था, ऐसा भयानक दुर्दशा केवलमात्र एक आक्रमण के दौरान किसी भी विदेशी आक्रमणकारी व्दारा कभी नहीं की गई थी ।"

सैयद वंश (१४१४-१४५१):------
             सैयद वंश के संस्थापक खिज्र खा ने मंगोल आक्रमणकारी तैमूर को सहयोग प्रदान किया था और उसकी सेवाओ के बदले तैमूर ने उसे लाहौर ,मुल्तान एंव दीपालपुर की सूबेदारी सौपी ।तैमूर के भारत से वापस जाते ही ,खिज्र खा ने स्वंय को उत्तर-पशिचमी भारत में तैमूर का वाइसराय घोषित करके सासन प्रारम्भ किया । जून १४१४ में उसने दिल्ली पर आक्रमण किया और उसका स्वामी बन बैठा ।खिज्र खा ने एक प्रभुतासंपन्न शासक के रूप में शासन नही किया, अपितु वह एक तैमूर के पुत्र एंव उत्तराधिकारी शाह रुख के प्रतिनिधि या डिप्टी के रूप में शासन करने का दिखावा करता रहा ।खिज्र खा का शासन दिल्ली क्षेत्र ,दोआब और पंजाब के पूर्वी भागो से आगे नही बढ़ पाया ।
खिज्र खा के तीनो उत्तराधिकारियों -----मुबारक शाह (१४२१-३३),मुहम्मद शाह (१४३४-४३)और अलाउद्दीन आलमशाह (१४४३-५१) ने सुल्तान की शाही उपाधि धारण की और प्रभुतासंपन्न शासको की भाति शासन किया ।सैयद वंश के तैतीस वर्षो के शासन के दौरान दिल्ली सल्तनत ब्राह्र आक्रमणों ,आंतरिक कुचक्रों ,अव्यवस्था और उपद्रवों से ग्रस्त रही ।इन परिस्थितियों से राज्य के सबसे प्रमुख आमिर बहलोल लोदी को दिल्ली पर अधिकार करने का अवसर मिल गया ।उसने अंतिम सैयद सुल्तान शाह आलम को गद्दी से उतार दिया तथा लोदी वंश की नीव डाली ।

लोदी वंश (१४५१-१५२६):-------
                    लोदी अफगान जाती के थे जिन्होंने ७५ वर्षो तक शासन किया लोदी वंश के संस्थापक बहलोल लोदी ने ३९ वर्षो(१४५१-८९)तक शासन किया ।उसकी अत्यंत महत्वपूर्ण राजनितिक उपलब्धि १४९४ में जौनपुर के शर्की राज्य की विजय थी ।
                                                       बहलोल लोदी का उत्तराधिकारी उसका पुत्र निजाम शाह था ,जो सिकंदर शाह (१४८९-१५१७)की उपाधि धारण कर दद्दी पर बैठा ।वह तीनो लोदी शासको में सबसे अधिक योग्य था उसने १४९४-९५ में दक्षिण बिहार पर विजय प्राप्त की तथा बंगाल के शासक अलाउद्दीन हुसैन शाह के साथ मित्रता की संधि की ।१५०६ में उसने आगरा नगर की स्थापना की तथा उसे अपनी राजधानी बनाया ।वह एक महान प्रशासक भी था ।उसने एक कुशल गुप्तचर व्यवस्था का गठन किया तथा राज्य के हिसाब -किताब की लेखा-परीक्षण प्रणाली की शुरुआत की।उसने अनाज -करो को सामप्त कर दिया ,जिससे लोगो की आर्थिक समृध्दि को अत्यधिक बढ़ावा मिला ।
अंतिम लोदी सुल्तान इब्राहिम लोदी (१५१७-२६) था जिसे १५२६ ई,में बाबर ने पानीपत के प्रथम युध्द में पराजित किया और मार डाला ।लोदी के पतन के साथ दिल्ली सल्तनत का भी अन्त हो गया ।

मुगल साम्राज्य (१५५६-१७०७):-------------


-------->बाबर :------
              जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने १५२६ ई, में पानीपत में इब्राहिम लोदी को पराजित कर भारत में मुगल साम्राज्य की नीव डाली। बाबर के पिता तैमूर और माता चंगेज खा के वंशज के थे ।मुगलो को तैमूर का वंशज होने का इतना गर्व था की वे स्वंय को तैमूरिया कहते थे।अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु होने पर बाबर को १४९४ई.में फ़रगना का पैतृक राज्य उत्तराधिकार  में प्राप्त हुआ ।मध्य एशिया में अपनी अनिश्चित स्थिति के कारण उसे सिंधु नदी को पार कर भारत पर पांच बार आक्रमण किए ।उसका पहला वास्तविक अभियान १५१९ में उस समय पूरा हुआ जब भेरा पर उसका अधिकार हुआ और पाँचवाँ अभियान अप्रैल१५२६ में पानीपत के प्रथम युध्द में इब्राहिम लोदी की पराजय से पूरा हुआ ।पानीपत के युध्द के समय हिन्दुस्तान की राजनितिक सत्ता अफगानों और राजपूतो के मध्य विभाजित थी ।बाबर व्दारा हिन्दुस्तान की विजय मेवाड़ के राणा संग्राम सिंग या राणा सांगा के पराजित होने से पूर्व तक अपूर्ण ही रही ।महाराण अपने समय के महापराक्रमी राजपूत राजा थे ।फलतः आगरा के पश्चिम की ओर लगभग ६० की.मी.दूर खनूजा नामक ग्राम के समीप १६मार्च ,१५२७ को बाबर और राणा संगा की सेनाओ के बीच एक निर्णायक युध्द हुआ ।इस युध्द में राणा संगा की हार हुई ।१५२८ में उसने राजपूत शासक मेदिनी राय से चंदेरी को जीत लिया तथा एक वर्ष बाद उसने बिहार में घाघरा के युध्द में महमूद लोदी के अधिक अफगान सरदारो को पराजित किया ।इस विजय अभयानो से बाबर हिन्दुस्तान का स्वामी बन गया ,लेकिन उसके भाग्य में अपनी विजय का फल भोगना नही लिखा था क्योकि इसके शीघ्र बाद ही २६ दिसंबर ,१५३०को आगरा में उसका निधन हो गया ।
बाबर के जीवन का विस्तृत उसकी आत्मकथा तजुक-ए-बाबरी या बाबरनामा में मिलता है ।जिसे उसने अपनी मातृभाषा (तुर्की ) में लिखा था ।

------------------->हुमायूँ(१५३०-१५५६):-----
                              बाबर के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र गद्दी पर बैठा  ।हुमायूँ को विरासत में ऐसा राजतंत्र मिला था जिसे केवल  युध्दकालीन परिस्थितियों में ही एकजुट बनाए रखा जा सकता था, जो शांतिकाल में कमजोर ,असंगठित तथा अस्थायी था ।बाबर की विजयो को मजबूत आधार नही मिल पाया था , सेना शक्तिहीन हो गई थी , तथा प्रशासन में भारी अव्यवस्था फैली हुई थी ।शाही खजाना प्रायः दिवालिया हो चुका था तथा सीमांत से आगे की शक्तिशाली राजनितिक शक्तियाँ ---मालवा,गुजरात और बंगाल मुगलो के विरुध्द सेनाबद्ध हो गई थी ।हुमायूँ ने पहले ही अपने पिता से उत्तराधिकारी में मिले हुए साम्राज्य को अपने तीन भाइयो ----कामरान ,हिन्दाल तथा अस्करी में बाँट दिया था।अफगानों जिन्हे अभी तक कुचला जाता था, ने भी अपना सर उठाना प्रारम्भ कर दिया ।इनमे शेर खा,जो शेरशाह के नाम से जाना जाता है, हुमायूँ का सबसे बड़ा शत्रु सिध्द हुआ ।१५४० में चौसा तथा कन्नौज के युध्दो में हुमायूँ को पराजित करके शेरशाह सूरी ने उसकी आशाओ को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया ।शेरशाह सूरी के हाथो हुमायूँ  को पराजित करके शेरशाह सूरी ने उसकी आशाओ को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया ।शेरशाह सूरी के हाथो हुमायूँ की अंतिम पराजय के बाद भारत में मुगल साम्राज्य अस्थायी तौर पर समाप्त हो गया ।फलतः हुमायूँ को लगभग पंद्रह वर्ष (१५४०-५५)प्रवाह में बिताने पड़े ।लेकिन सामाज्य पर पुनः अधिकार करने के शीघ्र बाद ही एक दुर्घटना में हुमायूँ की मृत्यु हो गई ।

-------------------->अकबर (१५५६-१६०५):------
                                  अपने पिता हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर केवल १४ वर्ष का किशोर था और बैरम खा के संरक्षण में था ।बैरम खा ने हुमायूँ की मृत्यु का समाचार सुनकर कलानौर में अकबर का राज्याभिषेक किया ।अकबर के सिंहासनारूढ़ होने के कुछ माह के भीतर ही बिहार के मुहम्मद आदिल शाह के महत्त्वाकांक्षी वजीर हेमू ने आगरा सहित बयाना से दिल्ली तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की ।नवंबर १५५६ में बैरम खा के नेतृत्व में मुगल सेना ने दिल्ली की ओर कूच किया और पानीपत के व्दितीय युध्द में हेमू को पराजित किया ।विजयोपरांत अकबर ने आगरा में प्रवेश किया जो एक बार फिर मुगल राजधानी बन गया ।आगामी चार वर्षो में बैरम खा ने हिन्दुस्तान के विभिन्न भागो में अफगान सत्ता को कुचल डाला ।इन चार वर्षो (१५५६-६०)के दौरान बैरम खा सम्राट के संरक्षक तथा वजीर के रूप में राज्य के सर्वोच्च पद पर आसीन रहा ।उसके हाथो में शक्ति के संकेन्द्रण उसके अहंकार तथा निरंकुशलता के कारण १५६० में उसका पतन हो गया ।
                                            बैरम खा के संरक्षण से स्वंय को मुक्त करने के बाद अकबर ने गम्भीरतापूर्वक विजय की एक रणनीति प्रारम्भ की ।मालवा के विरुध्द अभियान (१५६१)से लेकर असीरगढ़ के पतन (१६०१)तक ,उनकी भूमिका विजेता तथा साम्राज्य निर्माता की रही ।स्ंटिगञ सुलतान बाज बहादुर ने उसने १५६१मे मालवा को जीत लिया  ।बाद में सम्राट ने संगीतज्ञ के रूप में उनके कौशल का सम्मान किया और शाही दरबार में उसे मनसबदार का पद प्रदान किया ।उसी वर्ष उसने चुनार के सामरिक दुर्ग को जीत लिया ।
१५६२ई,तक वर्ष सम्राट के जीवन का संक्रान्तिकाल था जब अजमेर में खाजा मुइनुछिन चिश्ती की दरगाह की अपनी प्रथम तीर्थयात्रा के दौरान आमेर के राजा भारमल ने सम्राट के साथ अपनी ज्येष्ठ पुत्री के विवाह का प्रस्ताव किया ।यह विवाह पराक्रमी राजपूतो की राजनितिक तथा सैनिक सहायता प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम था ,जिन्हे दिल्ली के सुलतान न तो अपने अधीन कर सके थे न ही उन्हें अपना मित्र बना पाए थे ।इस प्रकार आमेर व्दारा मुगल -राजपूत मैत्री की नींव डाली गई, एकमात्र मेवाड़ को छोरकर अन्य राजपूत राज्यों ने भी इसका अनुकरण किया ।
१५६२में एक छोटी घेराबंदी के पश्चात मारवाड़ में मेरता के मजबूत दुर्ग पर अधिकार कर लिया गया ।मारवाड़ के शासक चंद्रसेन ने १५६३ में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली ।बीकानेर तथा जैसलमेर के शासको ने भी अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली ।१५७० के अन्त तक मेवाड़ के राजा को छोरकर राजस्थान के सभी प्रमुख राजाओ ने अकबर की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली । मेवाड़ के राणा उदय सिंह ने मुगल-राजपूत संबंध को स्वीकार करने से मना कर दिया तथा यही ,मालवा के बाज बहादुर को आश्रय देकर अकबर की अवमानना भी की ।मेवाड़ गुजरात के समृद्ध प्रांत के मार्ग में स्थित था जिसे कम से कम चितौड़ के दुर्ग को अधिकार में किए बिना विजित नही किया जा सकता था ।परिणामस्वरूप उसने मेवाड़ के विरुध्द एक सुविचारित आक्रमण की योजना बनाई ।१५६७ई. में अकबर ने स्वंय चित्तौड़ के दुर्ग को घेर लिया जिसका पतन भयंकर पतिरोध के पश्चात अगले वर्ष (१५६८)हुआ ।चितौड़ की विजय से मेवाड़ के मैदानी भू-भाग मुगलो के नियंत्रण में आ गए ,गुजरात विजय की बाधा समाप्त हो गई और शीघ्र ही रणथम्भौर की पराजय (१५६९) हुई और साथ ही मारवाड़ तथा बीकानेर भी मुगलो की अधीनता स्वीकार कर ली (१५७०) ।लेकिन मुगल-मेवाड़ संघर्ष चित्तौड़ के पत्तन के साथ ही समाप्त नही हुआ ।१५७२ई.में राणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राणा प्रताप सिंह ने फिर उसे जीत लिया ।इसके परिणामस्वरूप १८जुन ,१५७६ई. को हल्दीघाटी का प्रसिध्द युध्द हुआ ।आमेर के राजा मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना ने इस युध्द में विजय प्राप्त की, लेकिन मेवाड़ की आधीन नहीं बनाया जा सका ।१५९७ में अपनी मृत्यु तक राणा प्रताप ने यह संघर्ष जारी रखा तथा चित्तौड़ और मंडलगढ़ को छोरकर फिर से समूचे मेवाड़ के स्वामी बन गए ।अकबर की राजपूत नीति उसकी एक महानतम उपलब्धि सिध्द हुई । मालवा और मेवाड़ की विजय के उपरान्त गुजरात की विजय का मार्ग उन्मुक्त हो गया ।१५७२ में अकबर ने स्वंय गुजरात विजय अभियान का नेतृत्व किया और १५७३ में सूरत की घेराबंदी के साथ संपूर्ण गुजरात को विजित किया ।१५७४-७५ में अफगान सरदार दाऊद को पराजित करके बिहार और बंगाल की विजय को स्थायी रूप प्रदान किया गया ।आमेर के राजा मानसिंह ,जो बिहार के सूबेदार थे ,ने १५९२ में उड़ीसा को विजित किया ।उनकी इस सफलता के लिए पुरस्कार-स्वरूप उन्हें बंगाल का भी सूबेदार बना दिया गया ।
१५९१ में मुगलो की अधीनता स्वीकार करने के लिए खानदेश , बीजापुर ,गोलकुंडा तथा अहमदनगर व्दारा के सुल्तानों के पास मुगल राजपूत भेजे गए । इनमे में केवल खानतदेश के सुलतान अली खान ने ही अधीनता स्वीकार करने की इच्छा व्यक्त की ।अहमदनगर के सुलतान बुरहान निजाम शाह (१५९१-९५) की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का विवाद उठ खड़ा हुआ जिससे अहमदनगर के भूतपूर्व सुल्तान हुसैन निजाम शाह(प्रथम) की पुत्री तथा बीजापुर के अली आदिल शाह(प्रथम )की विधवा चाँद सुल्ताना ने वैध उत्तराधिकारी बहादुर के पक्ष का समर्थन किया ।वह एक बालक था,अतःअमीरो के एक समूह ने उसे बंदी बना लिया तथा सिंहासन के लिए दूसरे उम्मीदवार को प्रस्तुत किया ।इन मतभेदों से अकबर को अहमदवार को विजय का स्वर्ण अवसर मिल गया।१५९५ में अहमदनगर के विरुध्द अकबर के दूसरे पुत्र मुराद के नेतृत्व में किए गए साम्राज्यवादी अभियान के बाद चाँद सुल्ताना ने बरार का प्रदेश मुगलो को सौप दिया ।१६०१ में असीरगढ़ के किले पर अधिकार कर लिया गया ।अंततः खानदेश ,बरार और अहमदनगर के विजित प्रदेशो को मुगल साम्राज्य के दककणी सूबे के रूप में गठित किया गया ।असीरगढ़ अकबर के जीवन की अंतिम विजय था ।
                          अकबर ने ऐसे बहुत से उद्दारवादी कार्य किए जो उसके मुखर व्यक्तित्व तथा परम्पराओ से मुक्ति के परिचायक है।१५६२मे उसने एक आदेश पारित किया की युध्द के दौरान हिन्दू गैर-योध्दाओ को तथा योध्दाओ के परिवारो को न बंदी बनाया जाए और न उन्हें दास बनाया जाए या इस्लाम धर्म में धर्मान्तरित किया जाए ।दूसरे वर्ष उसने तीर्थयात्री कर समाप्त कर दिया ।१५६४ में जजिया समाप्त कर दिया ।उसने संस्कृत तथा अन्य कृतियों का फ़ारसी में अनुवाद करने के लिए एक अनुवाद विभाग खोला ।अकबर ने हिन्दू और मुसलमानो के लिए साम्राज्य के समस्त पदो के व्दारा समान रूप से उन्मुक्त कर दिए ।उसने हिन्दू भावनाओ के प्रति अत्यधिक सम्मान भी प्रकट किया ।गोमांस के प्रयोग का निषेध किया गया तथा बाद में १५८३मे विशेष अवसरों पर कतिपय पशुओ की हत्या को निषिध्द कर दिया गया ।हिन्दुओ को संतुष्ट करने के लिए अकबर हिन्दुओ के त्योहारो में सम्मिलित होता था ।उसने बाल विवाह तथा सत्ती प्रथा को हतोत्साहित करके तथा विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देकर समाजित सुधारो को बढ़ाने का भी प्रयास किया ।उसने विवाह के लिए धर्मपरिवर्तन का भी निषेध किया तथा अपनी राजपूत पत्नियों को अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करने की अनुमति देकर स्वंय उस आदर्श का अनुकरण किया ।अकबर के इन धार्मिक विचारो में परिवर्तन लाने में राजपूत पत्नियों ,टोडमल ,बीरबल तथा मानसिंह जैसे उसके हिन्दू पदाधिकारिओ ,फैजी तथा अबुल फजल जैसे विव्दानो तथा सोलहवीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन ने योगदान दिया ।दार्शनिक विचार -विमर्श और आध्यत्मिक खोज में उसकी गहरी रूचि थी।
१५७९ई,में अकबर ने यह निर्णय किया की अपनी मुस्लिम प्रजा को प्रभावित करने वाले सभी धार्मिक मामलो को स्वंय अपने हाथ में लेना आवश्यक है ।जिसके परिणामस्वरूप शेख मुबारक व्दारा एक घोषणा या महजरनामा का प्रारूप तैयार किया गया ।इस पर पांच उलेमाओं या इस्लामी धर्मविदो ने हस्ताक्षर किए ।१५७९मे महजरनामा की घोषणा व्दारा अकबर धार्मिक मामलो में सर्वोच्य या अंतिम निर्णायक बन गया ।इसके व्दारा उलेमाओं ने अकबर को इमाम-ए- आदिल घोषित करते हुए उसे किसी विवादस्पद कानूनी प्रशन पर आवश्यकता या परिस्थिति के अनुरूप निर्णय करने का अधिकार प्रदान किया गया। इस घोषणा के व्दारा उलेमाओं के अधिकार सम्राट को प्राप्त हो गया ।
            विभिन्न धर्मो के तुलनात्मक अध्यन के कारण अकबर ने १५८२ में दिन-ए -इलाही या दौहीद-ए-इलाही (देवी एकेश्वरवाद) के रूप में प्रसिध्द धार्मिक व्यवस्था तथा मुद्रा प्रणाली और माप -तौल की समान व्यवस्था प्रदान की ।अकबर ने कराधन के इस्लामी सिध्दांत को छोर दिया तथा भारत में प्रचलित उस सिध्दांत को अपनाया जिसमे कराधान राजा व्दारा प्रजा को कर प्रदान करती थी ।१५८२ में राजस्व मंत्री टोडरमल के निर्देशन में सम्पूर्ण भू-राजस्व व्यवस्था को नया रूप प्रदान किया गया ।टोडरमल व्दारा प्रचलित लगान व्यवस्था को टोडरमल बंदोबस्त या जब्ती व्यवस्था कहा जाता है ।
१५७५ में संपूर्ण मुगल साम्राज्य को बाहर सुबो या प्रांतो में विभजित किया गया ,दक्षिण विजय के उपरान्त जिनकी संख्या बढ़कर पंद्रह हो गई ।प्रत्येक सूबे सरकारों में तथा प्रत्येक सरकार को परगनों या महालो में उपविभजित किया गया ।सभी प्रांतो में भी एक समान प्रांतीय प्रशासन व्यवस्था स्थापित की गई ।
             अकबर के जीवन के अंतिम वर्ष (१६०२ई.) अपने ज्येष्ठ पुत्र सलीम के विद्रोह के कारण कष्टप्रद रहे ।मुगल दरबार दो समूह में विभाजित हो गया था ,एक समूह सलीम के उत्तराधिकार का समर्थन कर रहा था तो दुसरा समूह सलीम के पुत्र खुसरो के उत्तराधिकार का समर्थन कर रहा था ,जिसे अकबर भी पसंद करता था ।लेकिन १६०५ में अपनी मृत्यु के ठीक पहले स्वंग अकबर ने सलीम को ही अपना उत्तराधिकारी नामित किया जो जहांगीर की उपाधि से सिंहासन पर बैठा ।

------------------->जहाँगीर(१६०५-१६२७):----
                                     नरुद्दीन सलीम जहाँगीर का जन्म फतेहपुर सिकरी में स्थित 'शेख सलीम चिश्ती 'की कुटिया में राजा 'भारमल की बेटी मरियम जमानी' के गर्भ से ३० अगस्त ,१५६९ई.को हुआ।देश के सामान्य कल्याण तथा उत्तम प्रशासन के लिए बाहर 'आदेशो' या 'अध्यादेशों' के प्रवर्तन के साथ ही जहाँगीर के शासन का शुमारम्भ हुआ  ।
                                     जो शासन ऐसे संकल्प के साथ प्रारम्भ हुआ, उसे जहाँगीर के पुत्र खुसरो के लाहौर में किए गए विद्रोह को कुचल दिया ।विद्रोही शहजादे को बंदी बना लिया गया,उसे अँधा कर कैद में डाल दिया गया और बाद में १६२२ में खुर्रम ने उसकी हत्या करवा दी ।सीखो के पांचवे गुरु अर्जुनदेव के साथ बागी सहजादा खुसरो तरनतारन में ठहरा था और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था, इस अपराध में सरकार ने पहले गुरु अर्जुनदेव पर जुर्माना किया किन्तु जुर्माना अदा करने से इंकार करने पर उन्हें प्राणदंड दे दिया गया ।गुरु अर्जुनदेव के मृत्यु दण्ड से सीखो तथा मुगलो के मध्य गंभीर विरोध की शुरुआत हुई ।
                                  जहाँगीर ने अपना पहला सैनिक अभियान मेवाड़ के राणा प्रताप के पुत्र राणा अमरसिह के विरुद्ध शुरू किया था।१६०६ तथा १६०८-०९ में मवार के विरुध्द भेजे गए मुगल अभियान सफल  नही रहे ,लेकिन १६१३-१४ में शहजादा खुर्रम के नेतृत्त्व में भेजा गया अभियान निर्णायक सिध्द हुआ और राणा अगर सिंह ने १६१५ ई.में मगुलो के साथ संधि कर ली ।
                                   जहाँगीर ने नर्मदा के पार दक्कन में प्रादेशिक विस्तार के बारे में अपने पिता की योजना का अनुसरण किया ।पहला लक्ष्य अहमदनगर की अध्र्द-विजित सल्तनत रही ।तथापि ,जहाँगीर के शासनकाल के दौरान निज़ामशाही प्रधानमंत्री मलिक अंबर के अथक प्रयत्नो निज़ामशाही प्रधानमंत्री मलिक अंबर के अथक प्रयत्नो तथा युध्द कौशल के परिणामस्वरूप अहमदनगर की स्थिति में अत्यधिक सुधार आ गया था ।१६०८ के बार जहाँगीर ने अहमदनगर के विरुध्द कई बार सैनिक अभियान किए लेकिन करोड़ो रुपयो के व्यय तथा हजारो लोगो की जान चली जाने के बावजूद दक्कन में मुगल सीमा १६०१ में स्थापित की गई सीमाओ से एक मिल भी आगे नही बढ़ पाई ।
जहाँगीर के शासन की सबसे बड़ी असफलता फारस व्दारा कंधार पर अधिकार कर लेने की घटना थी ।फारस के शाह अब्बास ने (१५८७-१६२९),जो बाह्रा रूप से मुगलो से मैत्री का दावा कर रहा था,१६२२ में कंधार पर अधिकार कर लिया ।कंधार के प्रभाव से मध्य एशिया में मुगलो की प्रतिष्ठा पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव से मध्य एशिया में मुगलो की पतिष्ठा पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।लेकिन मुख्य रूप से नूरजहाँ के गुट की राजनीति के फलस्वरूप दरबार में विध्यमान अविश्वास के वातावरण के कारण कंधार पर पुनः अधिकार करने का कोई प्रयास नही किया गया ।
ईरानी मिर्जा ग्यास बेग की पुत्री युवा विधवा मिहरुन्निसा के साथ जहांगीर का विवाह उसके शासन की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी जिससें समकालीन स्थितियों पर गहरा प्रभाव पड़ा।उसके पहले पति शेर अफगान की हत्या के चार वर्षो बाद जहांगीर ने उससे विवाह किया तथा उसे नूर महल (महल की चांदनी )की उपाधि प्रदान की , जिसे बाद में बदलकर नूरजहाँ कर दिया गया ।विवाह के बाद राजधानी में उसका सामाजिक और राजनितिक प्रभाव लगातार बढ़ता गया ।१६१३ में पादशाह बेगम की उपाधि प्राप्त होने का गौरव प्राप्त हुआ ।उसके नाम से सिक्के डाले गए और सभी फरमानों पर सम्राट के हस्ताक्षर के साथ उसका नाम भी उल्लिखित किया गया ।
     नूरजहाँ के प्रभाव से उसके पिता मिर्जा गयास वेग को एतमाद-उत-दौला की प्रभावशाली उपाधि और उरके भाई को ऑसम खा की उपाधि मिली ।उसके अपने विवाह के एक वर्ष पश्चात आसम खा की पुत्री अर्जुमंद बानो बेगम ,जो मुमताज महल के रूप में सुविख्यात हुई,का विवाह जहांगीर के पुत्रो में सबसे योग्य पुत्र खुर्रम के साथ हुआ ।इससे नूरजहाँ ,एतमादुद्दौला,आसफ खा तथा खुर्रम के बीच संबंध और मजबूत हुए ।नूरजहाँ व्दारा शेर अफगान से जन्मी अपनी पुत्री, लाड़ली बेगम का निकाह जहांगीर के सबसे  छोटे पुत्र शहरयार के साथ १६२०ई,में कर देने के बाद इस चोगुते में फुट पर गई ।अब नूरजहाँ ने राजसिंहासन का समर्थन करना प्रारम्भ किया, जब की उसके भाई आसफ खा ने अपने दमाद खुर्रम (जिसें पहले ही शाहजहाँ की उपाधि प्रदान की जा चुकी थी )का पक्ष लिया ।मुगल दरबार से ही नूरजहाँ गट-समर्थक और गट-विरोधी दलों में विभाजित हो चुका था, लईकिन गुट-समर्थक और गुट-विरोधी दलों में विभजित हो चूका था , लेकिन गुट-समर्थको में विभाजन के परिणामस्वरूप एक तीसरा समूह भी बन गया था ।इस काल की अनेक घटनाएँ -----खुसरो की हत्या,महाबत खा का विद्रोह आदि इस दलीय राजनितिक का ही परिणाम थे ।इन घटनाओ से कंधार को पुनः विजित करने की सैनिक कार्रवाइयां पूरी तरह विफल रही ।जहांगीर के शासन के अंतिम वर्ष (१६२७)तथा उसके एक वर्ष बाद तक की सभी घटनाएँ उक्त गुट के षडयंत्रो का ही परिणाम था ।

इंग्लैंड के सम्राट जेगम प्रथम के दो पर्तिनिधियो -------कैप्टन हाँकिंस(१६०८-११) तथा सर थाँमस रो (१६१५-१९)ने जहांगीर के शासन का सुस्पष्ट चित्रण किया हे ।इन दोनों को भारत के साथ अंग्रेजो के व्यापार के लिए अनुकूल रियायतें प्राप्त करने के लिए मुगल दरबार में भेजा गया था ।थाँमस रो के प्रयासों के फलस्वरूप सूरत ,आगरा,अहमदाबाद और भड़ौच में अंग्रेजो ने फैक्ट्रियाँ स्थापित की ।


------------------>शहजहाँ (१६२८-१६५८):---
                                शहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री जगत गोसाई के गर्भ से ५ जनवरी ,१५९२ ई,को लाहौर में हुआ था ।उसका बचपन का नाम खुर्रम था ।खुर्रम जहांगीर का छोटा पुत्र था,जो छल-बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी बना ।
      अक्टूबर १६२७मे लाहौर में जहाँगीर की मृत्यु के समय शहजहाँ दक्कन में था।लाहौर में नूरजहाँ ने शहरयार को सम्राट घोषित कर दिया ,जबकि आसफ खा ने शाहजहाँ के दक्कन से आगरा वापस आने तक अंतरिम व्यवस्था के रूप में खुसरो के पुत्र दावर बख्श को राजगद्दी पर आसीन किया ।फ़रवरी १६२८मे शाहजहाँ के आगरा पहुंच जाने पर दावर बख्श को गद्दी से उतार दिया गया ।आसफ खा ने शहरयार को पराजित कर बंदी बना लिया और उसे अँधा कर दिया ।अब शाहजहाँ के लिए रास्ता साफ़ हो गया था ।फ़रवरी १६२८ में आगरा में शाहजहाँ मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ ।शहजहाँ के शासन-काल में मुगल साम्राज्य की समृध्दि ,शान-शौकत और ख्याति चरम सीमा पर थी ।उसके दरवार में देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति आते थे ।वे शाहजहाँ के वैभव और ठाट-बाट को देख कर चकित रह जाते थे ।उसके शासन का अधिकाँश समय सुख-शान्ति में बिता था ,उसके राज्य में खुशहाली रही ।उसके शासन की सब से बड़ी देन उसके द्वारा निर्मित सुंदर ,विशाल और भव्य भवन है।उसके राजकोष में आपार धन था ।
१६०६ई.में शाहजहाँ खुर्रम को ८००० जात एंव ५००० सवार का मनसब प्राप्त हुआ ।१६१२ई.में खुर्रम का विवाह आसफ खा की पुत्री "आरज़ूमन्द बानो बेगम (मुमताज महल )से हुआ, जिसे शाहजहाँ ने मलिका-ए-जमानी की उपाधि प्रदान की ।१६३१ई.में प्रसव पीरा के कारण उसकी,मृत्यु हो गई ।आगरा में उसके शव को दफना कर उसकी याद में संसार प्रसिद्ध "ताजमहल " का निर्माण किया गया ।
शाजहाँ की प्राम्भिक सफलता के रूप में १६१४ई.में उसके नेतृत्व में मेवाड़ विजय को माना जाता है ।१६१६ई.में शाहजहाँ व्दारा दक्षिण के अभियान में सफलता प्राप्त करने पर उसे १६१७ई. जहांगीर ने शाहजहाँ की उपाधि प्रदान की थी ।शाहजहाँ के शासन के प्रथम तीन वर्ष बुंदेला सरदार जुझारसिंह तथा खान जहां लोदी के विद्रोहों के कारण अशांत बने रहे ।इन विद्रोहों को कुचलने के बाद उसने हुमली से पुर्तगालियो को निकाल बाहर किया तथा १६३२मे उस पर कब्जा कर लिया और अंततः अहमनगर ने निज़ामशाही राज्य को भी मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया ।१६३६-३७ में स्वंय शाहजहाँ का दक्षिण आगमन हुआ तथा शक्ति पर्द्श के उपरान्त बीजापुर और गोलकुंडा के सुल्तानों को मुगल की प्रभुसत्ता स्वीकार करने और मुगलो को वार्षिक कर-राशि अदा करने के लिए बाध्य किए गए ।१६३२मे शाहजहाँ ने अपने पुत्र औरंगजेब को दक्कन या मुगल वाइसराय नियुक्त किया ।अपने प्रथम कार्यकाल में दौरान आठ वर्षो (१६३६-४४)तक इस पद पर बना रहा ।
                  शाहजहाँ ने सन१६४८ में आगरा की बजाय दिल्ली को राजधानी बनाया,किन्तु उसने आगरा की कभी उपेक्षा नही की ।उसके प्रसिध्द निर्माण कार्य आगरा में भी थे ।शाहजहाँ का दरबार सरदार ,सामंतो,प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा देश-विदेश के राजदूतों से भरा रहता था ।उसमे सबके बैठने के स्थान निश्चित थे । तख्त-ए-ताऊस  जिसे मयूर सिंहासन भी कहा जाता था ,वह शाहजहाँ का बैठने का राजसिंहास था ।मयूर सिंहासन ३.५ गज लम्बा, २ गज चोरा और ५ गज ऊचा था ।मयूर सिंहासन ठोस सोने से बना हुआ था और उसमे भमूल्य रत्न जोरे हुए थे ।उनका वजन ३१ मन २० सेर था ।सिंहासन के निर्माण में उस समय कुल लागत २ करोड़ ,१४ लाख ,५० हजार के लगभग थी ।यह लाल किला दिल्ली में था ।उसके प्रधान निर्माता का नाम "बेदखल खा" था ।
                    सम्राट अकबर ने जिस उदार धार्मिक नीति के कारण अपने शासन काल में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी,वह शाहजहाँ के काल में नही था ।उसमे इस्लाम धर्म के प्रति कटटरता और कुछ हद तक धर्मान्धता थी ।शाजहाँ का अंतिम वक्त बहुत कष्ट माय गुजरा ।शाहजहाँ के बीमार परने पर उसके चारो पुत्र दारा शिकोह, शाहशुजा ,औरंगजेब एंव मुराद बख्श में उत्तराधिकारी के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो गया।शाहजहाँ की मुमताज बेगम व्दारा उत्पन्न १४ संतानो में से ७ जीवित थी, जिनमे ४ लरके तथा ३ लरकियाँ ----जहान आरा ,शैशन आरा एंव गोहन आरा थे । औरंगजेब ने सत्ता के लिए सभी भाई-भतीजो को मारा और अपने वृध्द पिता को तख्त-ए-ताऊस से हटाकर आगरा के किले में कैद कर लिया और खुद सन १६५८ में मुगल सम्राट बन बैठा ।शाजहाँ ८ वर्ष तक आगरा के किले के शाहबुज में कैद रहा। उसका अंतिम समय बड़े दुःख और मानसिक क्लेश में बिता था।उस समय उसकी प्रिय पुत्री जहाँआरा उसकी सेवा के लिए साथ रही थी ।शाहजहाँ ने उन वर्षो को अपने वैभवपूर्ण जीवन का स्मरण करते और ताजमहल को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हुए बिताने थे अंत में जनवरी सन १६६६ में उसका देहांत हो गया ।उस समय उसकी आयु ७४ वर्ष की थी ।उसे उसकी प्रिय बेगम के पाश्र्व में ताजमहल में ही दफनाया गया था।
अब्दुल हमीद लाहौरी बादशाह शाहजहाँ का सरकारी इतिहासकार था ।उनके 'पादशाहनामा' नामक कृति की रचना की ।यह कृति शाहजहाँ का शासन का प्रमाणित इतिहास माना जाता है ।


--------------->औरंगजेब आलमगीर (१६८५-१७०७):---------
                                   मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब का जन्म ४ नवंबर १६१८ ई.में उज्जैन के दोहद नामक स्थान पर मुमताज के गर्भ से हुआ था।१६४३ ई.में औरंगजेब को १०,००० जात एंव ४००० सवार का मनसब प्राप्त हुआ । ओरछा के जुझर सिंह के विरुध्द औरंगजेब को प्रथम युध्द का अनुभूति प्राप्त हुआ ।१८ मई ,१६३७ई. को फारस के राजघराने की दिलरास बानो बेगम के साथ औरंगजेब का निकाह हुआ ।१६३६ ई.में १६४४ई. एंव १६५२ ई.से १६५७ ई, तक औरंगजेब गुजरात (१६४५ई.),मुल्तान (१६४०ई.)एंव सिंध का भी गवर्नर रहा ।आगरा पर कब्जा कर जल्दबाजी में औरंगजेब ने अपना राज्याभिषक "अबुल भुजफ्फर मुहीउद्दीन मुजफ्फर औरंगजेब बहादुर आलमगीर" की उपाधि से ३१ जुलाई,१६५८ ई को दिल्ली में करवाया ।खुजुवा एंव देवराई के युध्द में सफल होने के बाद १५ मई ,१६५९ई को औरंगजेब ने दिल्ली में प्रवेश किया, जहाँ शाहजहाँ के शानदार महल में जून ,१६५९ई को औरंगजेब का दूसरी बार राज्याभिषेक हुआ ।
                                औरंगजेब ने सुन्नी रूढ़िवादी वर्ग के अगुआ के रूप में राजसिंहासन पर अपना दाबा पेश करके ,उस पर अधिकार किया था । परिणामस्वरूप उसने अनेक कटटरवादी ,रूढ़िवादी और मुस्लिम प्रजा के सद्भाव और सहानुभूति को खो दिया ।१६५९ में उसने कुरान के नियमो के अनुरूप इस्लामी आचरण सहिंता के नियमो की पुनर्स्थापना के लिए अनेक अध्यादेश प्रसारित किए ।सिक्को पर कालिमा अभिलिखिल कराने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया और पारसी नववर्ष नौरोज का आयोजन भी बंद कर दिया गया ।कुरान के नियमो को क्रियान्वित करने के लिए बड़े-बड़े नगरो में सार्वजनिक नैतिकता अधीक्षकों (मुहलसीबो) की नियुक्ति की गई ।सम्राट के जन्मदिवस पर तुलादन उत्सव और झरोखादर्शन की पध्दति को भी बंद कर दिया गया ।अप्रैल १६६५ में एक राज्यादेश व्दारा विक्रम योग्य माल पर दो प्रतिशत और हिन्दू व्यापारियों के लिए पांच प्रतिशत निर्धारित किया गया ।१६६७ में मुस्लिम व्यापारियों पर लगने वाले इस शुल्क को पूरी तरह हटा दिया गया ।१६६८ में हिन्दुओ पर जजिया आरोपित किया गया ।औरंगजेब के इन तथ अन्य प्रतिक्रियावादी क्रायो के परिणामस्वरूप अकबर व्दारा स्थापित राज्य का धर्मनिरपेक्ष तथा भूर्ध्मी स्वरूप नष्ट होने लगा और मुगल साम्राज्य के आधारस्तम्भ धराशायी होने लगे ।
                                                         औरंगजेब की नीतियों के सिरूध्द हुए विद्रोहों के पीछे महत्वपूर्ण कारण उसका राजत्व सिद्धांत तथा उसकी धार्मिक अशिषुणता थी ।किसानो के विद्रोह के पीछे धार्मिक कारण ,राजपूतो के विद्रोह के पीछे एक अलग अफगान राज्य के गठन की भावना कार्य कर रही थी ।औरंगजेब के अंतिम समय में दक्षिण में मराठे का जोर बहुत बढ़ गया था ।उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नही मिल रही थी ।इसीलिए सन १६८३ में औरंगजेब स्वंय सेना लेकर दक्षिण गया ।वह राजधानी से दूर रहता हुआ, अपने शासन-काल के लगभग अंतिम २५व्र्श तक उसी अभियान में रहा ।५० वर्ष तक शासन करने के बाद उसकी मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में ३ मार्च सन १७०७ई में हो गई ।दौलताबाद में स्थित फकीर बुरहानुद्दीन की क्रब के अहाते में उसे दफना दिया गया ।उसकी नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिए ,जिस कारण मुगल साम्राज्य का अंत ही हो गया ।

इतिहाससकारो ने उसके बारे में इस तरह लिखा ------------------------------------------------------
         "बाबर ने मुगल राज्य के भवन के लिए मैदान साफ़ किया ,हुमायूँ ने उसकी नीव डाली ,अकबर ने उस पर सुंदर भवन खरा किया ,जहांगीर ने उसे सजाया -सवारा ,शाहजहाँ ने उसमे निवास कर आनंद किया ,किन्तु औरंगजेब ने उसे विध्वंस कर दिया था ।"

-------------------->बहादुर शाह प्रथम (१७०७-१७१२ई.):------
                                   बहादुर शाह प्रथम का जन्म १४ अक्टूबर ,सन १६४३ई, में बुरहानपुर ,भारत में हुआ था ।बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवां मुगल बादशाह था ।शहजादा मुअज्जम कहलाने वाले बहादुरशाह ,बादशाह औरंगजेब के दूसरे पुत्र थे ।
बहादुर शाह प्रथम को शाहआलम प्रथम या आलमशाह प्रथम के नाम से भी जाना जाता है ।बादशाह बहादुर शाह प्रथम के चार पुत्र थे -----------जहाँदारशाह ,अजीमुरशान ,रफिऊषाण और जहानशाह ।
                              औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके ६३ वर्षीय पुत्र मुअज्जम (शाहआलम  प्रथम ) ने लाहौर के उत्तर में स्थित शहङोला नामक पल पर मई १७०७ में बहादुर शाह के नाम से अपने को सम्राट घोषित किया ।बूंदी के बुद्धसिंह हारा तथा अंबर के विजय कछवाहा को उसने पहले से ही अपने ओर आकर्षित कर लिया था ।उनके माध्यम से उसे बड़ी संख्या में राजपूतो का समथर्न प्राप्त हो गया ।उत्तराधिकारी को लेकर बहादुशाह प्रथम एंव अामजशाह में सामूगढ़ के समीप जाजऊ नामक स्थान पर १८ जून ,१७०८ को युध्द हुआ जिसमे आजमशाह तथा उसके दो बेटे बीदर बख्त तथा वलाजाह मारे गए ।बादषाह प्रथम को अपने छोटे भाई कामबख्श से भी मुलग सिहासन के लिए लड़ाई लड़ाई लरनी पड़ी।कामबख्श ने १३ जनवरी ,१७०९ को हैदराबाद के नजदीक बहादुरशाह प्रथम के विरुध्द युध्द किया ।युध्द में पराजित होने के उपरान्त कामबख्श की मृत्यु हो गई ।
अपनी विजय के बाद बहादुरशाह प्रथम ने अपने समर्थको को नई पदवियाँ तथा उचे दर्जे प्रदान किए।मुनीम खा को वजीर नियुक्त किए गया । औरंगजेब के बजीर ,असद खा को वकील-ए-मुतलक का पद दिया था, तथा उसके बेटे जुल्फिकार खा को मीर बख्सी बनाया गया ।बहादुरशाह प्रथम गद्दी पर बैठने वाला सबसे वृद्ध मुगल शासक था ।जब वह गद्दी पर बैठा ,तो उस समय उसकी उम्र ६३ वर्ष थी ।वह अत्यंत उदार ,आलसी तथा उदासीन व्यक्ति था ।
                                         बहादुरशाह प्रथम के शासन काल में दरबार में षड्यंत्र बढ़ने लगा ।बहादुरशाह प्रथम शिया था, ओर उस कारण दरबार में दो दल विकसिक हो गए थे -----१>ईरानी दल २>तूरानी दल   ईरानी दल शिया मत को मानने वाले थे ,जिसमे असद खा तथा उसके बेटे जुल्फिकार खा जैसे सरदार थे ।तूरानी दल सुन्नी मत के समर्थक थे,जिसमे चिंकिलिच खा तथा फिरोज गाजीउद्दीन जंग लोगो थे ।
                         बहादुरशाह प्रथम उत्तराधिकार के युध्द के समाप्त होने के बाद सर्वप्रथम राजपुताना की ओर रुख किए ।उसने मारवाड़ के सजा अजित सिह को पराजित कर उसे ३५०० का मनसब एंव महराज की उपाधि प्रदान की ,परन्तु बहादुर शाह प्रथम के दक्षिण जाने पर अजित सिंह ,दुर्गादास एंव जयसिंह कछवारा ने मेवाड़ के महाराजा अमरजीत सिंह के नेतृत्व में अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया ओर राजपुताना संघ का गठन किए ।बहादुरशाह प्रथम ने इन राजाओ से संघर्ष करने के बेहतर संधि करना उपित समक्षा और उसने इन शासको को मान्यता दे दी । बहादुरशाह प्रथम के दरबार में १७११ में एक डच प्रतिनिधि शिष्टमंडल जेसुआ केटेलार के नेतृत्व में गया ।इस शिष्टमंडल का दरबार में स्वागत किया गया ।इस स्वागत में एक पुर्तगाली श्री जुलियानी की महत्वपूर्ण भूमिका थी । उसकी इस भूमिका के लिए उसे बीबी फिदवा की उपाधि दी गयी ।२६ फ़रवरी ,१७१२ को बहादुर शाह प्रथम की मृत्यु हो गई ।मृत्यु के पश्चात उसके चारो पुत्रो जहाँदारशाह ,अजीमुरशान और जहानशाह में रफीउरशान में उत्तराधिकारी का युध्द आरंभ हो गया ।फलतः बहादुरशाह का शव एक महीने तक दफनाया नही जा सका ।

मुगल साम्रज्य का तीव्रगामी और पूर्ण पतन मुगल सम्राटो की राजनितिक तुच्छता और शक्तिहीनता का दयोतक था ।मुगल शासक जो अपने एशो-आराम में ही दुबे रहते थे ,जिन्हे शासक व साम्राज्य की कोई चिंता ही नही थी , उनको प्रजा ने निम्न से पुकारना प्रारम्भ कर दिया था ---------------
१>बहादुरशाह ------शाहे बेखबर
२>जहाँदारशाह ------लम्पट मुर्ख
३>फ़र्रुख़सियर -------घ्रणित कायर
४>मुहम्मशाह----------रंगीला


----------->जहाँदारशाह (१७१२-१७१३ ई.):------
                               जहाँदारशाह बहादुरशाह प्रथम के चारो पुत्र में से एक था ।५१ वर्ष की आयु में झांडाशाह २९ मार्च,१७१२ को मुगल राजसिंहासन पर बैठा ।जुल्फिकार खा इसका प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया तथा असद खा वकील-ए-मुतलक के पद पर बना रहा ।जहाँदारशाह के शासनकाल चारणो और गायको ,नर्तकों एंव नाट्यकर्मियो के समस्त वर्गो के लिए बहुत अनुकूल था ।जहाँदारशाह के शासनकाल में प्रशासन की पूरी बागडोर जुल्फिकार खा के हाथो में थी ।दरबार में अपनी स्थिति मजबूत बनाने तथा साम्राज्य को बचाने के लिए यह आवश्यक था की राजपूत राजाओ तथा मराठो के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया जाय ।इसीलिए उसने राजपूतो की तरह मैत्रीपूर्ण कदम बढ़ाते हुए ,आमेर के जयसिंह को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया जाया तथा मिर्जा राजा की पदवी दी ।मारवाड़ के अजित सिंह को महारजा की पदवी दी और गुरात का शासक नियुक्त किया ।उसने जजिया कर को भी समाप्त कर दिया ।
जागीरों और ओहदों की अंधाधुंध वृद्धि पर रोक लगाकर जल्फ़िक़ार खा ने साम्राज्य की वित्तीय को सुधारने का प्रयास किया,किन्तु उसने एक गलत प्रवृति इजारा व्यवस्था को बढ़ावा दिया ।इसके अंतर्गत इजारेदार (लगान के ठेकेदारो )और बिचैलियों सरकार को एक निश्चित मुद्रा राशि दे ।बदले में किसानो से जितना लगान वसूल कर सके उतना वसूलने के लिए आजाद छोर दिया।इससे किसानो का उत्पीरण बढ़ा ।
जहाँदारशाह अयोग्य एंव विलासी सम्राट था ।उसने अपने शासन के कार्यो में लाल कुँवर नाम की वेश्या को हस्तक्षेप करने का अधिकार दे रखा था ।अतः अजीमुरशान के पुत्र फ़र्रुख़सियर ने पटना के सूबेदार सैयद बंधु हसेल अली बंधु एंव उसके बड़े भाई इलाहाबाद के सहायक सूबेदार अब्दुल्ला खा के सहयोग से १० जनवरी १७१३ को आगरा में जहादाशाह को बुरी तरह परास्त किया ।११ फ़रवरी १७१३ को असद खा एंव जुल्फिकार खा ने इसकी हत्या कर दी ।

उस समय के इतिहासकार इरादत खा जहाँदारशाह के शासनकाल के बारे में लिखा है "उल्लू बाज के घोसले में रहता था तथा कोयल का स्थान कोवे ने ले लिया था ।

-----------------फ़र्रुख़सियर (१७१३-२८ अप्रैल १७१९):--------
                                        सैयद बंधु अब्दुला खा और हुसैन अली खा की मदद से फ़र्रुख़सियर ११ जनवरी ,१७१३ को मुगल राजसिंहासन पर बैठा ।फ़र्रुख़सियर मुगल वंश के अजीमुरशान का पुत्र था ।उसने अब्दुल्ला खा को वजीर का पद एंव कुतुबलुमूलक की उपाधि तथा हुसैन अली खा को आमिर-उल-अमरा तथा मीर बख्सी का पद दिया ।
                                     इसके काल में मुगल सेना ने १७ दिसंबर १७१५ को सिक्ख नेता बंदा सिंह को उसके ७४० समर्थको के साथ बंदी बना लिया ।बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार न करने के कारण इन सबकी निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई ।इस प्रकार फ़र्रुख़सियर के समय की महत्वपूर्ण घटना सिक्ख विद्रोह की समाप्ति थी ।
१७१७ ई,में फ़र्रुख़सियर के दरबार में एक दूतमण्डल भेजा गया ,यह दूतमण्डल कलकत्ते से जॉन स्टीफेंसन कर रहा था ।इस दूतमण्डल में विलियम हेमिल्ट नामक सर्जन तथा ख्वाजा सेहुर्द नामक एक आर्मीनियाई दुभाषिया भी थे ।हेमिलटन ने बादशाह फ़र्रुख़सियर की एक खतरनाक बिमारी से छुटकारा दिलाने में सफलता प्राप्त कर ली ,जिससे सम्राट ने अंग्रेज से प्रसन्न होकर १७१७ में एक शाही फरमान जारी किया ।इस फरमान के अंतर्गत अंग्रजो को तीन हजार रूपये वार्षिक कर के बदले बंगाल में व्यापार करने का वशेषाधिकार मिल था ।
                            दैवयोग से सैयद बन्दुओ को सम्राट के षड्यंत्र का पता चल गया इसीलिए उन्होंने पहले ही फ़र्रुख़सियर के विरुद्ध षड्यंत्र रचकर २८ अप्रैल १७१९ को गला घोट कर उसकी हत्या कर दी ।
            मुगल साम्राज्य के इतिहास में किसी आमिर द्वारा किसी मुगल बादशाह की हत्या का यह पहला उदाहरण था ।



-----------------रफ़ीउद्दाराजात (२८ फ़रवरी से जून ,१७१९ई.):---------
                                 सैय्यद बंधुओ ने रफीउद्देशनजात को २८ फ़रवरी १७१९ को सिहांसन पर बैठाया ।यह भी अल्प समय तक ही शासन कर सका ।
इसके काल की उल्लेखनीय घटना नेकसियर का विद्रोह था।
                                     रफीउद्देशनजात की मृत्यु क्षय रोग के कारण ४जुन १७१९ई. में हो गई ।


--------------->रफ़ीउद्दौला (६ जून से १७ सितमबर ,१७१९ई):-----
                               रफीउददाशाजात की मृत्यु के बाद सैय्यद बंधुओ ने रफीउद्दशाजात के छोटे भाई रफ़ीउद्दौला को दिल्ली में मुगल वंश की गद्दी पर बैठाया ।रफ़ीउद्दौला ने ६ जून से १७ सितमबर १७१९ ई.तक ही शासन किया ।यह ग्यारहवां मुगल बादशाह था ।गद्दी पर बैठने के बाद इसने शाहजहाँ शानी ,शाहजहाँ द्वितीय की उपाधियाँ धारण की ।यह भी अपने भाई की तरह सैयद बंधुओ के हाथ की कठपुतली ही बना रहा ।अल्प काल के समय में ही सैयद बंधुओ ने इसे भी गद्दी से उतार  दिया ।इसकी मृत्यु भी पेचिश रोग के कारण हुई ।


--------->नेकसियर :------
              नेकसियर औरंग़ज़ेब का पौत्र और अकबर द्वितीय का पुत्र था ।वह उन पांच कठपुतली बादशाहो में से तीसरा था, जिन्हे सैयद बंधुओ ने सिंहासनासीन किया था ।सैयद बंधुओ ने उसे १७१९ ई.में दिल्ली में मुगल गद्दी का अधिकारी बनाया था ।वह थोड़े दिनों के लिए ही बादशाह बन पाया।
       मुहम्मद इब्राहिम को राजगद्दी पर बैठाने के लिए सैयद बंधुओ ने उसे गद्दी से उतार दिया ।



---------->मुहम्मद इब्राहिम :-----
                    मुहम्मद इब्राहिम मुगल वंश का १३ वाँ बादशाह था ।यह बहादुरशाह प्रथम के तीसरे पुत्र रफीउरशान का पुत्र था ।इसे भी कुछ समय बाद ही सैयद बंधुओ ने गद्दी से उतार दिया और धोखे से मरवा दिया ।
                     उस समय दिल्ली के बादशाह को बनाना और बिगारणा इन सैयद बंधुओ के हाथो में ही था ।इसिलीए सैयद बंधू भारत के इतिहास में बादशाह बनाने वाले के नाम से मशहूर है ।


----------->मुहम्मदशाह रौशन अख्तर (१७१९-१७४८ ई.):-----
                            मुहम्मदशाह रौशन अख्तर ने लम्बे समय तक मुगल साम्राज्य पर शासन किया ।रफ़ीउद्दौला की मृत्यु के बाद सैय्यद बन्दुओ ने उसको गद्दी पर बैठाया था ।जहानशाह का चौथा बेटा था ।
              इसके काल में बंगाल,बिहार तथा उड़ीसा में मुर्शिद कुली खा ,अवध में सआदत खा तथा दक्कन में निजामुलमुल्क ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली ।मुहम्मदशाह एक अयोग्य शासक था ।वह अपना अधिकाँश समय पशुओ की लड़ाई देखने तथा वेश्याओ और मदिरा के बीच गुजारता था ।इसी कारण उसे रंगीला के उपनाम से भी जाना जाता था ।
             दरबार में सैय्यद बंधुओ के बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण एक रोष उतपन्न हुआ तथा उन्हें समाप्त करने का षड्यंत्र किया गया ।इस षड्यंत्र में ईरानी दल का नेता मुहम्मद अमिन खा, मुहम्मदशाह तथा राजमाता कुदसिया बेगम शामिल थी ।८ अक्टूबर १७२० को हैदर बेग ने छुरा घोंपकर हुसैल अली हत्या कर दी ।अपने भाई का बदला लाइन के लिए अब्दुल्ला खा ने विशाल सेना लेकर मुहम्मदशाह के विरुद्ध चढ़ाई कर दी ।१३ नवंबर १७२० को हसनपुर के स्थान पर अब्दुल्ला खा हार गया ,उसे बंदी बना लिया गया और विश देकर मार डाला गया ।इस प्रकार मुहम्मदशाह के शासनकाल में सैय्यद बंधुओ का पूरी तरह से अंत हो गया ।


------------>बादशाह अहमदशाह (१७४८-१७५४ई.):------
बादशाह अहमदशाह ने मुगल साम्राज्य १७४८ से १७५४ ई.तक शासन किया था ।अहमदशाह का जन्म एक नर्तकी के गर्भ से हुआ था ।मुहम्मदशाह रोशन अख्तर की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी के रूप में अहमदशाह गद्दी पर बैठा।उसने अवध के सूबेदार सफदरजंग को अपना वजिय या प्रधानमंत्री नियुक्त किया ।राज्य का कामकाज हिज्रो तथा औरतो के एक गिरोह के हाथो था, जिसकी मुखिया राजमाता उधमबाई थी ,जो मुहम्मदशाह के साथ विवाह केने से पहले लोगो के सामने नाचने-गाने वाली एक लरकी थी ।
   अहमदशाह के समय उसका प्रिय (हिजड़ा)जावेद खा देबारी दल का नेता था ।उसे नवाब बहादुर की उपाधि प्रदान की गयी थी ।प्राशासनिक कार्यो में राजमाता का पूरा हस्तक्षेप था ।उसे विला-ए-आलम की उपाधि प्राप्त थी ।अहमदशाह एक अयोग्य और अय्याश बादशाह था,तथा उसमे प्रशासनिक क्षमता बिलकुल नही थी ।उसने प्रशासन के क्षेत्र में एक मूर्खतापूर्ण कार्य करते हुए अपने ढाई वर्ष के पुत्र मुहम्मद को पंजाब का गर्वनर नियुक्क्त किया और एक वर्ष के बेटे को उसका डिप्टी बना दिया ।इसी प्रकार कश्मीर की गर्वनरी सैय्यद शाह नामक एक बच्चे को सौपी तथा १५ वर्ष के एक लरके को उसका डिप्टी नियुक्त किया गया ।ने नियुक्तयां उस समय की गयी ,जब अफगान हमलो का खतरा बहुत अधिक था ।
 मुगल सम्राट अहमदशाह के काल में मुगल अर्थव्यवस्था  पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गयी ।सेना को वेतन देने के लिए शाही सामनो बिक्री सरणी पड़ी।कई जगह वेतन न मिलने के कारण सेना ने विदोह कर दिया ।दिल्ली षडयंत्रो तथा विदेशी गुटो का अड्डा बन गयी ।उस समय दरबार का सबसे महत्वपूर्ण मंत्री अवध का नवाब बजीर सफदरजंग था ।बादशाह में उसका तालमेल ठीक नहीं था ।वह बादशाह की अज्ञा के बिना ही आदेश जारी कर देता था ।बादशाह ने इसकी प्रतिकिया में जावेद खा की हत्या कर दी गए । इसके बाद निजामुलमुल्क तथा सफदरजंग के बीच सहयोग से इमादुल्मुल्क सफदरजंग को हटाकर मुगल साम्राज्य का वजीर बन गया ।
                  वजीर बनने के बॉस इमादुल्मुल्क ने गाजीउद्दीन को मुगल दरबार में बुलाया और यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया  की इस बादशाह ने अपने शासन करने में अपनी अयोग्यता दिखाई  है। वह मराठो का मुकाबला करने में अयोग्य है ।वह अपने मित्रो के प्रति क्षुठा और अस्थिर है ।इसे हटा दिया जाए और तैमूर के किसी योग्य सुपुत्र को गद्दी पर बैठाया जाए ।यह प्र्ताव पास हो गया ।अहमदशाह को गद्दी से हटाकर उसे अंधा कर दिया गया और सलीमगढ़ की जेल में दाल दिया गया ।

------------------->आलमगीर द्वितीय (१७५४से १७५९ई.):------------
                                    आलमगीर द्वितीय १६वा मुगल बादशाह था,जिसने १७५४ से १७५९ई.तक राज्य किया ।आलमगीर द्वितीय आठवे मुगल बादशाह जहाँदारशाह का पौत्र था। अहमदशाह को गद्दी से उत्तर दिए जाने के बाद आलमगीर द्वितीय को मुगल वंश का उत्तराधिकारी घोषित किया गया था ।इसे प्रशासन का कोई अनुभव नही था ।वह बड़ा कमजोर व्यक्ति था,और वह अपने वजीर गाजीउद्दीन के नाम से भी जाना जाता है ।वजीर गाजीउद्दी ने १७५९ ई.में आलममीर द्वितीय की हत्या करवा दी थी ।
आलमगीर द्वितीय के शासन काल में साम्राज्य की सैनिक और वित्तीय स्थिति पूर्णतः अस्त-व्यस्त हो चुकी थी।भूख से मरते सैनिक के दंगे और उपद्रव आलमगीर के शाशन काल में दिन-प्रतिदिन की घटना थी ।वजीर गाजीउद्दीन की मनमानी से भी आलमगीर के नियंत्रण से अपने को मुक्त करने का प्रयास किया ,तो १७५९ ई.में वजीर ने उसकी भी हत्या करवा दी ।उसकी लाश को लाल किले के पीछे यमुना नदी में फेंक दिया गया ।



---------------->आलमशाह द्वितीय (शाहआलम द्वितीय )(१७५९-१८०६ ई.):----------
                                          आलमशाह द्वितीय या शाहआलम द्वितीय (१७५९-१८०६ई.)१७ वाँ मुगल बादशाह था ।इसका असली नाम शाहजादा अली गौहर था ।वह आलमगीर द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में १७५९ ई.में गद्दी पर बैठा ।बादशाह शाहआलम द्वितीय ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से इलाहबाद की संधि कर ली थी और वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन-यापन कर रहा था ।
१७५९ई,में राजगद्दी पर बैठने के साथ ही अली गौहर ने बादशाह होने पर आलमशाह द्वितीय का खिताब धारण किया ।इतिहास में वह शाहआलम द्वितीय के नाम से प्रसिद्द है ।उसके पिता आलमशाह द्वितीय को उसके सत्तलोलुप और कुचक्री वजीर गाजीउद्दीन ने तख्य से उतार दिया था ।वह नए बादशाह को भी अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था ।आलमशाह द्वितीय के गद्दी पर बैठने के दो साल पहले प्लासी की लड़ाई में ईस्ट इडिया कम्पनी की विजय हो चुकी थी जिसके फलस्वरूप बंगाल,बिहार और उड़ीसा पर उसका शासन ख़त्म हो चुका था ।जिस समय शाहआलम द्वितीय गद्दी पर बैठा ,उस समय उसका वजीर उसके खिलाप गद्दारी कर रहा था ।पूर्व में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ताकत बढ़ रही थी तथा पंजाब में अहमदशाह अब्दाली ताक लगाये बैठा था ।
     शाहआलम द्वितीय ने अपने तख्त के लिए अब्दाली को सबसे ज्यादा खतरनाक समक्षा ।इसीलिए उसने अब्दाली के पंजे से बचने के लिए मराठो को अपना संरक्षक बना लिया ।लेकिन १७६१ ई.में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली ने मराठो को हरा दिया ।उसने शाहललम द्वितीय को दिल्ली तख्त पर बने रहने दिया ।१७६४ ई में शाहआलम अपनी शक्ति बढ़ाने का दुसरा प्रयास किया और बंगाल से अग्रेजो को निकाल बाहर करने के लिए अवध के नवाब शुजाउददौला और बंगाल के भगोड़े नावब मीर कासिम से संधि कर ली ,परन्तु संग्रेजो ने बक्सर की लड़ाई (१७६४ई.) में शाही सेना को हरा दिया और बादशाह शाहआलम दिवितीय ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से इलाहाबा की संधि कर ली ।इस संधि के द्वारा बादशाह को कोरा और इलाहाबाद के जिले अवध से मिल गए और बादशाह ने बंगाल ,बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार )कम्पनी को इस शर्त पर सौप दी वह उसे २६ लाख रूपये सालाना खिराज देगी ।लेकिन शाहआलम को यह लाभ थोड़े तक ही मिला ।
        दूसरे मराठा युद्ध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौजो ने जनरल सेक के नेतृत्व में महादजी शिंदे की सेना को दिल्ली के निकट पराजित किया ।इसके बाद शाहआलम द्वितीय और उसकी राजधानी दिल्ली दोनों पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का नियंत्रण स्थापित हो गया ।बादशाह अब बूढ़ा हो चला था और अंधा भी हो गया था ।वह प्रनतया निःसहाय था ।वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन-यापन कर रहा था ।अंत में १८०६ ई.में उसकी मृत्यु हो गई ।


--------------->अकबर द्वितीय (१८०६-१८३७ ई.):---------
                            अकबर द्वितीय मुगल वंश का १८ वाँ बादशाह था ।वह शाहआलम द्वितीय का पुत्र था और उसने १८०६-१८३७ ई.तक राज किया ।उसके समय तक भारत का अधिकाँश राज्य अंग्रेजो के हाथो में चला गया था और १८०३ में दिल्ली  पर भी उनका कब्जा हो गया ।अकबर द्वितीय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कृपा के सहारे नाम मात्र का ही बादशाह था ।अकबर द्वितीय से गवर्नर-जनरल लाड हेस्टिंग्स (१८१३-१८२३) की ओर से खा गया की वह कम्पनी के क्षेत्र पर अपनी बादशाहत का दावा छोर दे ।लाड हेस्टिंस ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से मुगल बादशाह को दी जाने वाली सहायता आदि नजरंदी कर दी ।इस पर अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को राजा की उपाधि प्रदान की तथा उनसे इंग्लैंड जाकर बादशाह की पेंशन बढ़ाने की सिफारिश करने का आग्रह किया ।
अकबर द्वितीय का लरका ओर उसका उत्तराधिकारी बहादुरशाह जफर द्वितीय भारत का अंतिम मुगल बादशाह था ।



------------------>बहादुर शाह जफर (अबु जफर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह जफर):------------
                         बहादुर शाह जफर का जन्म २४ अक्टूबर सन १७७५ ई.----मृत्यु ७ नवंबर सन १८६२ ई. ।यह मुगल साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे ।इनका शासनकाल १८३७-५७ तक था ।बहादुर शाह जफर एक कवि,संगीतकार व शुशनवीस थे ओर राजनितिक नेता के बजाय सोदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे ।
                      बहादुर शाह जफर का जन्म २४ अक्टूबर सन १७७५ ई.को दिल्ली में हुआ था ।बहादुर शाह अकबर शाह द्वितीय ओर लालबाई के दूसरे पुत्र थे ।उनकी माँ लालबाई हिन्दू परिवार से थी ।१८५७ ने जब हिन्दुस्तान की आजादी की चिंगारी भरकी तो सभी विद्रोही सेनिको और राजा-महाराजाओ ने उन्हें हिन्दुस्तान का सम्राट माना और उनके नेतृत्व में अग्रेजो की ईट से ईट बजा दी ।अंगेर्जो के खिलाप भारतीय सेनिको की बगावत को देख बहादुर शाह जफर का भी गुस्सा फुट प्रा और उन्होंने अंग्रेजो को हिन्दुस्तान से खदेरन का आह्वाहन कर डाला ।भारतीयों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंगेजो को करी शिकस्त दी ।अपने शाशनकाल के अधिकाँश समय उनके पास वास्तविक सत्ता नही रही और वह अंग्रजो पर आश्रित रहे ।१८५७ई.में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के समय बहादुर शाह ८२ वर्ष के बूढ़े थे और स्वंय निर्णय लेन की क्षमता खो चुके थे ।सितमबर १८५७ई.में अंग्रजो ने दुबारा दिल्ली पर कब्जा जमा लिया और बहादुर शाह द्वितीय को गिरफ्तार करणे उन पर मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया ।
     बहादुर शाह जफर सिर्फ एक देशभक्त मुगल बादशाह नही बल्कि उर्दू के प्रसिध्द कवि भी थे ।उन्होंने बहुत भी मशहूर उर्दू अविताये लिखी ,जिनमे से काफी अंगेजो के खिलाफ बगावत के समय मची उथल-पुथल के दौरान खो गई या नष्ट हो गई ।उनके द्वारा उर्दू में लिखी गई पक्तियां भी काफी महशूर है-----
                           हिदुओ में बू रहेगी जब तक ईमान की ।
                        तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की ॥

हिन्दुस्तान से बाहर रंगून में भी उनकी उर्दू कविताओ का जलवा जारी रहा ।वहां उन्हें हर वक्त हिन्दुस्तान की फ़िक्र रही ।उनकी अंतिम इच्छा थी की वह अपने जीवन की अंतिम शांस हिन्दुस्तान में ही ले और वहीं उन्हें दफनाया जाय लेकिन ऐसा नहीं हो
पाया ।

जफर की कविता :------
                         लगता नहीं है जी  मेरा उजड़े दयार में
                                किसी की बनी है आलम-ए-नापाएदार में

                          बुलबुल  को बागबान से न सय्याद से गीला
                             किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले भार में

                        कह दो इन हसरतो से कहि और जा बसे
                             इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में

                       इस खाख-ए गुल पे बैठे के बुलबुल है शदमा
                             काटे विधा दिए है दिल-ए-लालाजार में

                       उम्र-ए-दराज मांग कर लाये थे चार दिन
                             दो आरजू में कट गये दो इन्तजार में

                     दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई
                            फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मजार में

                     कितना है बदनसीब "जफर" दफन के लिए
                            दो गज जमीन भी न मिली कु-ए-यार में


मुल्क से अंग्रजो को भागने का सपना लिए ७ नवंबर १८६२ को उनका निधन हो गया ।बहादुर शाह जफर की मृत्यु ८६ वर्ष की अवस्था में रंगून (वर्तमान यांगून ) बर्मा (वर्त्तमान म्यांमार) में हुई थी ।उन्हें रंगून में श्वेडागों पेगोरा के नजदीक दफनाया गया ।उनके दफन स्थल को अब बहादुर शा जफर दरगाह के नाम जाना जाता है ।लोगो दिल में उनके लिए कितना सम्मान है की हिन्दुस्तान में जहा कई जगह सरको का नाम उनके नाम पर रखा गया है ,वही पाकिस्तान के लाहोर शहर में भी उनके नाम पर  एक सरक का नाम रखा गया है । बांग्लादेश के ओल्ड डाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया गया  है ।
               जिस दिन बहादुरशाह जफर का निधन हुआ उसी दिन उनके दो बेटो और पोटो को भी गिरफ्तार करके गोली मार दी गई ।इस प्रकार बादशाह बाबर ने जिस मुगल वंश की स्तापना भारत में की थी उसका अंत हो गया ।




                                  मराठ साम्राज्य

मराठा लोगो को महरट्टा या महरट्टी भी कहा जाता है,भारत के वे प्रमुख लोग,जो इतिहास में क्षेत्र रक्षक योध्दा और हिन्दू धर्म के समर्थक के रूप में विख्यात है ,इनका गृहक्षेत्र आज का मराठी भाषी क्षेत्र महराष्ट राज्य है जिनका पशिचमी क्षेत्र समुद्र तट के किनारे मुंबई (भूतपूर्व बंबई) से गोवा तक और आंतरिक क्षेत्र पूर्व में लगभग १६० किमी. नागपुर तक फैला हुआ था ।
                             मराठा शब्द का तीन मिलते-जुलते अर्थो में उपयोग होता है ,मराठी भाषी क्षेत्र में इससे एकमात्र प्रभुत्वशाली मराठा जाती या मराठो और कुभी जाती के एक समूह का बोध होता है। महाराष्ट्र के बाहर मोटे तौर पर इससे समूची क्षेत्रीय मराठी भाषी आबादी का बोध होता है ,जिसकी संख्या लगभग ६.२५ करोड़ है ।ऐतिहासिक रूप में यह शब्द मराठा शासक शिवाजी द्वारा १७ वी शताब्दी में स्थापित राज्य और उनके उत्तराधिकारी द्वारा १८ वी शताब्दी में विस्तारित क्षेत्रीय राज्य के लिए प्रयुक्त होता है ।
                                       मराठी जाती के लोग मुख्यतः ग्रामीण किसान जमींदार और सैनिक थे कुछ मराठो और कुंभियो ने कभी-कभी क्षत्रिय होने का दवा भी किया और इसकी पुष्टि वे अपने कुल-नाम व वंशावली को महाकव्यो के नायको, उत्तर के राजपूतो वंशो या पूर्व मध्यकाल के ऐतिहासिक राजवंशो से जोरकर करते है ,मराठा और कुभी समूह की जातिया तटीय पश्चिमी पहाड़ियों और दक्कन के मैदान के उपसमूहों में बाटी हुई है और उनके बीच आपस में वैवाहिक संबंध कम ही होती है ।प्रत्येक उप क्षेत्र में इन जातियों के गोत्रो को विभिन्न समाज मंडलों में क्रमशः घटते हुए कर्म में वर्गीकृत किया गया है ।सबसे बड़े समाजिक मंडल में ९६ गोत्र शामिल है ।जिनमे सभी असली मराठा बताये जाते है ।


------------->छत्रपति शिवाजी (१६२७-१६८०):------
                                  शिवाजी का जन्म १६२७ ई.में शिवनेर के किले में हुआ था ।वह भोसले वंश के थे और उनके पितामह 'मालोजी' अहमदनगर के निज़ामशाही राज्य में एक प्रतिष्ठित पद पर थे।शिवाजी के पिता तथा मालोजी के ज्येष्ठ पुत्र 'शाहजी' का विवाह एक निज़ामशाही सरदार और देवगिरि के यादवो के वंशज लाकुजी जाधवराव की पुत्री 'जीजाबाई' से हुआ था।निज़ामशाही राज्य के राजनितिक और सैनिक आमलो में शाहजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही ।१६३६ ई.में उन्होंने मुगलो के विरुध्द अपने अंतिम सघर्ष में अहमदनगर की ओर से युध्द किया ।इसके बाद उन्होंने बीजापुर में  नौकरी कर ली और फिर उन्हें अपने पुत्र शिवाजी और पत्नी जीजाबाई सहित पूना की अपनी पैतृक जागीर की देखभाल का दायित्व आदिलशाही राज्य के एक पूर्व अधिकारी और अपने विश्वासपात्र मित्र 'दादाजी कोंडदेव' को सौपकर कर्नाटक जाना पड़ा और फिर जीवनपर्यन्त वे कर्नाटक में ही बने रहे । सभंवत्या १६३७ या १६३८ में दादाजी कोंडदेव शिवाजी के अभिभावक बने और मृत्युपरंत (१६४७)जागीर का वास्तविक प्रशासन देखते रहे ।तब तक शिवाजी दायित्व बहन करने योग्य हो गए थे ।शाहजी व्दारा दादाजी को देखभाल के लिए सौपी गई जागीर मावल प्रदेश तक फैल गई ।
शिवाजी के प्रारंभिक सैनिक अभियान बीजापुर के आदिलशाही राज्य के विरुध्द शुरू हुए ।उन्होंने मुगलो के साथ शान्ति बनाये रखने में ध्यान दिया क्योकि दो-दो मोर्चा पर एकसाथ युध्द करने की सामर्थ उनमे नही थी ।१६५३ में उन्होंने कल्याण पर अधिकार पर अधिकार कर लिया ,जो पश्चिमी तट पर आदिलशाही राज्य का एक महत्वपूर्ण राज्यों पर ही बार-बार आक्रमण किए और उन्हें लूटा ।यह देखते हुए आदिलशाह की विधवा रानी ने शिवाजी को जीवित या मुर्दा पकरने और उनकी शक्ति को पूरी तरह कुचलने की दिशा में ठोस उपाय करने का निश्चय किया ।१६६० में आदिलशाह राज्य के प्रथम श्रेणी के आमिर और सेनापति अफजल खा को शिवाजी के विरुध्द अभियान की बागडोर सौपी गई ।अफजल खा को शिवाजी के विरुध्द अभियान की बागडोर सौपी गई ।अफजल खा ने शिवाजी को क्षमा करने और राज्य -क्षेत्र देने का वचन देते हुए उनमे भेंट करने का प्रस्ताव किया ।लेकिन वास्तव में उसकी योजना शिवाजी को गिरफ्तार करने की थी ।इस पस्तवित गेट में जब अफजल खा ने शिवाजी को गले लगाते हुए उन पर तलवार से वार किया तो शिवाजी ने तुरंत ही उसे अपने बघनखों से मार डाला।
                           इसी दौरान औरंगजेब ने दक्षिण में शिवाजी का दमन करने के लिए अपने मामा शाइस्ता खा को भेजा ।१६६० के प्रारम्भ में शिवाजी के विरुध्द मुगलो ने उत्तर से टाटा बीजापुरियो ने दक्षिण से सयुक्त आक्रमण किए ।तीन वर्षो तक (१६६०-६३) चारो ओर से शिवाजी पर इतने आक्रमण किए गए की वे बेघर-घुमक्कड़ बन गए ।ऐसे संकट काल में उन्होंने शाइस्ता खा के महल पर करें पहरे के बीच रात में आक्रमण कर दिया ।इस आकस्मिक हमले में शाइस्ता खा घायल हो गया और उसका पुत्र मारा गया।इस घटना से दक्कन में मुगलो की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा ।शाइस्ता खा को वापस बुला लिया गया तथा औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम को दक्कन का वाइसराय नियुक्त किया गया।१६६४ में शिवाजी द्वारा सूरत को लूट लिए जाने से मुगलो की प्रतिष्ठा को दुसरा आघात पहुंचा। इसके बाद उन्होंने अहमदनगर में लूटपाट की ।१६६५ में औरंगजेब ने शिवाजी पर काबू पाने का दायित्व आमेर के राजा मिर्जा राजा जयसिंह को सौपा। इन्होने पुरन्धर की नाकेबंदी करके अपने सैनिक अभियान का मोर्चा खोल दिया ।महीनो तक प्रतिरोध करने के बाद उन्होंने निराश शिवाजी ने आत्मसमर्पण का प्रस्ताव करते हुए १६६५ में परंधर में संधि कर ली ।संधि के अनुसार शिवाजी को रायगढ़ सहित बाहर किले इस शर्त पर अपने पास रखने की अनुमति मिली की वे मुगलो की आज्ञा का पालन करेंगे तथा उनकी अधीनता स्वीकार करेंगे और अपने २३ किलो म्यग्लो को सौपेंगे ।पुरन्धर की संधि के बाद शिवाजी का  आगरा में मुगल दरबार में आगमन ,वहा उनकी कैद और बई चतुराई से वाहा से भाग निकले ।१६६६ में दक्कन वापस आने के उपरान्त शिवाजी ने कोई आक्रामक कार्यवाही नहीं की बल्कि एक दो वर्ष अपने संसाधनो को पुनः व्यवस्थित करने में लगाए।दूसरी  ओर मुगल वाइसराय मुअज्जम ने भी दक्कन में सुलहकारी नीति अपनाई ।औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की उपाधि से सम्मानित किया और उनके पुत्र 'शम्भाजी' को बरार में एक मनसब और जागीर दी। तीन वर्ष (१६६७-७०) तक शान्ति बनी रही किन्तु औरंगजेब द्वारा बरार की जागीर के एक हिस्से पर आक्रमण करने स्थित फिर तनावग्रस्त हो गई ।१६७० में शिवाजी ने सूरत को दूसरी बार लूटा तथा मुगल और आदिलशाही प्रदेशो पर अपने आक्रमण पुनः प्रारम्भ कर दिया ।१६७४ में उन्होंने अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने राजयभिषेक की वैदिक रीती से व्यवस्था की ।इस अवसर पर शिवाजी ने संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र के निर्माण की घोषणा की । शिवाजी के राज्याभिषेक के भव्य प्रदर्शन तथा स्वंय को छत्रपति की सवोच्च प्रभुसत्ता सम्पन्न पदवी धारण करने के समय उनका वास्तिक अधिकार-क्षेत्र लम्बाई में मुश्किल से २०० मिल और चौड़ाई में इससे कुछ कम ।यहां तक की संपूर्ण मराठा राज्य भी उनके नियंत्रण में पूरी तरह नही आ सका था ।जंजीरा के सिद्दी पुर्तगाली पश्चिमी तट पर निरंतर उनके शत्रु बने रहे ।मुगलो का उत्तर की ओर से दबाब बढ़ रहा था ।यहां तक की उनके भाई व्यंकोजी ने दक्षिण में अपना विजय बिगुल बजा दिया और तंजाबुर में उसी तरह राज्याभिषेक का आयोजन करते हुए अपनी प्रभुसत्ता की घोषण कर दी ।अब शिवाजी के लिए अपने अधिकार-क्षेत्र का विस्तार करना आवश्यक हो गया ।इसी कारण १६७७ में शिवाजी अपने सर्वाधिक लम्बे और अंतिम सैनिक अभियान पर निकल पड़े। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य बीजापुर के आदिलशाही राज्य पर अधिकार करना ।इसके लिए उन्होंने गोलकुंडा के दो ब्राह्मण मंत्रियो-मदन्ना तथा अकणाा के माध्यम से गोलकुंडा के सुलतान के साथ गुप्त संधि की ।शर्तो के अनुसार यह निश्चय किया गया की आदिलशाही राज्य के विजिट क्षेत्रो को दो भागो में विभक्त किया जाएगा और दोनों में से किसी पर भी मुगलो के आक्रमण की दशा में परस्पर सहयोग करेंगे ।इस अभियान में शिवाजी ने जिंजी ,मदुराई,बेल्लूर आदि तथा कर्नाटक और तमिलनाडु के लगभग १०० किलो को जीत लिया ।उन्होंने अपने भाई तथा तंजावुर के शासक व्यंकोजी से भी संबंधो में सुधार किया ।समुद्रतटीय प्रदेश तक अपने राज्य का विस्तार करने के लिए उन्होंने गोआ के दक्षिण में कुछ प्रदेशो पर अधिकार कर लीया तथा अबिसिनियाई शासक सिद्दी से जंजीरा द्वीप (बंबई से ७० की.मी. दक्षिण की ओर) जीत लिया  ।कर्नाटक का सैनिक अभियान शिवाजी की अंतिम महान उपलब्धिया सिध्द हुई ।
         शिवाजी के जीवन के अंतिम दो वर्ष दुखद थे ।दिसंबर १६७८ में उनका पुत्र शम्भाजी अपनी पत्नी येशुबाई के साथ निकल भागा और दक्कन में मुगल सूबेदार दिलेर खा से जाकर मिल गया ।लगभग १ वर्ष बाद ही वह मराठा राज्य में वापस लौट आए।इस काल में मुगलो ने मराठो पर काफी दबाव बनाये रखा ।इन सब घटनाओ का शिवाजी के स्वास्थ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा ।जिससे वह फिर कभी उबर नहीं पाए और अंततः ४ अप्रैल ,१६८० को उनकी मृत्यु हो गई ।

शिवाजी का प्रशासन :----
            शिवाजी महाराष्ट्र ,कर्नाटक और तमिलनाडु के काफी बड़े प्रदेशो के स्वामी थे ।उनका साम्राज्य दो भागो में विभक्त था-  'स्वाराज (अपना राज्य ) अथवा मुल्क-ए-कदीम (पुराना प्रदेश )'और भूमि का वह अनिश्चित क्षेत्र जो वैधानिक रूप से मुगल साम्राज्य के अंतगर्त आता था लेकिन जिससे चौथ वसूल किया जाता था ,पर वह शिवाजी के प्रशासन की सीमा में नही था ।शिवाजी ने उच्च पदो पर हिन्दुओ की नियुक्ति करके तथा राजभाषा के रूप में उर्दू और फ़ारसी की जगह मराठी का व्यवहार करके प्रशासन को हिंदुत्व स्वरूप दिया।अपने राजयभिषेक के अवसर पर उन्होंने अपनी मंत्रिपरिषद (अष्ट प्रधान मंडल )के विनियमों तथा कर्तव्यो के साथ अपनी प्रशासन योजना घोषित की ।मंत्रिपरिषद के आठ मंत्री निगंवत थे--------

१>पेशवा अथवा मुख्य प्रधान :---यह राजा का प्रधानमंत्री होता था ।यह प्रशासन के सभी कार्य संपादित करता था ।
२>मंजूमदार अथवा आमात्य :---यह वित्त एवं राजस्व मंत्री होता था।
३>वाकिया अथवा मंत्री :--------इसका कार्य आज के गृह मंत्री के समान होता था।
४>दबीर या सुमंत :------------यह विदेश विभाग के मंत्री होता था ।
५>श्रु-नवीस (सुरनिस) अथवा सचिव :--- यह शाही पत्र-व्यवहार का कार्य देखता था।
६>पंडित राव :----------------यह धर्ममंत्री होता था ।
७>सर-ए-नौबत अथवा सेनापति :--यह प्रमुख सेनानायक होता था तथा इस पद की गरिमा के अनुकूल उसके पास सेना होती                                       थी ।
८न्यायाधिश :---------------यह मुख्य न्यायाधीश होता था।इसके अधिकार क्षेत्र में राज्य के समस्त दीवानी तथा फौजदारी के   मामले आते थे ।

न्याय प्रशासन :-
न्याय प्रशासन पुराने किस्म का ही था।उस समय तक न तो नियमित न्यायालय ही थे और न कोई व्यवस्थित न्याय-प्रक्रिया ही ।गांवो में प्रकरण सामने आने पर वयोवृध्द व्यक्ति ही उसे सुलझाने के लिए पंचायते करते थे ।

सैनिक संगठन :-शिवाजी वास्तव में जन्मजात सेनानायक और योध्दा थे ।उन्हें सेना के गठन की प्रणाली अपने पूर्वजो से विरासत में मिली थी ।शिवाजी के पास २८० दुर्ग थे ।जो हवलदार के अधीन होते थे ,शिवाजी की प्रशासनिक इकाई थे ।प्रत्येक दुर्ग एक मराठा हवलदार के अधीन होता था जिनके साथ ब्राह्मणो सूबेदार होता था ।वही नागरिक एवं राजस्व प्रशासन सभालता था।एक अधिकारी प्रभु जाती (कायस्थ) का भी होता था जो अनाज एंव चारे की आपूर्ति तथा सैनिक सामान का प्रभारी होता था।
                                                              प्रारम्भ में शिवाजी की सेना बहुत छोटी थी, लेकिन उनकी मृत्यु के समय उनकी सेना में ३०,००० से ४०,००० तक अश्वारोही सैनिक ,घुरस्वार सेना की एक टुकड़ी में २५ घुरस्वार हवलदारों पर एक जुम्लादार होता था ।इन जुम्लादारो पर एक हजारी होता था और पांच हजारी अधिकारियों पर एक हजारी होता था,पंच हजारी सर-ए-नौबत के अधीन होते थे,और उनके पास १लाख पदाति सैनिक थे ,जो अधिकाँश किसान वर्ग के थे। सेना में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही होते थे ,और उनमे कोई भेदभाव नही किया जाता था ।
           उनके पास हस्ती सेना की टुकड़ी भी थी ,जिसमे १२६० हाथी थे ।और जहाजी बेरे में लगभग २,००० योध्दा सैनिक थे ।
                                                शिवाजी ने अपने सैनिक अभियानों के संचालन में सदैव अत्यधिक व्यावहारिक और नैतिक मानक बनाए रखा जैसा की मुगल इतिहासकार खाफी खा ने लिखा है:----
 "उन्होंने (शिवाजी) यह नियम बना दिया था की जब कभी उनके सैनिक लूटमार करे तो मस्जिद ,कुरआन या किसी स्त्री को कभी कोई हानि न पहुंचाई जाए ।जब कभी भी कोई कुरआन की प्रति मुस्लिम भाई को सौप देते ।जब कभी उनके सैनिक द्वारा किसी दींदु या मुस्लिम को केडी बनाया जाता था तब वे उसकी उस समय तक देखभाल करते थे जब तक उनके संबंधी उपयुक्त फिरोती लेकर उसे छुड़ाने नहीं आ जाते थे ।

---------->शम्भाजी (१६८०-८९):---
                   शिवाजी की मृत्यु के बाद नवगठित मराठा साम्राज्य में आंतरिक फुट पर गई ।शिवाजी की दो परनियो से उतपन्न दो पुत्रो-शम्भाजी और राजाराम के बीच उत्तराधिकारी का विवाद उठ खरा हुआ।अंततः राजाराम को गद्दी से उतारकर शम्भाजी (शम्भुजी) २० जुलाई ,१६८० को सिंहासनारूढ़ हुए ,तथापि एक वर्ष से भी अधिक समय तक उनकी स्थिति डावांडोल ही रही  ।वस्तुतः बार-बार होने वाले षडयंत्रो के कारण उनका सम्पूर्ण शासनकाल दुष्प्रभावित हुआ व उनके साथी-सहयोगी उनका साथ छोर गये।उनके जागीरदारों में विद्रोह फैल गया ।अपने स्वभाव के कारण वे अपने राज्य के पुराने और विश्वासपात्र सेवको की निष्ठां अर्जित करने में विफल रहे ।मराठा नायको के प्रति अविश्वास के कारण उन्होंने उत्तर भरतीय ब्राह्मण (कवि कलश ) पर भरोसा किया और उसे प्रशासन का सर्वोच्च अधिकार सौप दिया ।उसे कवि-कलश की उपाधि प्रदान की गई ।१६८०-८१ में जब औरंगजेब राजपूत युध्द में उलझा हुआ था, उन्होंने मुगलो के साथ फिर से युध्द छेड़ दिया, बुरहानपुर पर चढ़ाई कर दी तथा अहमदनगर पर भी आक्रमण करने का प्रयास किया जिस समय ये हमले जारी थे उसी समय औरंगजेब के बागी पुत्र अकबर का दक्कन में आगमन हुआ और उसने संरक्षण की मांग की ।बागी बेटे का पीछा करते-करते औरंगजेब को दक्कन आना पड़ा फिर वह मृत्युपर्यन्त वही रहा ।शम्भाजी ने औरंग़ज़ेब को गद्दी से हटाकर उसके पुत्र अकबर को मुगल राजगद्दी पर बैठाने की एक बहुत बड़ी योजना बनाई लेकिन इसके लिए किसी प्रकार की कोई ठोस रूपरेखा तैयार करने की बजाय उन्होंने अपनी साड़ी शक्ति और संसाधनो को जंजीरा के सिद्दियों और पुर्तगालियो के साथ युध्द करने में ही गवा दिया ।अंततः शम्भाजी से किसी भी प्रकार की सहायता प्राप्त करने में विफल और निराश होकर वह फ़रवरी १६८७ में फारस भाग गया ।जिन दिनों औरंगजेब बीजापुर और गोलकुंडा के साथ संघर्ष में उलझा था, शम्भाजी ने उस अवसर का भी लाभ नही उठाया और स्थिति सुदृढ़ नही की ।बीजापुर और गोलकुण्ड पर विजय प्राप्त करने बाद और अकबर के हिन्दुस्तान से भाग जाने के बाद औरंगजेब अब केवलमात्र मराठो से निपटने के लिए तैयार था ।वीजापुर और गोलकुंडा के पतन के बाद शम्भाजी राजनितिक रूप से अकेले पड़ गए और आंतरिक षडयंत्रो और विद्रोहों से संत्रस्त शम्भाजी अब पूरी तरह से कवि-कलश पड़ आश्रित हो गए जिसे मराठा विदेशी समझने थे ।राज्य प्रशासन पड़ से उनका नियंत्रण पूर्णतः समाप्त हो गया ।वे विलासितापूर्ण आमोद-प्रमोद में इतने निमग्न हो गए की फ़रवरी १६८९ में एक मुगल अधिकारी द्वारा कवि-कलश के साथ बंदी बना लिए गए ।तीन सप्ताहों से भी अधिक तक मारक यातना देने के उपरान्त २१ मार्च ,१६८९ को शम्भाजी के शरीर के टुकड़े- टुकड़े करके बड़ी क्रूरतापूर्वक उन्हें मार डाला गया ।

---------------->राजाराम (१६८९-१७००):----
                           शम्भाजी की मृत्यु के समय उनका पुत्र 'शाहू' केवल साथ वर्ष का था ।शिवाजी के छोटे पुत्र और शम्भाजी के सौतेले भाई राजाराम को ,जिसे शम्भाजी ने बंदी वना रखा था, मराठा मंत्रिपरिषद ने राजा घोषित किया और फ़रवरी १६८९ में रायगढ़ में उनका राजयभिषेक किया गया लेकिन तत्काल बाद ही राजाराम ने मुगलो के आक्रमण की आशंका से रायगढ़ छोड़ दिया और इधर इधर से उधर भटकते हुए अंततः वे जिंजी (जिला दक्षिण आर्कट. तमिलनाडु )पहुंचे  ।मराठा मंत्रिपरिषद और अन्य अधिकारी भी जिंजी में उनके साथ मिल गया ।
                               राजाराम के जिंजी चले जाने के टटका बाद भी मुगलो ने जुल्फिकार खा के नेतृत्व में अक्टूबर १६८९ में रायगढ़ पड़ अधिकार कर लिया शम्भाजी के पुत्र शाहू सहित उनके परिवार के सभी सदस्य मुगलो के कब्जे में आए गया ।यधपि शाहू को राजा की उपाधि दी गई और एक मनसब भी दिया गया फिर भी वह औरंगजेब की मृत्यु (१७०७) तक वस्तुतः मुगलो के अधीन केडी ही बना रहा ।इस प्रकार १६८८ के अंत तक मराठा राज्य की स्थिति पूरी तरह बदल गई थी ।राज-परिवार निष्क्रिय हो गया था और अब मराठा राष्ट्र का न कोई सर्वमान्य प्रमुख्य या और न ही उनकी कोई केन्दीय सरकार थी ।समूचा दक्कन प्रदेश विभिन्न मराठा सेनानायकों के अधीन पृथक प्रभाव क्षेत्रो में बंट गया था ।मराठा राजा नाममात्र का राजा रह गया था और वह भी अपने मराठा गृह-प्रदेश से बहुत दूर तमिलनाडु में रह रहा था ।इस परिस्थितियों में मुगलो से मुकाबला करने के लिए मराठा सरदारो और सेनानायकों ने कमान संभाली और मुगल-मराठा संघर्ष का मूल-स्वरूप गृह-युध्द अथवा स्वाधीनता संग्राम में रूपांतरित हो गया ।मुगलो के निरंतर हमलो से निपटने के लिए 'नीलकंठ मोरेश्वार पिंगले (पेशवा)',रामचन्द्र नीलकंठ बावडेकर(आमात्य)' शंकरजी मल्हार (सचिव) तथा प्रहलाद निराजी सरदारो ने मुगलो के विरुध्द संघर्ष करने का संकल्प लिया ।अब तक गैर महत्वपूर्ण पदो पर कार्यक्रत तीन अन्य व्यक्ति -धनाजी जाधव ,संताजी घोरपड़े तथा परशुराम त्रम्बक अपनी योग्यताओ के बल पर आगे आए।रामचन्द्र बावडेकर को महाराष्ट में मराठा सेनानायकों तथा अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को पूर्णरूप में नियत्रित करने के लिए निरंकुश शासक (हुकूमत पनाह) के अधिकार प्रदान किए गए मराठो में सर्वमान्य प्रमुख और केंद्रीय सरकार के अभाव में अब औरंगजेब की कठिनाइयाँ और अधिक बढ़ गई क्योकि प्रत्येक मराठा सरदार अपनी सैन्य टुकड़ियों के द्वारा विभिन्न दिशाओ से अपनी स्वेच्छा से आक्रमण करने लगे। विभिन्न मराठा सरदारो द्वारा स्वतंत्र रूप से सैनिक अभियान करने और राजाराम द्वारा उन्हें जागीरे प्रदान करने के परिणामस्वरूप मराठा सरदारो की स्वायत सत्ता का उदय हुआ जिसके परिणामस्वरूप अंततः मराठा मंडल या राजयसंघ का उदय हुआ ।
      राजाराम के शासनकाल में मराठा सेनानायकों की सेनाओ ने पुरे दक्षिण को तहस-नहस कर डाला,मुगल सैन्य टुकड़ियों को उनकी मूल सेना से अलग-थलग कर दिया और सर्वत्र आंतक और अव्यवस्था पैदा कर दी ।१६९० के मध्य में मराठो को सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता उस समय मिली ,जब उन्होंने सतारा के निकट मुगल सेनानायक शर्जा खा को उसके परिवार,अश्वारोहियों और उनकी सेना के संपूर्ण साज-सामान के साथ बंदी बना लिया ।१६९२ में उन्हें एक अन्य उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई,जब उन्होंने पन्हाला पर अधिकार कर लिया ।१६९४-९५ के दौरान छिट-पूत युध्दो के कारण मुगल सेना की शक्ति और मनोबल क्षीण-प्राय हो चुका था ।१६९५ के अंत में शंताजी ने दो वरिष्ठ मुगल सेनानायकों कासिम खा और हिम्मत खा को पराजित करके उसकी हत्या कर डाली ।परन्तु १६९६-९७ में गृह-युध्द के कारण संताजी और धनाजी के मध्य सेनापति के उच्च पद के लिए पारस्परिक प्रतिद्व्न्द्विता थी ।१६९८ में मुगलो ने सुदूर दक्षिण में मराठो की राजधानी जिंजी से भागकर महाराष्ट्र  में विशालगढ़ में शरण लीनी पड़ी।१६९९ में उसने खानदेश और बरार के रास्ते से मुगलो पर आक्रमण की व्यापक योजनाएँ बनाई और इस अभियान के लिए सतारा ,जो जिंजी के पतनोपरांत मराठो की राजधानी बन गया था ,से आगे बढ़ा पर इसके शीघ्र बाद ही मार्च १७०० में राजाराम की मृर्त्यु हो गई ।


------------->ताराबाई (१७००-१७०७):----
                             राजाराम की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ताराबाई से उत्तपन्न उनका अवयस्क पुत्र शिवाजी द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ ।अपनी क्षमता और सामर्थ के बल पर ताराबाई राज्य की वास्तविक शासिक बन गई  ।उन्होंने भयानक संकटग्रस्त स्थिति में मराठा राज्य की रक्षा की ।राजगद्दी का उत्तराधिकारी विवादास्पद था ।वयक्तिगत ईर्ष्या के कारण मराठा सरदार बंटे हुए थे ।कई हजार मावली (मराठो की पर्वतीय सैनिक टुकड़ी) मुगलो कसे वेतन प्राप्त करते थे ।जिंजी के बाद औरंगजेब ने मराठा दुर्गो पर क्रमशः अधिकार करने के लिए अपने सभी संसाधन लगा दिए ।इन परिश्थितियो में ताराबाई ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसके बारे में विरोधी मुस्लिम इतिहासकार खाफी खा ने भरपूर प्रशंसा करते हुए लिखा है,"ताराबाई के दिशा-निर्देशन में मराठो की नियुक्ति और स्थानांतरण देश की कृषि-उपज तथा मुगल अधिपत्य के अधीन प्रदेशो पर हमले की योजना आदि सभी कार्यो का नियंत्रण स्वंय अपने हाथो में ले लिया ।उसने दक्कन के ६ सुबो का विध्वंस करने तथा अपने अधिकारियों का हृदय विजित करने के लिए सैनिक टुक्रिया भेजने की ऐसी व्यवस्था की उसके राजयकाल में मराठो के विरुध्द औरंगजेब द्वारा किय गए सभी प्रयास विफल हो गए।" तराबाई ने जगह-जगह जाकर मुगलो के विरुध्द मराठा अभियानों को दिशा-निर्देश प्रदान किया ।१७०३ में मराठो ने बरार पर आक्रमण किया ।१७०६ में उन्होंने गुजरात पर हमला करके बड़ोदरा को लूट लिया ।इसी वर्ष मराठो ने अहमदनगर में औरंगजेब के शिविर पर धावा बोला दिया ।औरंगजेब के सुबो को कई बार लूटा और बरबाद किया गया ।इस अराजक और अव्यवस्थित स्थिति में ३ मार्च १७०७ को औरंगजेब की मृत्यु हो गई ।औरंगजेब के मृत्यु के बाद बेटा आजम शाह (बहादुर शाह प्रथम) गद्दी पर बैठा ।शम्भाजी का पुत्र शाहू (जन्म १८ मई ,१६८२) ३ नवंबर ,१६८९से ही मुगलो की कैद में था ।औरंगजेब के मृत्यु के तीन महीने बाद ही ८ मई १७०७ को शाहू को रिहा कर दिया शाहू को मराठो के राजा के रूप में मान्यता प्रदान की गई और मराठा स्वराज ।शाहू की रिहाई के बाद टाटाबाई और शाहू की सेनाओ के बीच राजगद्दी के प्र्शन के लेकर गृहयुध्द शुरू हो गया और यह १७१४ तक चला ।
                 अपनी मुक्ति के पश्चात जब शाहू सतारा पहुंचे तो ताराबाई ने उन्हें धोकेबाज कहा तथा अपने सेनापतियों को उन्हें विनष्ट करने का आदेश दिया लेकिन सामान्य जनता और सैनिक वर्ग शाहू के पक्षधर थे ।मराठा सेनापति 'धनाजी जाधव' तथा दीवान 'बालाजी वश्वनाथ' की सहायता से शाहू ने विषम परिश्थितियो पर विजय पाई ।शाहू और ताराबाई के बीच खेर में (१२ अक्टूबर,१७०७) हुए निर्णायक युध्द में ताराबाई को पराजय स्वीकार करनी पड़ी। जनवरी १७०८ में शाहू ने सतारा पर अधिकार कर लिया ।अब मराठा राज्य दो विरोधी उप राज्यों में विभक्त हो गया ,एक राज्य स्टार के प्रमुख शाहू थे,और दूसरे राज्य को कोल्हापुर के प्रमुख शिवाजी द्वितीय या वस्तुतः ताराबाई थी ।जब शिवाजी द्वितीय कोल्हापुर की गद्दी पर बैठे ।इन दो प्रतिव्दंदी शक्तियों के मध्य शत्र्ता अंतवः १७३१मे वर्ना की संधि के द्वारा समाप्त हुई ।इसमें व्यवस्था की गई की शभ्भजी व्दितीय मराठा राज्य के दक्षिण राज्य जिसकी राजधानी कोल्हापुर थी ,शासन करें तथा उत्तरी भाग ,जिसकी राजधानी सतारा थी ,पर शाहू शासन करें।
    शाहू के गर्दिश के इन दिनों में बालाजी विश्वनाथ के अलावा कोई और अधिकारी उनका इतना अधिक निष्ठावान ,विश्वासपात्र और सक्षम हितैसी सिध्द नही हुए ।जनवरी १७०८ ई. में अपने सिहासनरूध्द होने के अवसर पर शाहू ने बालाजी विश्वानाथ को सेनाकरते(सेना के निर्माता)का पद प्रदान किया तथा अंततः १७१३ ई. में उन्हें पेशवा के पद पर आसीन किया ।पेशवा के पद पर बालाजी तथा उनके उत्तराधिकारी राज्य के वास्तविक शासक बन गए ।इसके बाद छत्रपति नाममात्र का ही शासक होकर रह गया।




----------->बालाजी विश्वनाथ (१७१३-१७२०):------
                         बालाजी वश्वनाथ का व्यक्तित्व और प्रतिमा तथा देश की तत्कालीन परिस्थितियां सत्ता और ख्याति की दृष्टि से पेशवाओ के उत्थान के अनुकूल थी ।बालाजी के समुख्य सबसे पहला काम शाहू की माता को मुगलो की हिरासत से सुरक्षित छुड़ाना था ।बालाजी ने सैयद बंधुओ के साथ सीधी बातचीत प्रारम्भ की और फ़रवरी १७१९ में उनकी सभी शर्ते स्वीकार कर ली ।तदनुसार शाहू की माता और उनके परिवार को रिहा कर दिया गया ।दिल्ली में बालाजी को मिली  सफलता से उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा में काफी वृध्दि हुई ।
    बालाजी विश्वनाथ सही अर्थो में मराठ साम्राज्य के द्वितीय पुंस्रस्थापक थे ।वे  यह भलीभांति अनुभव करने लगे थे की पुराने राजतंत्रीय रूप में मराठा साम्राज्य का पुनरुस्थान तथा समान लक्ष्य के लिए मराठा सैनिक संसाधनो का सदुपयोग तब तक सुगम नही होगा, जब तक मराठा सरदारो ,जिन्होंने अपने शौर्य के बल पर विशेष प्रतिष्ठा अर्जित की थी ,को विशेष रियायतें प्रदान नही की जाती ।बालाजी विश्वानाथ ने मराठा सरदारो को सम्राट के अधीनस्थ मित्र राज्यों या संघ राजो के रूप में मान्यता और उन्हें उनके द्वारा विजिट प्रदेशो पर स्वंतत्रापूर्वक शासन करने की अनुमति प्रदान की ।इसके बदले में पेशवा ने मराठा सरदारो से समान नीति विषयक मामलो में पहले से कहीं अधिक एकता बनाएरखने और त्याग के लिए त्तपर रहने की अपेक्षा की ।इस व्यवस्था के अंतर्गत मराठा सरदार पर्याप्त रूप से शक्तिशाली हो गए ,पर उन पर अंकुश रखने के लिए कोई प्रतिरोधी व्यवस्था नही की गई ।यही व्यवस्था मराठा शक्ति के तीव्र विस्तार और उसके तीव्र विघटन के लिए उत्तरदायी थी ।पेशवा बालाजी का पेशवा-काल छत्रपति (मराठा सम्राट) की शक्ति के स्थान पर पेशवाओ की शक्ति और शासन के उदय का घोतक है,अथति छत्रपति के स्थान पर पेशवा शक्ति और सत्ता का केंद्रबिंदु हो गया ।
                 बालाजी स्वराज प्रदेशो में सीधे केन्दीय प्रशासन के अंतगर्त एक सुसंगठित स्वरास्त की स्थापना की ।उन्होंने इन प्रदेशो में अहमदनगर के मालिक अंबर की भू-राजस्व व्यवस्था का प्रचलन किया ।
              स्वराज के बाहर भू-राजस्व एंव चौथा तथा सरदेशमुखी की वसूली का अधिकार उन मराठो सरदारो को प्रदान किया गया, जिन्होंने विशेष क्षेत्रो में अपनी सत्ता और प्रभाव खेत्र की स्थापना कर ली थी ।वे राजस्व की वसूली करते थे,प्रदेशो का सासन चालते थे ,स्थानीय सेनाये रखते थे तथा शाही राजकोष को अपनी-अपनी अाय में से नाममात्र का अंशदान करते थे ।ये मराठा सरदार मूलतः स्वतंत्र शासक थे और उन पर छत्रपति का प्रभुत्व या नियंत्रण नाममात्र था । कभी-कभी छत्रपति के अधीन मराठा केंद्रीय प्रशासन उनके राज्यों में ड्राक्दार नामक राजस्व अधिकारी को भेजता था,पर इसके उनकी स्वतंत्रा सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं परता था ।इस तरह वास्तव में ,मराठा प्रदेश अर्ध स्वतंत्र राज्यों में विभाजित हो गए थे ।हलाकि इन सभी सरदारो से एक-दूसरे के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण न करने की अपेक्षा की जाती थी फिर भी महत्वाकांक्षा और मिथ्याभिमान के कारण इन्होने पारस्परिक स्वार्थो को अधिक महत्व दिया जिसके परिणामस्वरूप उनमे घातक प्रतिव्दंव्दिता  का उदय हुआ।मराठा इतिहास के परिप्रेक्ष्य में यह खा  जा सकता है की १७१३ में नियुक्ति ,क्षत्रपति या मराठा राजसत्ता के पतन का सूचक था ।




---------->पेशवा बाजीराव प्रथम:----
                           बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद शाहू ने उनके सबसे बड़े पुत्र बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया ।वे उस समय मात्र बीस वर्ष के नवयुवक थे ।उनके अधीन मराठा शक्ति अपने चरमोतकर्ष पर पहुंच गई ।उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए उत्तर दिशा में आगे बढ़ने की नीति का सूत्रपात किया ताकि ,"मराठो की पताका कृष्णा से लेकर अटक तक फहराए।बाजीराव मुगल समाज्य के तीजी से हो रहे पतन और विघटन से परिचित थे तथा वे इस अबसर का पूरा लाभ उठाना चाहते थे ताकि  वे अमर ख्याति अर्जित कर सके ।मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा ,"आओ हम सूखते जा रहे वृक्ष के तने पर प्रहार करे ,उसकी शाखाएं स्वयं ही गिर जाएगी।" इस नीति का अनुसरण करते हुए उन्होंने मुगल साम्राज्य के शक्ति-केन्द्रो पर एक के बाद एक अनेक आक्रमण किए जिनके परिणामस्वरूप मराठे भारत की सवोच्च या महानतम शक्ति बन गए ।
                   अपने दो दशको के लम्बे संघर्ष और जुक्षाए जीवन में उन्होंने मालवा,बुंदेलखंड बसीन तथा गुजरात पर विजय पाई ।तथा १७३७ में वे दिल्ली तक पहुंच गए ।बसीन का पतन उत्तर कोकण में पुतर्गालियो के शासन की समाप्ति का सूचक था ।उन्होंने जंजीरा में सिद्दियों की शक्ति को भी छिन्न-भिन्न कर दिया ।उन्होंने पूना(पुणे) को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया जो शीघ्र ही पेशवाओ की राजधानी बन गया ।मराठा राज्य संघ के प्रति उनका व्यवहार कठोर तथा शासनात्मक था और वे चाहते थे की राजयसंघ के सदस्य राज्य पेशवा के नियंत्रण में रहे और निर्देश माने ।इसका परिमाण यह हुआ की राज्य संघ के सदस्यों में पेशवा के विरुद्ध असंतोष व्याप्त हो गया ।इसमें कोई संदेह नही की शिवाजी के बाद वे मराठो के महानतम नेता थे किन्तु उत्तर की ओर उनकी विस्तारवादी नीति के कारण ही पानीपत के तृतीय युध्द में मराठो को भयंकर पराजय का सामना करना पड़ा।
              बाजीराव ने अपने विजय अभियानों के बल पर मराठा साम्राज्य स्थापित किया किन्तु वे इसे प्रशासनिक व्यवस्था के द्वारा सुदृढ़ रूप नहीं दे पाए। बाजीराव के मन में मराठो की राजनितिक इकाइयों को नया रूप देने ,सैन्य प्रशिक्षण के लिए विघिवत विधालयो की स्थापना तथा मराठा राज्य की परिवर्तित परिस्थितियों के लिए अपेक्षित नए प्रकार के सेनानायकों तथा  प्रशानिक अधिकारियो की भर्ती करने का विचार कभी नही अाया ।सामंतवाद की बढ़ती परवर्ती को ,रोकने अथवा काबू में  रखने का प्रत्यन्न करने की बजाय उन्होंने सिंधिया और होल्कर जैसे मराठा सरदारो को अत्यधिक विशाल सेना के भारी खर्च के लिए धन की निरंतर मांग ने उन्हें पंगु बना दिया था किन्तु फिर भी उन्होंने राज्य की वित्तीय व्यवस्था के लिए कोई समुचित व्यवस्था नहीं की  ।
         अक्षम प्रतिनिधियों तथा अन्य निष्क्रिय अधिकारियों को स्थायी रूप से जागीरे और भू-क्षेत्र आवंटिक करने की उनकी नीति से आंतरिक प्रशासन का आधार कमजोर पड़ गया और पेशवा इस परवर्ती को रोक नही पाए ।इन कठिनाइयों के बावजूद बाजीराव ने अपनी कर्मठता "तरुण मराठा साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की और इसकी स्वाधीनता को सुरक्षित किया राज्य के समक्ष विस्तार की व्यापक संभावनाएं प्रस्तुत की ।"



------------>पेशवा बालाजी बाजीराव या नाना साहब (१७४०-६१):---------
                                  पेशवा बाजीराव का ४० वर्ष की अल्पायु में ही हो गया ।उनके बाद उनका पुत्र बालाजी बाजीराव (नाना साहब के नाम से प्रशिध्द) गद्दी पर बैठा  ।वह अपने पुरे पेशवा काल में अपने चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के परामर्श और मार्ग-निर्देशन पर निर्भर रहा ।पिता के समान वह भी २० वर्ष की आयु में ही पेशवा बना था ।
                                नाना की प्रारम्भिक उपलब्धियों में से एक बड़ी उपलब्धि साम्राज्य की वित्तीय गतिविधियों को कुशलतापूर्वक नियंत्रित करके साम्राज्य की वित्तीय गतिविधियों को कुश्कतापूर्वक नियंत्रित करके साम्राज्य की वित्तीय व्यवस्था में पर्याप्त सुधार करना था ।इसके बाद उन्होंने उत्तर भारत के मराठा सरदार होल्कर तथा सिंधिया से विचार-विमर्श किया तथा अप्रैल १७४२ में बुंदेलखंड में मराठा सत्ता को सुदृढ़ करने के विचार से उत्तर की ओर प्रस्थान किया ।१७४३ में उन्होंने दुसरा सैनिक अभियान अविवरदी खा की सहायतार्थ उत्तर की ओर (बंगाल में) किया ।अविरवर्दी खा के प्रदेशो प्रदेशो की रघुजी भोसले द्वारा उजाड़ दिया गया था ।पेशवा मुर्शिदाबाद पहुंचे ओर अलीबर्डी खा से mile ।अलीवर्दी खा शाहू को बंगाल की चौथ का भुगतान करने तथा पेशवा के सैनिक अभियान पर हुए व्यय के निमित २२ लाख रुपए अदा करने पर सहमत हो गया। इस व्यवस्था से पेशवा ने अलीवर्दी खा के प्रदेशो को रघुजी की सेना के द्वारा विध्वंसित होने से बचा लिया।अपनी पेशवाई के पूर्वार्ध्द में ही उन्होंने कर्नाटक में मराठो का प्रमुख स्थापित किया तथा राजपुताना में सैनिक अभियान प्रारम्भ कीया ।

















                                                            १४५७----१५७१

भारत में यूरोपियनों का आगमन ,१४९७-भारत में पुर्तगालियो का प्रवेश-१४९८ ई में वास्को-डी-गामा का कालीकट आगमन ।एक पुर्तगाली नौसेनिक बेंड़ा मालाबार तट पर पहुंचा ।१५०५ ई में फ्रांसिस्को डी अलमीरा की पूर्व में पुर्तगाली वाइसराय के रूप में नियुक्ति ।एक पुर्तगाली नौसेनिक बेड़े द्वारा मिश्र ,कालीकट के जमोरिन ओर गुरात के सुल्तान के संयुक्त नौसेनिक बेड़े की दीव के निकट पराजय और पुर्तगाली द्वारा अपनी नौसेनिक श्रेष्ठता स्थापित की गई ।१५२८ ई में नुनो डी कुन्हा की भारत में पुर्तगाली गवर्नर के रूप में नियुक्ति ।१५३७ ई में पुर्तगालियो को हुगली में भूमि-अनुदान की प्राप्ति ।पुर्तगालियो द्वारा अपनी भारतीय बस्तियों में ईसाई धर्म -न्यायाधिकरण व्यवस्था की स्थापना ।१५५२ ई में भारत में पुर्तगाली बस्तियां से बलात धर्म परिवर्तन के कारण लोगो का पलायन ।१५७१ ई में एशियाई पुर्तगाली साम्राज्य का तीन स्वतंत्र औपनिवेशिक प्रदेशो में विभाजन ।१५१० में अल्फांसो दे अल्बुकर्क द्वारा गोवा की विजय ।


                       १५८२-----१७६३



भारत में अंग्रेजो का आगमन :-----
        १५८२ में आशा अंतरीप के सामुद्रिक मार्ग के द्वारा एक अंग्रेज नौसेनिक बेड़े की यात्रा का शुभारम्भ ।१५८५ में अकबर के देबार में प्रथम अंग्रेजी दूतमण्डल का आगमन । बंबई के निकट कप्तान मिडेलटन के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेनिक बेड़े द्वारा पुर्तगाली नौसेनिक बेड़े की पराजय ।मसूलीपत्तनम के बंदरगाह पर अंग्रेजो का प्रथम आगमन ।१६११ में कप्तान हाकिंस ने मुगल सम्राट जहांगीर को ब्रिटिश सम्राट जेम्स प्रथम का पत्र प्रदान किया ।१६१२ में अंग्रेजो ने सूरत में अपनी प्रथम फैक्ट्री (व्यापारिक केंद्र) की स्थापना की ।१६१४ में ब्रिटिश राजदूत सर थॉमस रो (१६१५-१९) को मुगल सम्राट जहांगीर और शहजाद खुर्रम द्वारा जारी दो फरमान प्राप्त हुए जिनमे से एक फरमान के द्वारा अंग्रेजो को भारत में व्यापार करने की अनुमति दी गई और दूसरे के द्वारा उन्हें व्यापारिक करो में रियायतें प्रदान की गई ।१६२६ में अंग्रेजो द्वारा बम्बई पर अधिकार ।१६२८ में डचो के साथ युध्द के कारण अंग्रेजो द्वारा मसूलीपत्तनम का परित्याग ।१६५१ में अंगेर्जो द्वारा हुगली में फैक्ट्री की स्थापना ।१६५२ में मद्रास को प्रेसिडेंसी के रूप में गठित किया गया ।१६५४ में पुर्तगालियो ने अपने अधीन समस्त पूर्वी प्रदेशो में अंग्रेजो को व्यापार करने और निवास करने के अधिकार को मान्यता प्रदान की ।१६६२मे बिट्रिश सम्राट चालर्स द्वितीय को पुर्जाल से दहेज में प्राप्त बंबई के द्वीप पर अधिकार करने के लिए एक ब्रिटिश नौसेनिक बेड़े का बंबई में आगमन और पुर्तगालियो द्वारा अंगेजो को बंबई का इस्तांतरण  ।१६८६ में इंग्लिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा हुगली में मुगलो के विरुध्द युध्द १६९० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी और मुगलो के मध्य समझौता ।१६९८ में अंगेजो को सुतनोति ,कालिकता और गोविंदपुर (इन्ही तीन ग्रामो की जमीन पर कलकत्ता की स्थापना की गई )की जमींदारी प्राप्त हुई ।१७०० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के डाइरेक्टर द्वारा बंगाल को पृथक प्रेंसीडेंसी के रूप में गठित किया गया और 'सर चालर्स आयर' को उसका प्रथम पेसिडेट नियुक्त किया गया ।१७१७ में मुगल स्मार्ट फ़र्रुख़सियर ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापार को व्यापारिक चंगियो से मुक्त कर दिया ।आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्व्न्द्विता और तीन कर्नाटक युध्द -प्रथम कर्नाटक युद्ध-प्रथम कर्नाटक युध्द (१७४५-४८),द्वितीय कर्नाटक युध्द (१७४९-५४),तृतीय कर्नाटक युध्द (१७५८-६३)।१७६० में वंदिवाश के युध्द में फ्रांसीसियो की निर्णयात्मक रूप में अंग्रेजो के हाथो पराजय और पेरिस की संधि (१७६३)।१७५६ में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला द्वारा अंग्रेजो के विरुध्द सैनिक कार्यवाही और कलकत्ता में कोर्ट विलियस पर अधिकार ।जून १७५६ में तथाकथित काल- कोठरी दुर्घटना ।१७५७ ,प्लासी की युध्द -नवाब सिराजुद्दौला की पराजय और उनकी हत्या ।नवाब के विश्वासघाती सेनानायक मीर जाफर को बंगाल का नवाब घोषित किया गया ।राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजो द्वारा बिहार और बंगाल पर लगभग पूर्ण नियंत्रण ।१७५९ में अंग्रेजो द्वारा डचो को बदरा में पराजित किया गया ।
                    १७५९-६० बंगाल के नवाब मीर-जाफर को गद्दी से  अपदस्थ कर दिया गया और उसके स्थान पर भूतपूर्व नवाब के जामाता मीर कासिम को सिंहासनारूढ़ किया गया  ।



                         १७६३-६४

१७६३ में मीर कासिम एंव ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच भयंकर मतभेद एंव विवाद । अंग्रेजो के हाथो मीर क़ासिर की पराजय और उसका बंगाल से अवध की ओर पलायन ,जहां उसने अग्रेजो को बंगाल से निष्कासित करने के लिए अवध के नवाब शुजाउद्दौला एंव मुगल सम्राट के साथ सैन्य संघ का गठन किया ।


                        १७६४

बक्सर का युध्द ओर नवाब के सैन्य संघ की पराजय ।बक्सर के युध्द में अंग्रेजो की विजय से वे उत्तर भारत में पर्याप्त रूप से शक्तिशाली हो गए ।


                                                                         १७६५(मई)--१७६७(फ़रवरी)

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर के रूप में क्लाइव का द्वितीय कार्यकाल ।अवध के नवाब शुजा-उद-दौला के साथ इलाहाबाद की संधि ।मुगल सम्राट शाह आलम को कम्पनी का संरक्षण प्रदान किया गया ,जिसके द्वारा कम्पनी को बंगाल ,बिहार ओर उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्राप्त हुए।बंगाल में व्दैधशासन प्रणाली ।अंग्रेजो सेनिको का 'श्वेत सेंकिक विद्रोह 'क्लाइव द्वारा बंगाल में सफलतापूर्वक एक 'लुटेरा राज्य' की स्थापना।


                        १७७२--८५

बारेन हेस्टिंम्ज बंगाल का गर्वनर (१७७२) ओर गवर्नर जनरल  (१७७३-८५) के रूप में। बंगाल में द्वैध प्रशासन व्यवस्था का अंत ओर बंगाल बिहार व उड़ीसा को कम्पनी के सीधे प्रशासन के अंतर्गत लाया गया, जिसके परिणामस्वरूप ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक राजनितिक शक्ति के रूप में भारत में उदय।

राजस्व संबंधी सुधार :-भू-राजस्व का पंचवर्षीय बंदोबस्त ,जिसके अंतर्गत लगान वसूल का ठेका दिया जाने लगा।इस पंचवर्षीय बंदोबस्त को बाद में वार्षिक कर दिया गया ।प्रशासनिक इकाई के रूप में जिलो का गठन ।१७७७ में जिला कलेक्टरों ओर अन्य राजस्व अधिकारियों की नियुक्ति।
न्यायिक सुधार:- भारतीय न्यायिक व्यवस्था में द्वैधवाद का प्रचलन ।जिला स्तर पर दीवानी और फौजदारी आदळतो एंव कलकत्ता में "अपीलीय सदन दीवानी" और "निजामत अदालतों" की स्थापना ।हिन्दू और मुसलमान कानूनो का संहिताकरण। हेस्टिंग्ज द्वारा रुहेला युध्द(१७७४), प्रथम आंग्ल-मराठा युध्द(१७७६-८२) ,द्वतीय आंग्ल-मराठा युध्द(१७८०-८४)।


                      १७८६-९३

गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस :-

-----प्रशासनिक सुधार:-
                                भारतीय न्यायाधीशों की अध्यक्षता वाली जिला फौजीदारी अदालतों को समाप्त कर दिया और उनके स्थान पर यूरोपियन न्यायाधीशों की अध्यक्षता वाली दौरा अदालतों की स्थापना की गई ।१७९३ में शक्तियों के विभाजन के सिध्दांत पर आधारित कार्नवालिस कोड का प्रचलन किया गया ।हुए कोड के द्वारा जिला कलेक्टरों को न्यायिक और न्यायाधिकारो के अधिकारों से वचित कर दिया गया ।जिला दीवानी अदालतों की अध्यक्षता के लिए जिला न्यायाधीश के नए पद का सृज्जन किया गया ।न्यायालयों की श्रेणीबध्द रूप से स्थापना की गई ,जिनमे मुंशिफ सबसे छोटे न्यायाधिकारी होते थे ।मामूली प्रकरणो का निर्णय जिला न्यायाधीश करता था, जबकि गंभीर प्रकरणो को दौरा अदालतों को सौप दिया जाता था ।गवर्नर जनरल को सजा माफ़ी और सजाओ को कम करने का अधिकार प्रदान किया गया ।

----पुलिश सुधार:-
                       जमींदारो को समस्त पुलिस अधिकारों से वंचित कर दिया गया ।प्रत्येक १००० वर्ग की.मी.क्षेत्र पर एक पुलिस अधीक्षक को नियुक्त किया गया ।१७९१ के अधिनियम के द्वारा पुलिस अधीक्षक के अधिकारों का निर्धारण किया गया ।

----भू-राजस्व या लगान व्यवस्था संबंधी सुधार :-
                                     बंगाल के प्रांत को कलेक्टरों के अधीन वित्तीय खंडो में विभाजित किया गया ।१७९० में वास्तविक कृषक भू-स्वामियों के स्थान पर कम्पनी द्वारा जमींदारो को इस शर्त-पर जमींदारी क्षेत्र का भू-स्वामी स्वीकार किया गया की वे कम्पनी को भू-राजस्व की अदायगी करते रहेंगे ।१७९० में जमींदारो के साथ किये गए दस वर्षीय बंदोबस्त को १७९३ में स्थायी बना दिया गया ।१७९३ का बंगाल का स्थायी बंदोबस्त या जमींदारी व्यवस्था ।

----सम्राज्य विस्तार :-
              तृतीय आँग्ल-मैसूर युध्द (१७९०-९२)में अंग्रेजो ने मराठो और निजाम के साथ सैनिक समझौता करके टीपू सुलतान को पराजित किया और टीपू की पराजय के उपरान्त उसके साथ अंग्रेजो द्वारा 'श्रीरंगपट्ट्नम की संधि (१७९२)'।कार्नवालिस ने उच्च प्रशासकीय पदो पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर दिया ।


                                                                                  १७९३-९८

गवर्नर जनरल सर जॉन शोर :--
                                         १७९३ में ब्रिटिश संसद द्वारा चार्टर एकट पारित किया गया ।मराठो एंव निजाम के मध्य खर्दा के युध्द में निजाम की पराजय (१७९५)।अहमद शाह अब्दाली के पौत्र जमाह शाह द्वारा भारत पर आक्रमण ।


                                                                                १७९८-१८०५

गवर्नर जनरल लॉड बेलजलि :-
                        उसकी नीतियों का लक्ष्य भारत में ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना करना था ।उसने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहायक संधि व्यवस्था को भारतीय राज्यों पर बलात आरोपित किया ।इस भारतीय संधि व्यवस्था में शामिल होने वाला भारतीय राज्य अंग्रेजो की प्रभुसत्ता स्वीकार करता था और उनका अधीनस्थ मित्र राज्य हो जाता था एंव अपनी सैन्य सुरक्षा एंव वैदेशिक संबंध कम्पनी को समर्पित कर देता था ।तदनुसार सहायक संधि में शामिल होने वाले राज्य में कम्पनी अपनी एक सहायक सेना रखती थी एंव संबंधित राज्य में एक ब्रिटिश रेजिडेंट को नियुक्त करती थी ।उक्त सहायक सेना के रखरखाव का व्यय संबंधित राज्य को बहन करना परता था ,जिसके लिए संबंधित राज्य को अपने कुछ प्रदेश कम्पनी को सौपने परते थे ।कुछ राज्य को सहायक संधि व्यवस्था में शामिल हुए वे थे ----हैदराबाद का निजाम, मैसूर का राजा ,तंजौर ,अवध ,जोधपुर ,जैतपुर ,मछेरी ,बूंदी भरतपुर ,बसर के शासक और पेशवा ।चतुर्थ आम्ल -मैसूर युध्द (१७९९)"में टीपू सुलतान की पराजय और मृत्यु ।"द्वितीय आम्ल मराठा युध्द (१८०३-०६)"में सिंधिया, भोसले और होल्कर की पराजय ।यह पराजय मराठा शक्ति के लिए भयंकर क्षति थी ।



                                                                                  १८०५-०७

गवर्नर जनरल जार्ज वार्लो:-
                                 उसने अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया और सिंधिया एंव होल्कर मराठा नरेशों के साथ शांतिपूर्ण संबंधो की पुनर्स्थापना की ,क्योकि आँग्ल-मराठ युध्द के कारण वे अंग्रेजो से बहुत क्रुध्द थे ।वेल्लोर में अंग्रेज सेनिको द्वारा सैनिक विद्रोह ।


                                                                                १८०७-१३

गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो प्रथम :-
                            उसके कार्यकाल में एक पठान सरदार आमिर खा ने बरार पर आक्रमण कर दिया,पर १८०९ में उसे पराजित करके बरार से खदेड़ दिया गया ।उसके कार्यकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना पंजाब के सिख राजा रणजीतसिंह के साथ अमृतसर की संधि थी ,जिसके द्वारा आँग्ल-सिख संबंधो के इतिहास में एक नवीन अध्याय का सूत्रपात हुआ।


                                                                              १८१३-२३

गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्ज :-
                        उसने बार्लो की अहस्तक्षेप की नीति का परित्याग कर दिया और उसके स्थान पर हस्तक्षेप एंव युध्द की नीति का अनुसरण किया ।आँग्ल-नेपाल युध्द (१८१३-२३)के द्वारा गोरखा शासक अमरशिंह को पराजित किया गया ।इस युध्द का अंत सगौल की संधि के द्वारा हुआ ।गोरखों ने गढ़वाल और कुमायूं के प्रदेश तथा आधुनिक शिमला कम्पनी को समर्पित कर दिए।तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (१८१७-१८) हेस्टिंग्ज ने बरी सुनियोजित योजना के द्वारा नागपुर ,के मराठा राजा ,पेशवा और सिंधिया को अपमानजनक सन्धियां स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।पुणे के पेशवाई प्रदेशो का बंबई प्रेसिडेंसी में विलय कर लिया गया ।इस प्रकार ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना की दिशा में अंतिम अवरोध भी समाप्त हो गया और मराठा शक्ति को पूरी तरह से कुचल दिए गया:-
-------आंतरिक सुधार :-
                           अदालतों में लम्बे समय से पड़े अनिर्णीत मुकदमो के निपटारे के लिए मुशीफ़ो को नियुक्त किया गया और अनिर्णीत प्रकरणो की संख्या कम करने के लिए कुछ मामलो में अपील के अधिकार को समाप्त कर दीया गया ।भारत में पश्चिमी शिक्षा के प्रसार के भी प्रयास किये गए ।


                                                                              १८२३-२८

गवर्नर जनरल लॉर्ड समाहर्स्ट:-
                       उसके कार्यकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना आँग्ल-बर्मी युध्द (१८२४-२६) था ।अन्य प्रमुख घटनाओ में बैरकपुर में सैनिको का विद्रोह ,भरतपुर में विद्रोह ,नागपुर के साथ संधि ,मलय प्रायद्वीप में कुछ प्रदेशो पर अधिकार और स्याम के साथ संधि थी ।


                                                                             १८२८-३५

गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैटिंक:-
                            उनके संबंध में परस्पर-विरोधी विचार व्यक्त किए गए है।उनके प्रशानिक कार्यो का भी विभिन्न प्रकार से मील्यांकन किया गया है ।मैकाले ने बैटिंक की अतिशय प्रशंसा करते हुए लिखा है की ,"उन्होंने पूर्वी निरंकुशलता में ब्रिटिश स्वतंत्रता की भावना का संचार किया और वे (बैटिंक) यह कभी नहीं भूले की सरकार का लक्ष्य शासित लोगो का कल्याण है ।"निस्संदेह रूप से बैटिंक ने सती प्रथा का अंत ,बाल-हत्या पर प्रतिबंध आदि जैसे अनेक सामाजिक सुधार किए ,परन्तु उन्होंने प्रशासन के उदारीकरण एंव भारत में राजनितिक स्वतंत्रता के वरदहस्त को प्रदान करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया ।इस दृष्टि से मैकाले द्वारा उन पर प्रशंसा की अतिव्रध्दि अर्थहीन लगती है ।तथापि बैटिंक को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है की उन्होंने समाजिक समस्याओ का बहुत साहस के साथ निदान किया ।

--------समाजिक सुधार:-
                   राजा राम मोहन राय जैसे भारतीय समाजिक सुधारको ने विलियम बैटिंक से सती प्रथा को अवैध घोषित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए निवेदन किया ।दिसंबर १८२९ में एक अधिनियम पारित किया गया, जिसके द्वारा सती प्रथा या हिन्दू विधवाओ को जीवित जलाने को अवैध घोषित कर दिया गया और इसे फौजदारी अदालत द्वारा दंडनीय अपराध माना गया ।ठगो का १८३० में दमन किया गया ।ठगो के विरुध्द अभियान का उत्तरदायित्व कर्नल विलियम स्लीमैन को सोपा गया ,जिसने १५०० ठगो को बंदी बनाया ।

--------प्रशानिक सुधार:-
               बैटिंक ने कम्पनी की सेवा में भारतीयों की नियुक्ति से संबंधित कार्नवालिस की नीति को उलट दिया ।१८३३ के चार्टर अधिनियम में वह व्यवस्था थी की ,"कम्पनी में किसी भी भारतीय व्यक्ति को उनके धर्म ,जन्मस्थान ,जाती और रंग के आधार पर कम्पनी के अधीन किसी पद पर नियुक्ति से वंचित नहीं किया जाएगा ।

--------न्यायिक सुधार:-
                कार्नवालिस द्वारा स्थापित अपीलीय प्रांतीय न्यायालयों तथा दौरा न्यायालयों को समाप्त कर दिया गया और उनके स्थान पर राजस्व और दौरा अदालतों के संभागीय आयुक्त नियुक्त किए गए।ऊपरी प्रांतो की जनता की सुविधा के लिए इलाहाबाद में सदर दीवानी और निजामत अदालतें स्थापित की गई ।मुकदमे दायर करने के लिए देशी भाषाओ के प्रयोग करने का विकल्प दिया गया ।शहरी और जिला न्यायालयों में भारतीय न्यायाधीशे को मुशीफ़ो के रूप में जाना जाता था।

-------शैक्षिक सुधार:-
                बैटिंक की सरकार का सबसे महत्वपूर्ण योगदान भारत में ब्रिटिश सरकार की शैक्षिक नीति के उद्देश्यों और लक्ष्यों को परिभाषित करना था ।मैकाले सार्वजनिक शिक्षा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया,जिसने भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति का निर्धारण करते हुए अंग्रेजी भाषा ,साहित्य ,समाजिक एंव प्राकृतिक विज्ञानों की शिक्षा को प्रचलन को भारत में ब्रिटिश शैक्षिक नीतियों का लक्ष्य घोषित किया गया ।मार्च १८३५ में मैकाले के सुझाओ को स्वीकृति प्रदान की गई और उनका क्रियान्वयन किया गया ।

-------वित्तीय सुधार:-
                 कम्पनी की वित्तीय व्यवस्था ,जो आंग्ल-बर्मी युद्धों में भयंकर व्ययों के कारण दयनीय स्थिति में पहुंच गई थी,में सुधार लाने के प्रयास किए गए ।अनेक निरर्थक पदो को समाप्त कर दिया गया और कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन और भत्तो में कटौती की गई ।

-------देशी रिसायतो के संबंध में नीति :-
                                 बैटिंक ने जहां तक सम्भव हो सका देशी रियासतो के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया ।परन्तु मैसूर (१८३१), कुर्ग (१८३४) आदि के संबंध में उसने इस नीति का अनुसनर्ं नही किया और कुप्रशासन के आधार पर इन राज्यों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया ।


                                                                              १८३५-३६

गवर्नर जनरल सर चालर्स मेटकाफं :-
                               उसका एक वर्ष का संक्षिप्त कार्यकाल नवीन प्रेस कानून के कारण स्मरणीय है। उसने भारतीय समाचार-पत्रो या प्रेस पर आरोपित नियंत्रणों को समाप्त कर दिया ।



                                                                               १८३६-४२

गवर्नर जनरल लॉर्ड आँकलैंड:-
                        उसका कार्यकाल भारत में ब्रिटिश शासन के सवार्धिक दुर्भाग्यपूर्ण और अपमानजनक प्रथम अफगान युध्द के लिए स्मरणीय है ।इस युद्ध में ब्रिटिश सेना का विनाश मैटकाफ की सेवानिर्वत्ती के समय हुआ ।



                                                                             १८४२-४४

गवर्नर जनरल लाॅर्ड एलेनबंरो:-
                       उसने अफजाल युध्द को बंद किया और काबुल के विरुध्द सफल सैनिक अभियान के द्वारा ब्रिटिश सम्मान और शक्ति को पुनर्स्थापित किया  ।उसने कार्यकाल में दो भयंकर अन्यायपूर्ण कार्य हुए अर्थात सिंध का ब्रिटिश सम्राज्य में विलय और सिंधिया को एक अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया ।ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कोर्ट आँफ हैंइरेक्टर्स के आदेशो की अवहेलना करने के कारण एलेनबंरो को १८४४ में पदमुक्त करके इंग्लैंड वापस बुला लिया गया ।



                                                                                १८४४-४८

गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग :-
                        भारत में इसका कार्यकाल मुख्यतः प्रथम सिख युध्द(१८४५) के लिए स्मरणीय है ।अंग्रेजो सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया और सीखो पर (१८४८ की लाहौर की संधि) अपनी शर्तो पर आधारित एक संधि को थोपा ।हार्डिग ने प्रशासकीय पदो पर नियुक्ति के मामले में पश्चिमी अंग्रेजो शिक्षा को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला,पर इसके कारण शिक्षा का स्वरूप बदल गया अर्थात सरकारी नौकरी के हेतु अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण की जाने वाली ।हार्डिग द्वारा खोंड जनजाति द्वारा नखली देने की कुप्रथा का दमन किया ,जो उनकी एक अन्य उपलब्धि थी ।


                                                                               १८४८-५६

गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी:-
                      उन्हें भारत का महानतम ब्रिटिश गवर्नर जनरल माना जाता है ।भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार एंव उसको शक्तिशाली बनाने में उनका अपरिमित योगदान था।भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का जितना अधिक विस्तार डलहौजी के शासनकाल में हुआ,उसका आधा भी किसी अन्य गवर्नर जनरल के कार्यकाल में नही हुआ ।उसके द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल किए प्रदेशो का विस्तार या आकार इंग्लैड और वेल्स से दोगुना था ।डलहौजी ने व्ययगत का सिध्दांत या विलय का सिध्दांत जिसे उसने शांतिपूर्ण विलय की नीति नाम दिया ,का मुक्त रूप से प्रयोग करके भारतीय राज्यों का ब्रिटिश में विलय किया ।भरतीय राज्यों या देशी रियासतो को यह मानता था की उनके राज्यों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय व्यपगत या विलय के सिध्दांत के द्वारा नहीं अपितु ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नैतिक मानदंडो में पतन के कारण किया गया ।जिन भारतीयों राज्यों का उस सिध्दांत के द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया गया,उनमे से कुछ थे ----सतारा (१८४८), जैतपुर और सम्भलपुर (१८४९) ,बघत(१८५०),उदयपुर (१८५२),झांसी (१८५३) और नागपुर (१८५४)।
डलहौजी ने द्वितीय आंग्ल-सिख युध्द (१८४८-४९) लड़ा और संपूर्ण पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया ।उसने सिक्किम और बर्मा के विरुध्द भी युध्द लड़े ।इस प्रकार संपूर्ण पंजाब ,निचले बर्मा(म्यांमार) एंव सिक्किम के कुछ भागो को शस्त्रों के द्वारा विजित किया गया ।उसने कर्नाटक के नवाब एंव तंजौर के राज के राजपद को समाप्त कर दिया और भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त उसके परिवार एंव उत्तराधिकारी की पेंशन को बंद कर दिया गया ।

-----------प्रशासनिक सुधार:-
                     उसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के आंतरिक प्रशासन में भी अनेक और विविध प्रकार के सुधर किए। बंगाल प्रान्त का लेफ्टिनेंट गवर्नर के प्र्शासनाधीन गठन किया गया और कलकत्ता को इस प्रांत का मुख्यालय बनाया गया ।इसके साथ ही कलकत्ता भारत में ब्रिटिश सम्राज्य की राजधानी भी बना रहा ,चुकी अब तक ब्रिटिश साम्राज्य ने विशाल भारतीय भूभाग का विलय किया जा चुका था अतः यह निर्णय लिया गया की प्रत्येक वर्ष कुछ महीनो के लिए शाही ब्रिटिश राजधानी को शिमला में स्थानांतरित किया जाए ।जिन भारतीयों प्रदेशो का ब्रिटिश साम्राज्य में हाल ही में विलय किया गया था ,उनकी देखरेख के लिए विशेष आयुक्तों को नियुक्त किया गया ,जो सीधे गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी होते थे ।

----------सैनिक सुधार :-
                बंगाल के तोपखाने के मुख्यालय को कलकत्ता से मेरठ स्थानांतरित कर दिया गया और धीरे -धीरे सेना के स्थायी मुख्यालय को शिमला में स्थानांतरित कर दिया गया ।ड़लहौजी ने सेना में भारतीयों की संख्या को कम करने का प्रस्ताव किया ताकि अंग्रेजी और भारतीय सैन्य टुकड़ियों के बीच संतुलन बनाए रखा जा सके ।

---------शैक्षित सुधार:-
                 शिक्षा के क्षेत्र में दूरगामी परिणामो वाले अनेक सुधार लागू किए गए ।प्रसिध्द 'वुड्स डिस्पेच' (१८५४) [चालर्स वुड नियंत्रक बोर्ड या बोर्ड आँफ कंट्रोल का अध्यक्ष था।] के सुझावे के अंतर्गत प्राथमिक स्तर से विश्वविधालय स्तर तक की शिक्षा व्यवस्था की एक सुविचारित योजना को प्रस्ताविक किया गया ।इस वुड्स डिस्पैच में सुझाव दिया गया की प्रत्येक जिले में एंग्लो व्रनेयुलर विधालय एंव महत्त्वपूर्ण नगरो में काँलेजो की स्थापना की जाए ।तीनो प्रेसिडेंसी नगरो (कलकत्ता ,बंबई और मद्रास) में लंदन विश्विधालय के नमूने पर विश्वविधालय स्थापित करने की सिफारिस की गई ।वुड्स डिस्पैच को भारत में पश्चिमी शिक्षा का मेग्ना कार्टा कहा जाता है ।इन शिक्षा संबंधी प्रस्तावों में यह भी प्रस्ताविक किया गया की भारतीय भाषाओ को शिक्षा का  माध्यम बनाया जाए और राजकीय अनुदान सहायता प्रदान करके शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत प्रयास को प्रोत्साहित किए गए ।

-------रेलवे ,डाक और तार व्यवस्था का विकाश:-
                                      भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को सदृढ़ करने,भारत में ब्रिटिश पूंजी निवेश को प्रोत्साहित करने और औपनिवेशिक अर्थव्यस्था के विकास के लिए भारतीय आर्थिक संसाधनो का अधिकाधिक दोहन करने के लिए भारत में रेलवे परिवहन व्यवस्था के विकास को आवश्यकीय माना गया ।परिणामस्वरूप भारत में रेलवे लाइन के निर्माण को विशेष महत्व दिया गया और इन रेवले लाइनो के निर्माण को विशेष महत्व दिया गया और इन रेलवे लाइनो के निर्माण कार्य ब्रिटिश महत्व दिया गया और इन रेलवे लाइनो के निर्माण कार्य ब्रिटिश निग्नो को ठेके पर दिया गया ।बंबई को थाने से जोरने वाली प्रथम रेलवे लाइन को १८५३ में चालु किया गया और १८५४ में कलकत्ता को रानीगंज की कोयला खानो में जोरने वाली दूसरी रेलवे लाइन की चालु किया गया ।कलकत्ता को पेशावर से जोरने वाली विघुत तार सचार लाइनो को बिछाया गया ।इसी प्रकार बंबई ,कलकत्ता ,मदास और देश के अन्य महत्वपूर्ण स्थानो को भी तार संचार प्रणाली से जोड़ा गया।
                                                               १८५४ में एक नवीन पोस्ट आफिस एक्ट पारित किया गया। इस नवीन डाक व्यवस्था के अंतर्गत समस्त प्रेसिडेंसी नगरो की डाक -व्यवस्था की देखरेख के लिए डाइरेक्टर जनरल (महानिदेशक-डाक व्यवस्था) को नियुक्त किया गया ।डाक टिकटों का सामान मूल्य निर्धारित किया गया और १८५४ में प्रथम डाक टिकट का सामान मूल्य निर्धरित किया गया और १८५४ में प्रथम डाक टिकट का प्रचालन किया गया ।संचार के क्षेत्र में इन प्रगतिशील कार्यो के द्वारा समाजिक ,आर्थिक एंव वाणिज्यिक जीवन को एक नई दिशा प्राप्त हुई ।इस प्रकार डलहौजी को भारत में रेल ,तार एंव डाक व्यवस्था का संस्थापक कहा जा सकता है।

-----------------सार्वजनिक निर्माण विभाग:-
                                 डलहौजी से पूर्व सार्वजनिक निर्माण विभाग एक सैनिक बोर्ह के अधीन था।उसने एक सार्वजनिक निर्माण विभाग का गठन किया और अनेक सिंचाई परियोजनाओं को प्राम्भ किया, जिनमे सबसे महत्वपूर्ण गंगा नहर थी,जिसे १८५४ में पूरा किया गया।


---------------आर्थिक सुधार:-
                    कराची,बंबई और कलकत्ता के बंदरगाहों को विकसित किया गया और जहाजरानी को सुगम बनाने के लिए अनेक दीपस्तम्भो का निर्माण कराया गया ।मुक्त व्यापार नीति का और अधिक विकास किया गया और ब्रिटिश उत्पादकों को कच्चे माल की आपूर्ति के लिए भारतीय संसाधनो का खूब दोहन किया गया एंव साथ ही ब्रिटिश कारखाने में उत्पादित माल का भारत में मुक्त रूप से आयात किया गया ।


                                                                                  १८५७

१८५७ का विद्रोह :-
             डलहौजी के द्वारा व्यपगत था विलय के सिद्धांत के माध्यम से ब्रिटिश औपनिवेशिक एंव साम्राज्य्वादी नीतियों के अनुसरण तथा ख़ास तौर पर अपने विस्तारवादी हथकंडो के प्रयोग के विरुध्द तूफ़ान उठ खड़ा हुआ,जिसने डलहौजी के उत्तराधिकारी केनिंग के कार्यकाल में प्रचंड बवंडर का रूप धारण कर लिया ।


                                                                          १८५६-६२

लार्ड कैनिंग:-
           ईस्ट इण्डिया के अंतिम गवर्नर जनरल एंव ब्रिटिश भारत को शाही ताज के अंतर्गत लाने जाने के बाद प्रथम वाइसराय और गवर्नर जनरल ।केनिंन गवर्नर जनरल के रूप में सत्ता ग्रहण करने के बाद ही भारतीय स्थिति के संबंध में आशंकित हो गए और उन्होंने इस स्थिति का मूल्यांकन करते हुए खा की "भारतीय आकाश पर एक बादल का उदय हो सकता है जो बढ़ते-बढ़ते इतना बड़ा हो सकता है की हमें स्वर्णाश के कगार पर ले जाएगा ।" उनकी आशंका निर्मूल नही थी ,इस वृश्टिस्फोट ने १८५७ के विद्रोह के रूप में बवंडर का रूप धारण कर लिया ।कैनिंग का कार्यकाल बड़ा घटनापूर्ण था ।उसके काल में भारत की ब्रिटिश प्रशासकीय कितियो में व्यापक परिवर्तन हुआ ।कैनिंग के कार्यकाल में १८५७ के विद्रोह के दमन के उपरान्त प्रसिध्द साम्राज्य की घोषणा की गई, जिसके द्वारा भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन को समाप्त कर दिया और भारत को ब्रिटिश शाही ताज के सीधे प्रशासन के अंतर्गत ले आया गया ।इस "साम्राजी की घोषण " को १८५८ के एक्ट के द्वारा वैधानिक स्वरूप प्रदान किया गया  ।इस एक्ट में प्रस्तावित किया गायकी बी"भारत को (ब्रिटिश )शाही ताज के नाम पर उसके एक प्रमुख सचिव (मंत्री) (भारत विषयक मंत्री या सचिव)एंव उसकी १५ सदस्यों वाली परिषद के द्वारा शासित किया जाएगा।"इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अंत हो गया और भारत में बिटिश गवर्नर को वाइसराय पदनाम प्रदान किया गया ।परन्तु १८५८ के एक्ट के द्वारा कोई मौलिक परिवर्तन नही हुआ,अपितु यह औपचारिकता मात्र थी,क्योकि ब्रिटिश शाही ताज का पहले से ही कम्पनी के मामलो पर काफी सशक्त नियंत्रण था ।

---------भारतीय परिषद अधिनियम ,१८६१:-
                                   १८५८ के एक्ट ने भारतीयों प्रशानिक ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किया था ।१८५७-५८ के विद्रोह का मुख्य कारण शासक और शासितों के मध्य संपर्क का अभाव था ।इसी कमी को दूर करने के लिए १८६१ के अधिनियम में प्रेसिडेंसी प्रांतो में विधायिका (कांउसिल)की स्थापना एंव वाइसराय की कांउसिल या परिषद के विस्तार का प्रावधान रखा गया ।भारत के सवेधानिक इतिहास में यह अधिनियम एक युगप्रवर्तक था क्योकि इसने भारत की वाइसराय को अधिकार प्रदान किया ।इस अधिनियम के द्वारा स्थापित विधापिक परिषदो (केंद्रीय एंव प्रांतीय दोनों)को उनके स्वरूप और कार्यप्रणाली के आधार पर वास्तविक व्यवस्थापिका नहीं कहा जा सकता है ।इस अधिनियम के द्वारा स्थापित परिषदो को दरबार मात्र खा जा सकता है ,जिन्हे भारतीय शासकगण अपनी प्रजा की राय जानने के लिए आयोजित करते थे ।
                                                   कैनिंग के ही कार्यकाल में कुख्यात व्यप्रगट या विलय के सिध्दनांत को आधिकारिक रूप से वापस ले लिया गया (१८५९)।भारतीय दण्ड संहिता (१८५८),दण्ड व्यवहार संहिता (१८५९)और भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम (१८६१)को पारित किया गया ।आयकर को प्रयोगात्मक आधार पर क्रियान्वित किया गया ।कैनिंग के कार्यकाल बंगाल में निल खेतिहरों के उपद्रव एंव श्वेत विद्रोह हुए तथा उत्तर-पश्चमी सीमा प्रांत में भयंकर आकाल पड़ा।



                                                                           १८६२-६३

वाइसराय एंव गवर्नर जनरल लार्ड एल्गिन :-
                                    उसका शासनकाल बहाबी आंदोलन के लिए स्मरणीय है ।बहाबी मुसलमानों का एक धर्मान्धतापूर्ण सम्प्रदाय था,जिसने उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में उग्र उपद्रव किए।ब्रिटिश शासन ने लम्बी और कठिन सैनिक कार्यवाही के द्वारा भाबियो को पराजित किया और उनके गढ़ो को नष्ट कर दिया ।सर्वोच्च एंव सदर न्यायालयों को उच्च न्यायालय के साथ शामिल कर दिया गया।


                                                                              १८६४-६९

वाइसराय एंव गवर्नर जनरल सर जॉन लॉरेंस:-
                                     इस काल में भारत का बहुत बड़ा भाग, विशेषतः १८६६ में उड़ीसा और राजपुताना एंव १८६८-६९ में बुंदेलखंड भयंकर अकाल की चपेट में रहे ।प्रायिक आकाले से निपटने के लिए आवश्यक उपाय प्रस्तावित करने के लिए एक अकाल कमीशन नियुक्त किया गया ।इस काल में अनेक रेलवे लाइनो ,नहरो एंव सावर्जनिक निर्माण कार्यो को प्रारम्भ किया गया ।यूरोप के साथ तार संचार व्यवस्था को चालु किया गया ।पंजाब भूघर्ति अधिनियम पारित किया गया ,जिसके द्वारा पंजाब और अवध में बहुत बड़ी संख्या में बटाईदारों को मालिकाना अधिकार प्रदान किए गए  ।
         

                                                                              १८६९-७२

वाइसराय एंव गवर्नर जनरल लॉर्ड मेयो :-
                                उसने भारत में वित्त व्यवस्था का विकेंद्रीकरण किया और प्रथम प्रांतीय बंदोबस्त किया ।वह भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे ,जिनकी उनके कार्यकाल में हत्या कर दी गई ।मंदमन में एक केडी ने उनकी हत्या कर डाली ।उनके प्रयासों से भारतीय शासक वर्ग या राजा-महाराजाओ के राजकुमारों के अध्ययन एंव प्रशिक्षण के लिए प्रसिध्द "मेओ कॉलेज" की अजमेर में स्थापना की गई ।


                                                                                १८७२-७६

वाइसराय एंव गवर्नर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक :-
                                   उनके कार्यकाल में भारत में प्रिंस ऑफ वेल्स (जो बाद में एडवर्ड सप्तम के नाम से प्रसिध्द हुए)का भारत में आगमन हुआ और ब्रिटिश रेजिडेंट को जहर देने के आरोप में बरोदा के गायकवाड़ शासक पर मुकदमा चलाया गया परन्तु लॉर्ड नारीब्रुक ने अफगानिस्तान के साथ राजनीति संबधों के निर्धरण से संबंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या का इस कारण सामना किया क्योकि रूस केंद्रीय एशिया की ओर तेजी से बढ़ रहा था ।इसी अवधि मर पंजाब में सीखो के "कूका आंदोलन" ने विद्रोहात्मक रूप ग्रहण कर लिया ।बिहार भयंकर अकाल की चपेट में आ गया ।


                                                                                  १८७६-८०

वाइसराय एंव गवर्नर जनरल लॉर्ड लिटन :-
                                   वह ब्रिटेन में बेंजामिन डिजरायली की कंजरवेटिव सरकार का भारत में प्रतिनिधि था ।लिटन एक एक प्रसिध्द कवि ,उपन्यासकार और लेखकार होने के बावजूद भारतीय मामलो में बहुत प्रतिक्रियावादी और दमनशील था व भारतीय भाषा प्रेस अधिनियम शस्त्र अधिनियम आदि जैसे प्रतिक्रियावादी कानूनो को पारित करने के लिए उत्तरदायी था।ब्रिदिश संसद में शाही उपाधि अधिनियम पारित करके साम्रज्य विक्टोरिया को केसर-ए-हिन्दू या भारत की महा साम्राजी की उपाधि से सम्मानित किया ।एक भव्य औपचारिक समासेह में इस उपाधि से साम्राजी विक्टोरिया को सम्मानित करने के लिए १ जनवरी १८७२ को एक वैभवपूर्ण दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया,जिससे की भारत की जनता एंव देशी राज्यों के नरेशों के सम्मुख इसकी घोषणा की जा सके।इस समारोह में ऐसे समय पर लाखो रुपय व्यय किए गए,जब भारत का बहुत बड़ा भाग भयंकर अकाल की चपेट में था, जिसमे असंख्य भारतीय लोग भूख और भुखमरी से मर रहे थे। भारत में राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने में यह दिल्ली दरबार दुखद परिस्थितियों में एक वरदान सिद्ध हुआ ।

--------- भारतीय भाषा प्रेस अधिनियम १८७८:-
                                       भारत में व्यापक अकाल और जनता के कष्टो के प्रति सरकार के निराशाजनक दृष्टिकोण के कारण सैकड़ो कृषिजन्य उपद्रव गिरोह द्वारा लूटपाट और साहूकारों पर हमले किए गया,जिन्हे भारतीय भाषाओ में समाचार-पत्रो ने बढ़ा-चढ़ाकर प्रकाशित किया ।इन समाचार -पत्रो की आवाज का गला घोटने के लिए भारतीय भाषा प्रेस अधिनियम पारित किया गया,जिसके द्वारा मजिस्ट्ररो को यह आदेश दिय गए की वे भारतीय भाषाओ में प्रकाशित होने वाले सम्राचार-पत्रो के प्रकाशकों से इस बात की लिखित गारंटी या बचनबध्दता ले की वे किसी ऐसी सामग्री का प्रकाशन नहीं करेंगे ,जिससे ब्रिटिश शासन के विरुध्द असंतोष पैदा होता हो ।इस अधिनियम को "गलाघोंट अधिनियम" के रूप में विर्दूपित उपनाम दिया गया है।

--------शस्त्र अधिनियम १८७८:-
                      इस अधिनियम के द्वारा बिना लाइसेंस के हथियार रखने या लेकर चलने को दंडनीय अपराध घोषित किया गया ।इस अधिनियम के विरुध्द इस कारण रोष व्यक्त किया गहा की इससे रंगभेद या जातीय भेदभाव की दुर्भावना स्पष्टतः झलकती थी ,क्योकि यूरोपियन ,एंग्लो-इंडियन एंव कुछ विशेष श्रेणियों के सरकारी कर्मचारियों को इस अधिनियम के अनुपालन से मुक्त रखा गया था ।

----------अधिनियमित सिविल प्रशानिक सेवा:-
                                    १८३३ के चार्टर एक्ट ने भारत में समस्त पदो के लिए योग्यता के आधार पर नियुक्ति के सिध्दांत के द्वारा भारतीयों के लिए समस्त पदो के द्वारा उन्मुक्त कर दिए थे ।१८५३ के चरटर एक्ट ने कम्पनी के अधीन उच्च प्रशासकीय सेवाओ में चयन के लिए लंदन में प्रतियोगी परीक्षाओ के आयोजन का प्रावधान रखा गया था ।भारत में ब्रिटिश नौकरशाही प्रशानिक सेवाओ में भारतीयों के प्रवेश की विरोधी थी ।लॉर्ड लिटन का भी यही विचार था और वह उच्च प्रशानिक सेवाओ के द्वारा भारतीयों के लिए बिलकुल बंद कर देना चाहता था ।अपने उस उद्देश्य में विफल होने पर उसने प्रतियोगी परीक्षाओ में प्रवेश के लिए अधिकतम आयु सीमा २१ से १९ वर्ष कम करने भारतीयों द्वारा प्रतियोगी परीक्षाओ में शामिल होने के मार्ग के अवरोध खड़े किए ।इस दुर्भावनापूर्ण कार्य को सम्पूर्ण भारत में भारतीय प्रशासकीय सेवाओ में भारतीय प्रत्याशियों के चयन की सम्भावनाओ को अवरुध्द करने वाला कृत्य मन गया और इसकी भयंकर मृत्स्ना की गई ।

----------द्वितीय अफगान युध्द:-
                           लिटन ने उत्तरी -पश्चिमी सीमांत में "वैज्ञानिक सीमांत" की स्थापना के लिए अफगानों के विरुद्ध एक विवेकहीन युध्द को भरका दिया  ।यह दुस्साहसपूर्ण कार्य पूर्णतः विफल रहा जबकि इसमें निर्धन भारतीय जनता से वसूले गए लाखो रुपयो को इसमें बर्बाद किया गया ।


                                                                               १८८०-८४

वाइसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन :-
                                   जिस समय रिपन को भारत का वाइसराय नियुक्त किया गया,उस समय ग्लेडस्टोन क नेतृत्व वाली लिबरल पार्टी इंग्लैंड में सत्ता में आ गई थी ।इस प्रकार रिपन के साथ भारत में उदारवादी युग का अरुणोदय हुआ और उसने लिटन के अधिकांस प्रतिक्रियावादी और अलोकप्रिय कार्यो को निरस्त करने का प्रयास किया ।


--------वेनैक्यूलर प्रेस एक्ट ,१८८२ को निरस्त करना :-
                                            १८८२ के अति निन्दित वेनैक्यूलर प्रेस एक्ट को समाप्त कर दिया गया और भारतीय भाषाओ में प्रकाशित समाचार-पत्रो को शेष भारतीय समाचार-पत्रो के समान स्वतंत्रता की अनुमति दी गई ।


--------फैक्ट्री एक्ट ,१८८१ :-
                       कारखानो के श्रमिको की स्थिति-सुधारने के लिए पहली बार किसी अधिनियम को पारित किया गया ,जिनमे भारतीय कारखाना मजदूरो की सेवा की स्थितियों को नियमित करने तथा सुधािरने का प्रयास किया गया ।


--------वित्तीय विकेंद्रीकरण ,१८८२:-
                             लॉर्ड मेयो द्वारा शुरू किए गए वित्तीय विकेंद्रीकरण को रियन ने अधिक व्यापक रूप प्रदान किया ।राजस्व के संसाधनो को तीन श्रेणियों अर्थात केंद्रीय ,प्रांतीय और वर्गीकृत नाम से विभाजित किया गया ।

--------स्थानीय स्वशासन ,१८८२:-
                          आधुनिक भारत में रिपन स्थानीय स्वशासन का प्रवर्तक था ।१८८३-८५ के दौरान विभिन्न प्रांतो में स्थानीय स्वाशासक अधिनियम पारित किए गए ।षगरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों की स्थापना की गई ।स्थानीय स्वशासन का जितना अधिक लाभ प्रशानिक विकेंद्रीकरण एंव उसकी सख्समता के रूप के नहीं हुआ जितना की भारतीय जनता के राजनितिक प्रशिक्षण के रूप में हुआ ।

---------शैक्षिक सुधार:-
                वुड्स डिस्पैच के बाद देश में शिक्षा के विकास की समीक्षा करने के लिए १८८२ में एक शिक्षा आयोग की नियुक्ति की गई थी जिसने प्राथमिक शिक्षा के प्रसार और सुधार के लिए राज्यों को विशेष रूप से उत्तरदायी बनाने के लिए जोर दिया ।प्राथमिक शिक्षा की दायित्व नवस्थापित स्थानीय निकायों को सौपा जनन था ।माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के विकास के लिए सहायता अनुदान की प्रणाली और स्त्री शिक्षा के लिए सुविधाएँ देने का भी प्रस्ताव किया गया ।

--------इल्बर्ट बिल विवाद ,१८८३-८४:-
                            रिपन के गौरवपूर्ण शासनकाल का इल्बर्ट बिल विवाद के नाम से ज्ञात एक दुर्भग्यशाली विवाद के साथ समाप्त हुआ ।पहले यूरोपवासियों के मुकदमो की सुनवाई यूरोपीय मजस्ट्रेटो और न्यायाधीशों द्वारा की जाती थी, लेकिन वाइसराय की परिषद के विधि या कानूनी सदस्य सर सी.पि. .इल्बर्ट ने एक विधेयक तैयार किया जिनमे "केवल जाती-भेद पर आधारित प्रत्येक न्यायिक भेड़वाद" को पूर्णतः समाप्त किया गया था। इस बिल की यूरोपीय समुदाय के दबाव में बिल की संशोधित किया गया जिनमे उसी सिद्धांत को तिलांजलि दे दी गई जिसके लिए बिल में संशोधन करके  इसमें यह प्रावधान रखा गया की ब्रिटिश भारत के अंग्रेज और यूरोपियन(अपराधी) प्रजाजनों को बाहर जुरियो के द्वारा म्यकदमों की सुनवाई का अधिकार होगा,जिनमे सात जुरियो का यूरोपियन या अमरीकन अर्थात खेत होना आवश्यक था। न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में रंगभेद की नीति के प्रति भयंकर रोष व्यक्त किया गया ।

--------मैसूर राज्य की उसने पुराने शासक की वापसी :-
                                             बेटिंक ने कुप्राशन के आधार पर मैसूर राज्य की ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया था,पर रिपन ने इसे उसके पुराने शासक राजवंश को पचास वर्ष बाद वापस कर दिया,जो ब्रिटिश भारत के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी ।


                                                                               १८८४-८८

वाइसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड डफरिन :-
                                   उसके कार्यकाल में १८८५ में तृतीय आंग्ल-बर्मी युध्द हुआ ।जिसमे परिणामस्वरूप ऊपरी बर्मा (म्याँमार) को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में शामिल कर लिया गया और स्वंतंत्र देश के रूप में बर्मा का अस्तित्व समाप्त हो गया ।भारत के भावी इतिहास की दृष्टि से इसी वर्ष की दूसरी महत्वपूर्ण घटना ए.ओ.ह्रूम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना थी ।परन्तु उत्तर पश्चिमी सीमांत में अफगानिस्तान की सीमा पर पंजदेह की घटना ने ब्रिटेन को रूस से साथ युध्द के कगार पर ललकर खरा कर दिया ।इस युध्द की संभावना के कारण भारतीय सेना की संख्या वृध्दि की गई ।


                                                                                १८८८-९४

वाइसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड लैंसडाउन :-
                                     उसके कार्यकाल के दौरान १८९१ में मणिपुर में एक विद्रोह हो गया,जिसके परिणामस्वरूप वहा एक सैनिक अभियान भेजा गया ।विद्रोह का दमन करने के उपरान्त मणिपुर के राजकुमार टिकेन्द्रजीत और टोंगोल सेनानायक जिन्होंने विद्रोह का नेतृत्व किया था,को सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई और महाराजा कुलचंद्र और उनके भाई को आजन्म कारावास की सजा दी गई ।इससे पूर्व १८८९ में कश्मीर के महाराजा को राजगद्दी का परित्याग करने के लिए बाध्य किया गया ।

-------इंडियन कांउन्सल एक्ट,१८९२:-
                            इस संवेधानिक अधिनियम का पारित होना एक बहुत महत्पूर्ण घटना थी,क्योकि भारतीय संविधान निर्माण की दिशा के यह पहला चरण था  ।इस अधिनियम को भारतीयों में बढ़ते हुए असंतोष के कारण पारित किया गया था ,उसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेश ने अपनी स्थापना के साथ ही व्यक्त करना प्रारम्भ कर दिया था ।१८९२ के अधिनियंजक ने विधायिकाओं के अधिकारों का विस्तार किया और उन्हें लघु संसदों के रूप में प्रिंट कर दिया ।विधायिकाओं के अधकारो में विस्तार के परिणामस्वरूप देश के सर्वोत्तम प्रतिभाशाली लोग इनकी और आकर्षित हुए ।अनेक प्रितिष्ठित भारतीय नेताओ ,जैसेकि गोपालकृष्ण गोखले ,आशुतोष मुकर्जी ,रास बिहारी भोश और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी आदि ने इन विधायिकाओं में स्थान प्राप्त किए ,चुकी इन विधायिकाओं के सदस्यों का निर्वाचन एक अस्पष्ट और विधायिका का कार्यपालिका पर के नियंत्रण नहीं था अतः यह अधिनियम भारतीय राष्ट्रवादियो को संतुष्ट नहीं कर स्का और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्येक अनुवर्ती अधिवेशनों में इसकी भतसरना की जाती रही ।


                                                                                 १८९४-९९

वाइसराय और गवर्नर जनरल एल्गिन द्वितीय :-
                                        उसके पांच वर्ष का कार्यकाल उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश की कबाइली जातियों के विद्रोह के कारण संकटग्रस्त रहा ।इन कबाइली विद्रोहों का दमन करने के कील सैनिक अभियान किए गए जो जनहानि एंव संसाधनो के अपव्यय की दृष्टि से बहुत महंगे सिध्द हुए ।१८९५ में एक आंग्ला-रुसी समझौता पर हस्ताक्षर किए गए ,जिसके द्वारा रूस में काबुल (आक्सस)नदी को ब्रिटिश साम्राज्य की दक्षिण सीमा के रूप में स्वीकार किया ।१८९६-९७ में भारत का अधिकाँश भाग एक भयंकर अकाल कीचपेट में आ गया ।इस अकाल के उपरान्त अकाल के कारणों की जांच के लिए लॉयल आयोग को नियुक्त किया गया ।परन्तु इस आयोग की जांच के लिए लॉयल आयोग को नियुक्त किया गया ।परन्तु इस आयोग की जांच रिपोर्ट पूर्ण होने से पूर्व ही,१८९९मे भारत में दुसरा कहीं अधिक भयंकर अकाल पड़ा ।ऐसे व्यापक और विनाशकारी अकाल को पिछले दो सौ वर्षो में कभी भी अनुभव नहीं किया गया था ।इस स्थिति के कारण लॉर्ड कर्जन ने द्वितीय अकाल जाँच आयोग नियुक्त किया ।


                                                                                 १८९९-१९०५

वाइसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन :-
                                 सम्भवतः किसी भी अन्य ब्रिटिश गवर्नर जनरल के विरुध्द भारतीय लोगो के मन में इतनी अधिक उग्र घृणा और दुर्भावना जाग्रत नही हुई ,जितनी की कर्जन के विरुध्द हुई ।वह भारत के प्रति ब्रिटिश सम्राज्वादी नीतियों का नग्न प्रतीक था ।जब उसने भारत में वाइसराय के रूप में पदभार ग्रहण किया ।उस समय भी भारत भयंकर संकट के डोर से गुजर रहा था ।१८९६-९८ के महा अकाल के उपरान्त देश को विभिन्न भागो विशेषतः पश्चिमी भारत को वयुबंनिक (गिल्टिदार)प्लेग ने जकर लिया,जिस के परिणामस्वरूप कर्जन के काल में द्वितीय अकाल जांच आयोग नियुक्त किया गया ।

-------विदेश नीति :-
                १८९७-९८ में सीमांत कबाइली जातियों के विद्रोही के कारण उसने सन्टुष्टीकरण की नीति का अनुसरण किया और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत का गठन किया गया ।कर्जन ने तिब्बत में रुसी विस्तारस्वाद की योजनाओ को विफल करने के लिए तिब्बत में एक सैनिक अभियान भेजा जो ल्हासा तक आगे बढ़ गया (१९०४)।इस अभियान के उपरान्त तिब्बत पर युध्द का हर्जाना थोपा गया ।इस हर्जाने की अदायगी की जमानत या सुरक्षा के बटोर भारत में ब्रिटिश शासन ने तिब्बती प्रदेश चुम्बी घाटी पर ७५ वर्षो के लिए अधिकार कर लिया ।कर्जन की वैदेशिक एंव साम्राज्य्वादी नीतियों का लक्ष्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थिति को अमेघ रूप से शक्तिशाली बनाना था ।इसी दृष्टि से उसने अनेक आंतरिक सुधारो को भी क्रियान्वित किया ।

-------पुलिस सुधार (१९०२-०३):-
                      सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के पुलिस प्रशासन व्यवस्था की जांच के लिए सर एंड्रयू फ्रेजर की अध्यक्षता में एक पुलिस आयोग की नियुक्त किया गया ।इस आयोग की रिपोर्ट में पुलिस बल को कुशलता या सख्समता से बहुत दूर ,प्रशिक्षण एंव संगठन में दोषपूर्ण ,भष्ट एंव दमनपूर्ण बताया गया ।इस आयोग्य ने समस्त ब्रिटिश प्रांतो में पुलिस बल की संख्या वृध्दि एंव उनके वेतन-वृध्दि करने तथा केंद्र एंव प्रांतो में अपराध गुप्तचर विभाग ( C.I.D )की स्थापना करने का सुझाव दिया ।

------प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम ,१९०४:-
                                      भारत की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण .परिरक्षण एंव पुनरुध्दार के लिए इस अधिनियम को पारित किया गया और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की गई ।

-----विश्वविधालय आयोग्य १९०२ एंव भारतीय विश्वविधालय अधिनियम ,१९०४:-
                                                                                       इस आयोग के सुझाओ के आधार पर इस अधिनियम को पारित किया गया था,जिसका उद्देश्य विश्विधालय की कार्यकारिणी समितियों आदि में निर्वाचित सदस्यों के स्थान पर नामजद सदस्यों की संख्या वृध्दि करना था ।

------आर्थिक सुधार:-
              आर्थिक सुधारो के क्षेत्र में आकाल आयोग आदि का गठन किया गया ।इस आयोग ने कृषि के विस्तार का सुझाव दिया ।कृषि एंव पशुधन के विकास एंव कृषि के क्षेत्र में वैधानिक तरीको को प्रचलित करने के लिए केन्दीय कृषि विभाग की स्थापना की गई ।उद्दोग एंव वाणिज्य विभाग की भी स्थापना की गई ।रेलवे के विकास के लिए रेलवे बोर्ड का गठन किया गया ।

------बंगाल का विभाजन ,१९०५:-
                     कर्जन की महानतम राजनितिक मूल बंगाल का विभाजन था ,जिसका सर्वव्यापी रूप से भयंकर विरोध किया गया ।अविभाजित बंगाल को (मुख्य)बंगाल और पूर्वी बंगाल के रूप में विभाजित किया एंव बंगाल के कुछ जिलो को असम के साथ शामिल कर दिया गया ।इस कृत्य के पीछे मुख्य उद्देश्य बंगाल के जुझारू राष्ट्रवाद की कमर तोरणा था,परन्तु इस कार्य का पतिकुल प्रभाव पड़ा।बंगाल विभाजन के विरुध्द एक अभूतपूर्व स्वरूप वाला सेषव्यापी स्वदेशी आंदोलन उठ खरा हुआ ।स्वदेशी एंव बहिष्कार जैसे शब्दों को पहली बार स्वदेशी आंदोलन के दौरान सूना गया ।यधपि १९११ में बंगाल के विभाजन को निरस्त कर दिया गया ,परन्तु इसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के निर्बाध गति से विकास का मार्ग प्रशस्त किया ।


                                                                             १९०५-१०

वाइसराय एंव गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो :-
                                उसके कार्यकाल में सहसा राष्ट्रीय आंदोलन का विस्फोट हुआ, जिसके परिणामस्वरूप उग्रवादी ,क्रांतिकारी और आंतकवादी गतिविधियों का उदय हुआ ।इन गतिविधियों को रोकने के लिए अनेक दमनपूर्ण उपायो जैसे की शार्वजनिक सभाओ के आयोजन को प्रतिबंधित करने के लिए अध्यादेश ,समाचार-पत्र (अपराधो को भरकाने वाले समाचार प्रकाशित करने के विरुध्द) अधिनियम १९०८ विस्फोटक पर्दाथ अधिनियम आदि पारित किए गए।इस प्रकार १९०८ का वर्ष एक काल वर्ष था, जिसमें बहुत से दमनात्मक कानून पारित किए गया ।ये उपाय अधिनियमों को पारित करने तक ही सिमित नही थे,बल्कि इनमे अंतर्गत मुकदमें चलाए गए और जनता का उत्पीरण किया गया ।बंगाल के विभाजन के विरुद्ध स्वदेशी आंदोलन को कुचलने और देश के शेष भाग में बढ़ते हुए उग्रवादी विचारधारा को रोकने के लिए प्रमुख राष्ट्रवादी पर मुकदमें चलाये गए और दिखावटी मुकदमें अथवा बिना मुकदमा चलाए हुए ही दंडित किया गया ।इस प्रकार प्रथम दृष्टांत मई १९०७ में लाला लाजपत राय और अजित सिंह को देश से निष्कासित करके बर्मा में मॉडल भेजना था।उसी वर्ष उग्रवादी गुट के सात नेताओ जैसें की विपिनचंद्र पाल,अशिवनी कुमार दत्त,और पांच अन्य को भी देश-निकाले की सजा दी गई ।लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना जिसके सम्पूर्ण देश में भंयकर उत्तेजना जाग्रत की वह  थी बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमा जिसके द्वारा उन्हें जुलाई १९०८ में व्द वर्ष के लिए देश निकाले की सजा दी गई ।१९०५ में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में कांग्रेश में विघटन के बाद उदारवादियों ने उग्रवादियों को उनकी नियति पर छोर दिया और उदारवादी ब्रिटिश सरकार के प्रति आकृष्ट हुए ।इन दमनपूर्ण परिस्थितियों की प्रष्टभूभि में ब्रिटिश सरकार ने उदारवादियों के सन्तुष्टिकरण के लिए कुछ रियायतों की घोषणा की ।जिनमे दो रियायतें विशेष रूप से उल्लेखनीय है;एक तो वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद में पहली बार भारतीय सदस्य को नियुक्ति किया गया और दुसरा १९०९ के सवेधानिक सुधारो को पारित किया गया ।१९०९ के सवेधानिक सुधार में पहली बार 'बांटो और राज्य करो' के सिध्दांत का प्रतिपादन करते हुए ,मुसलमानो को पृथक निर्वाचन मंडल प्रदान किया गया और १९०९ के अधिनियम के अंतर्गत संशोधित विधायिाओ में मुसलमानो को वशेष अधिकार प्रदान किए गए ।इसी शरारत के परिणामस्वरूप १९४७ में भारत विभाजन हुआ ।इस अवधि के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से उग्रवादियों के निष्कासन के कारण कांग्रेस ने अपना जनसमर्थन खो दिया और कई क्रांतिकारी संगठनो का गठन किया गया ।


                                                                              १९१०-१६

वाइसराय और गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिग :-
                                  लार्ड हार्डिग ने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में वाइसराय का पदभार ग्रहण किया था,इसलिए उसने संतुष्टीकरण विषयक अनेक कार्य किए जैसे की १९११ में बंगाल के विभाजन को निरस्त कर दिया ।दुसरा महत्वपूर्ण कार्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित करना था ।इन सभी परिवर्त्तनो की घोषण दिल्ली में दिसंबर १९११ में सम्राट जार्ज पंचम के राज्याभिषेक दरबार में घोषित की गई ।इन संतुष्टीकरण विषयक उपायो का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के जनविरोधी कार्यो के विरुध्द भारत में जिस उग्र राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया ने जन्म लिया था,उसे शांत करना था ।परन्तु दुर्भाग्यवश इन श्मनकारी उपायो को बहुत विलम्ब से लागू किया गया था ।राजनीति असंतोष और क्रांतिकारी गतिविधियों में भारत-भूमि में अपनी जारी अब तक मजबूत कर ली थी ।हार्डिग इस विभ्र्ग के प्रभाववश संतुष्टीकरण विषयक यह कार्य कर रहा था की इनके द्वारा आंतवादी आंदोलन को सफलतापूर्वक दबाया जा सकता है ।परन्तु शिग्र ही उस समय मोहभंग हो गया जब २३ दिसंबर १९१२ को दिल्ली में राजधानी स्थानांतरण के औपचारिक समारोह के अवसर पर जब वह जलूस के रूप में दिल्ली में प्रवेश कर रहा था की उस पर चांदनी चौक में बम फेका गया ।
                            अगला वर्ष १९१३ कहीं अधिक घटनापूर्ण रहा और उग्रवादी राष्ट्वार व्यापक प्रेस गतिविधियों के रूप में उदित हुआ;फरोज शाह मेहता ने बंबई क्राँनिकल का और गणेश शंकर विधार्थी ने प्रताप का प्रकासन प्रारम्भ किया ।गांधीजी भी उस समय राजनितिक क्षेत्र में उत्तर आये ,जब दक्षिण अफ्रीका में अपनकीकृत विवाहो को अवैध घोषित करने के विरुद्ध उन्होंने सत्याग्रह का संचालन किया ।मुस्लिम लीग ने लखनऊ अधिवेशन में अपने नवीन सविधान को पारित किया और सेन फ्रेसिस्को में गदर पार्टी का गठन किया गया ।४ अगस्त १९१४ को प्रथम विश्वयुध्द के छीर जाने से इन आंदोलनों को शक्ति एंव प्रेरणा मिली ।भारत को इस महायुध्द में घसीटा गया और ब्रिटिश साम्राज्य्वाद की सुरक्षा के लिए भारतीय सैनिक को अपने प्राणो की वली देनी पड़ी ।१९१५ में ही गांधीजी दक्षिण अफ्रिका से भारत वापस आ गए ।तिलक को अपनी कारावास की सजा पूर्ण होने के छःमाह पूर्व ही रिहा कर दिया गया ।सितमबर १९१५ में श्रीमती एनी बीसेंट ने होम रुल आंदोलन छाले के लिए होम रुल लीग की स्थापना की ।यधपि १९१५ में दो महान षष्ट्र्वादी नेताओ-गोखले और फिरोज शाह मेहता की मृत्यु हो गई लेकिन उनके अभाव को गांधीजी ने अपनी ने पूरा कर दिया ,जिन्होंने अहिंसावादी राष्ट्रीय आंदोलन का शुभारम्भ किया ।गांधीजी ने अपनी हत्या तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को अपना सफल नेतृत्व प्रदान किया और इसीलिए इस अवधि को सही ही गान्धियुग खा गया है ।
                  प्रथम विश्वयुद्ध के कारण भारतीय मुसलमान में इस्लाम धर्म के खलीफा अथवा प्रधान तुर्की के सुलतान की पराजय और उसे सिंहासनच्युत करने के कारण असंतोष की भावना भरकी ।मुसलमानो ने अपने सम्मान और स्थिति की सुरक्षा के लिए खिलाफल आंदोलन खरा कर दिया ।


                                                                    १९१६-२१
वाइसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड चेम्सफोर्ड :-
                                                         उसका कार्यकाल अनेक घटनाओ के कारण स्मरणीय है, जिनमे बाल गंगाधर तिलक एंव शरमती एनी बीसेंट के नेतृत्व में संचालित होम रुल या स्वराज आंदोलन एंव खिलाफत आंदोलन अर्वाधिक उल्लेखनीय है ।इसी अवधि में महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम के सर्वोच्च नेता के रूप में उदित हुए जिसमे उन्होंने असहयोग और सत्याग्रह के अपने नवीन ब्रहास्त्र का खुलकर प्रयोग किया ।इस अवधि की कुछ अन्य महत्वपूर्ण घटनाएँ थी ।१९१९ का सवेधानिक सुधार अधिनियम रौलट एक्ट के रूप में ज्ञात उत्पीरणकारी अधिनियम का क्रियान्वयन एंव उसके विरुध्द गांधीजी द्वारा सत्याग्रह का नेतृत्व जालियावाला बाग़,अमृतसर में निर्दोष लोगो का नृशंस नरसंहार,गांधीजी के नेतृत्व में प्रथम सर्वव्यापी असहयोग एंव खिलाफत आंदोलन का संचालन ।१ अगस्त १९२० को तिलक की मृत्यु की उपरान्त महात्मा गांधी जनमानस के निर्विवाद नेता हो गए ।
                                                                                       १९१९ के सवेधानिक सुधार अधिनियम को १ जनवरी १९२१ को लागू किया गया,जिसके द्वारा प्रांतो में द्वैध शासन की स्थापना हुई ।चेम्सफोर्ड के शासनकाल में दो अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए ।एक तो पहली बार भारतीयों को ब्रिटिश सेना के कमीसण्ड पदो के लिए सक्षम माना गया ।शैक्षिक दृष्टि से भी दो महत्वपूर्ण कार्य हुए ,वे थे ;१९१६ में पुन में घोंघो केशव कर्वे द्वारा प्रथम महिला विश्वविधालय की स्थापना और कलकत्ता विश्वविधालय की स्थिति एंव उसके विकाश की सम्भावनाओ की जांच एंव रचनात्मक सुझाव देने के लिए १९१७ में सैडलर आयोग की नियुक्ति की गई ।इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भारत में लगभग सर्वत्र शैक्षिक नीतियों में परिवर्तन आया और अनेक शैक्षिक कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया गया ।



                                                                               १९२१-२६

वाइसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड रीडिंग:-
                                   वह एक ऐसे नाजुक समय में भारत आया था,जब गांडीवादी रणनीति के भारतीय राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात किया था ।नवंबर १९२१ में जब ज्रींस ऑफ वेल्स का भारत में आगमन हुआ,तो देशव्यापी हरताल ने उनका स्वागत किया ।इस घटना और प्रथम गांधीवादी आंदोलन के जादुई प्रभाव ने भारत में ब्रिटिश शासन को अपनी नीतियों में व्यापक परिवर्तन लाने के लिए बाध्य किया ।यधपि "चौरी चौरा" घटना के बाद असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया गया परन्तु इस आंदोलन की सफलता के साथ-साथ केरल में हिंसक मोपला विद्रोह (१९२१) ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य्वाद की जारो को हिला दिया ।इस विस्फोटक स्थिति को शांत करने के लिए अनेक उदारवादी कार्य किए गए,जैसे की प्रेस अधिनियम और १९१९ के रौलट एक्ट को निरस्त कर दिया गया ।फौजदारी कानून संशोधन अधिनियम से जातीय या रंग-भेड़वाद को काफी सीमा तक दूर करके और कपास उत्पाद शुल्क को समाप्त करके ,सामान्य जनअसंतोष को दूर करने का प्रयास किया गया ।सार्वजनिक सेवाओ में भर्ती की व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए ।यह निश्चय किया गया की उच्च पदो पर नियुक्ति के लिए भारतीयों और यूरोपियन लोगो को समान स्तर पर रखा जाए या बराबरी का दर्जा प्रदान किया जाए और १९२३ में (सिविल सर्विसेज)प्रशानिक सेवाओ में उम्मीदवारों के चयन के लिए दिल्ली और लंदन में एकसाथ प्रतियोगी परीक्षा के आयोजन की व्यवस्था की गई  ।इस प्रकार लगभग आधी शताब्दी से की जा रही मांग को स्वीकार कर लिया गया ।
                                            राष्ट्रीय स्तर पर भी कुच्छ दूरगामी महत्व की घटनाएँ घटित हुई ।१९२२ में विश्वभारती विश्वविधालय ने कार्य करना प्रारम्भ कर दिया ।दूसरी ओर १९०९ के अधिनियम ने साम्प्रदायिकता के जिन जीवाणुओ को जन्म दिया था,उन्होंने सम्पूर्ण देश को इस काल में जकर लिया।१९२३ ओर १९२५ में मुल्तान ,अमृतसर ,दिल्ली ,अलीगढ़ अर्बी और कलकत्ता में भंयकर साम्प्रदायिक देंगे हुए ।हिन्दू महासभा जिसे मुस्लिम लीग के मुकाबले में स्थापित किया गया था,ने वाराणसी में अपना अधिवेसन स्थापित किया ।भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जिसका १९२१ में मानवेंद्रनाथ राय द्वारा सूत्रपात किया गया था,ने की अपनी गतिविधिया आरम्भ कर दी ।चौरीचौरा घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने के कारण गांधीजी की जन-प्रतिक्रिया से रक्षा करने के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया ।इस कारण राष्ट्रीय जीवन में एक रिक्तत्ता उतपन्न हो गई ।परन्तु जिन कांग्रेसजनों ने मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास के नेतृत्व में स्वराज्य पार्टी के नाम से विद्यिकाओ के लिए चुनाव लड़े उन्होंने प्रांतीय विधानसमानो और केंद्रीय परिषद में समान,सतत और संगत अवरोधात्मक नीति का सफलतापूर्वक अनुसरण करके सरकार के कार्यो में भंयकर अवरोध पैदा किए ।९ अगस्त १९२५ को प्रसिध्द काकोरी षड्यंत्र केस ने ब्रिटिश शासन को हिला दिया ।साम्प्रदायिक देंगे,जो लगभग प्रतिवर्ष होने वाली घटना हो गए थे,राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ति को निचोड़ रहे थे ।इस साम्प्रदायिक पागलपन की सर्वाधिक दुखद घटना मदिसंबर १९२६ में एक महान राष्ट्रवादी और आर्यसमाज के नेता स्वामी सर्ध्दनंद की हत्या थी।


                                                                               १९२६-३१

 वाइसराय और गवर्नर जनरल लार्ड इर्विन:-
                                     साइमन कमिसन की नियुक्ति से राष्ट्रीय जीवन में विधमान गतिहीनता टूट गई ।१९२८ के प्रारम्भ में जब साइमन स्मिसन भारत आया तो भारतीय लोगो ने इस कारण इसका बहिष्कार किया क्योकि इसमें किसी भी भारतीय सदस्य को शामिल नहीं किया गया था ।ब्रिटिश सरकार ने भारत की भावी संवेधानिक व्यवस्था के संबंध में कांग्रेस को चुनौती दी की वह ऐसे सर्वसम्मत सवेधानिक व्यवस्था को प्रस्तुत करे जिसके पीछे विभिन्न दलों की सहमति हो ।इस चुनौती के प्रत्युत्तर में अगस्त १९८२ में लखनऊ में सर्वदलीय सम्मेलन आयोजित किया गया ।इस सम्मेलन में भावी सवेधानिक व्यवस्था का प्रारूप तैयार करने के लिए ,मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक सर्वदलीय समिति का गठन किया गया ।परन्तु मुहम्मद अली जीन के नेतृत्व  वाली मुस्लिम लीग ने इस आधार पर इसे अस्वीकार कर दिया,,क्योंकि नेहरू रुपोर्ट में मसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को नहीं माना गया था ।जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट के विरोध में अपना चौदह-सूत्री मांग-पत्र प्रस्तुत किया ।मुसलमानो के अतिरिक्त सीखो से कुछ वर्गो ,गैर-ब्राह्मणो और पिछड़े वर्गो तथा दलित समुदायों ने भी नेहरू रिपोर्ट को पूर्णतः अनुमोदित नहीं किया लेकिन उत्तरदायी सरकार बनाने के मुद्दे पर पूरा भारत एक था ।पूर्ण स्वतंत्रता की भावना ने भी धीरे-धीरे जड़ पकड़ ली ।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने मद्रास अधिवेशन में स्वतंत्रता को भारत का लक्ष्य घोषित कर चुकी थी।
                   भारत के राजनितिक जीवन में एक तूफ़ान पनप रहा था ।क्रन्तिकारी गतिविधिया पुनर्जीवित हो गई थी ।इनमे से कुछ महत्वपूर्ण क्रांतिकारी घटनाएँ थी ।लाहौर के सहायक पुलिस अधीक्षक साहर्स् (जिसने साइमन कमीशन के विरुध्द जुलुस का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपत राय पर घातक प्रहार किया था) ,की हत्या ,दिल्ली एसेंबली हॉल में बम फेकना(१९२९),लाहौर षड्यंत्र केस और चौसठ दिन की भूख हरताल के बाद जतिन दास की शहादत (१९२९), वाइसराय लार्ड इर्विन को ले जाने वाली रेलगाड़ी पर दिल्ली के निकट बम फेकना,(१९२९) आदि।
                                                      इन तनावपूर्ण पृष्ठिभूमि में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन(१९२९) में पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य घोषित किया था।४ फ़रवरी १९३० को साबरमती में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की जो बैठक हुई ,उसमे सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का निर्णय लिया गया ।१२ मार्च १९३० को गांधीजी ने अपनी ऐतिहासिक दांडी यात्रा शुरू की और नमक कानून तोरकर इस आंदोलन का उद्घाटन किया ।सरकार ने भयंकर दमनात्मक उपायो द्वारा इस आंदोलन को कुचलते का प्रयास किया।इसी समय साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए नवंबर १९३० में लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया,जिसका कांग्रेस ने वहिष्कार किया ।परन्तु गोलमेज सम्मेलन के कुछ सदस्यों ने भारत आने पर कांग्रेस से गोमेज सम्मेलन के बहिष्कार से संबंधित अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने की अपील की और गांधीजी से वाइसराय से मिलने के लिए अनुरोध किया ।इस बैठक के फलस्वरूप गांधी-इर्विन समझौते (मार्च ५,१९३१)पर हस्ताक्षर किए गए जिसके परिणामस्वरूप सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर दिया गया ।



                                                                               १९३१-१९३६

वायसराय और गवर्नर जनरल लार्ड विलिंग्डन :-
                                      गांधी-इर्विन समझौते के तत्काल बाद सभी राजनितिक बंदियों को रिहा कर दिया गया और सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया गया ।द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (१ सितंबर से  १ दिसंबर १९३१) में प्रतिनिधित्व करने के लिए महात्मा गांधी कांग्रेस के केवल मात्र प्रतिनिधि थे ।परन्तु इस सम्मेलन में साम्प्रदायिक समस्या के बारे में मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना के दुराग्रह के कारण कोई समझौता नहीं हो सका ।भारत विषयक सचिव सैम्यूल होर कैसे कुछ ब्रिटिश राजनीतिज्ञ गुप्त रूप से जिन्ना का समर्थन कर रहे थे ।इस प्रकार गांधीजी द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से निरास होकर भारत वापस आये और उनके भारत-आगमन के बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया ।सविनय अवज्ञा आंदोलन ,जिसे गांधी-इर्विन समझौते के बाद स्थगित कर दिया गया था,पुनः प्रारम्भ करने का निर्णय किया गया ।इस प्रकार जनवरी १९३२ में सविनय अवज्ञा आंदोलन का द्वितीय चरण प्रारंभ हुआ ।परन्तु सविज्ञा आंदोलन प्राम्भ होने के कुछ माह बाद ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैसे मैकडॉनल्ड ने १६ अगस्त १९३२ को अपने साम्प्रदायिक निर्य(एवार्ड) की घोषणा की ।इस एवार्ड में मुसलमानो यूरोपियनों और सीखो के पृथक निर्वाचक मंडल के द्वारा अपने पर्तिनिधियो का चुनाव करने का अधिकार प्रदान किया गया ।इस एवार्ड में हरिजनों या दलित वर्ग को भी पृथक सम्प्रदाय का दर्जा दिया और उन्हें भी पृथक निर्वाचक मंडल के द्वारा अपने प्रतिनिधिनो को चुनने का अधिकार प्रदान किया गया ।दलित वर्ग से संबंधित साम्प्रदायिक एवार्ड के विरुद्ध गांधीजी ने आमरण अनशन प्रारम्भ किया ।उनके अनशन के छठे दिन (२५ सितंबर ,१९३२)पूना पैकट के द्वारा इस एवार्ड में संशोधन किया गया ।अगले कुछ वर्षो तक तक गांधीजी अस्प्र्थ्यता निवारण या हरिजन अभियान में व्यस्त रहे ।उनके इस अभियान के परिणामस्वरूप संपूर्ण भारत में हरिजनों के लिए मंदिर सर्वाजनिक कुएं आदि खोल दिए गए ।मई १९३३ को गांधीजी ने अपनी आत्मशुध्दि और हरिजन समस्या के प्रति अपने साथियो को "सावधान एंव सक्रिय रखने के लिए" इक्कीस दिन का अनशन किया ।अनशन की घोषणा के बाद ही उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया गया और उन्होंने अध्यक्ष को सुक्षाव दिया की सविनय अवज्ञा आंदोलन को छःसप्ताह के लिए स्थगित कर दिया जाए ।गांधीजी की इच्छाओ के प्रति आदर व्यक्त करते हुए आंदोलन को स्थगित कर दिया गया और उसके स्थान पर १ अगस्त १९३३ को व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया गया ।इस आंदोलन का उद्घाटन करते ही गांधीजी को पुनः बंदी बना लिया गया ।परन्तु कारागार में चुकी उन्हें अस्पृश्यकता निवारण अभियान संचालित करने के संबंध में सुविधाएँ प्रदान नहीं की गई ,अतः उन्होंने १६ अगस्त को पुनः अनशन प्रारम्भ कर दिया ।अनशन के दौरान जब उनकी स्थिति बहुत गंभीर हो गई तो २३ अगस्त १९३३ को उन्हें कारागार से बिना शर्त रिहा कर दिया गया ।सम्पूर्ण अगला वर्ष उन्होंने हरिजन कल्याण के कार्य के लिए व्यतीत किया और इस बीच व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन मृतप्राय हो गया ।
                                           इसी बीच (जनवरी १९३३) में पाकिस्तान आंदोलन के बीच बोए गए जिन्हे परवर्ती वर्षो में सतर्कतापूर्वक पोषित किया गया ।इसके अतिरिक्त दिसंबर १९३२ में तृतीय गोलमेज सम्मेलन सम्पन्न हो चुका था और साइमन कमिसन रिपोर्ट एंव गोलमेज सम्मेलन में की गई चर्चाओ के आधार पर भारत शासन अधिनियम १९३५ (गवर्न्मेन्ड इण्डिया यक्त १९३५)ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया ।ब्रिटिश भारत में प्रचलित किए गए सवैधानिक सुधारो की श्रखला में यह अंतिम अधिनियम था ।



                                                                                १९३६-४४

वाइसराय और गवर्नर जनरल लार्ड लिनलियागो :-
                                       भारत में नियुक्त अंग्रेज गवर्नर जनरलों में इनका कार्यकाल सबसे लम्बा था ।सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति और कांग्रेस द्वारा आधिकारिक रूप से मई १९३४ में इस आंदोलन को वापस लेने के बाद अधिकाधिक कांग्रेसजन १९३५ के अधिनियम में प्रस्तावित विधायिकाओं में प्रवेश करने के इच्छुक थे ।कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने नई व्यवस्था के अंतर्गत पद-ग्रहण करने की अनुमति भी दे दी ।इस नवीन अधिनियम के अंतर्गत पहला आम चुनाव १९३६-३७ की सर्दी के मौसम के हुआ ।पांच प्रांतो की विधानसभाओ में कांग्रस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ ।दो अन्य प्रांतो में कांग्रेस समर्थक गुटो के समर्थन से इसने मंत्रिमंडलों का गठन किया ।कांग्रेस मंत्रिमंडल लगभग दो वर्षो तक अक्टूबर १९३९ तक सत्तारूढ़ रहे ।तदुपरांत ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत को द्वितीय विश्व युध्द में घसीटने के प्र्शन पर कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया ।इस अवधि में मुस्लिम लीग कांग्रेस के विरुद्ध जी तोर प्रचार और विषवमन करती रही ।
१९ फ़रवरी १९३९ को कांग्रेस का ५१ वां अधिवेशन हरिपुर (गुजरात)में आयोजित किया गया,जिसमे सुभाष चन्द्र बोष को सर्वसम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया ।अगले वर्ष सुभाष बोस और निहरु-गांधी गट के बीच मुलभुत मतभेद उठ खरे हुए ।अगले वर्ष मार्च १९३९ में त्रिपुरी (जबलपुर ,मध्य प्रदेश)में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में इन मतभेदों के कारण कांग्रेस के अध्यक्ष पद के निर्वाचन के प्र्शन पर दोनों गुटो में टकराव हुआ ।सुभाष चन्द्र बोष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए गांधीजी के प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमय्या को चुनाव में पराजित किया ।अगले कुछ महीनो में सुभाष बोस एंव गांधी-नेहरू गट के बीच मतभेद बढ़ते गए ।अंततः अप्रैल १९३९ में सुभाष बोष ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और फांवरड ब्लाक नामक एक नई पार्टी का गठन किया ।
१९३६ से यूरोप के क्षितिज पर युध्द के बादल घने होते जा रहे थे ।३ सितमबर १९३९ को ब्रिटेन एंव जर्मनी के मध्य युध्द का विस्फोट हो गया ।इस विश्वयुध्द में भारत को भी युध्दरत बना लिया गया कांग्रेस ने इस संबंध में वाइसराय की घोषण का विरोध किया और जवाहर लाल नेहरू ने इस संबंध में कांग्रेस की नीति को स्पष्ट करते हुए कहा की "युध्द और शान्ति के मामले भारतीय लोगो द्वारा निर्णीत किए जाने चाहिए ।साम्राज्य्वादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वे अपने संसाधनो के दोहनी की अनुमति नही दे सकते हे ।"अक्टूबर १९३९ में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने यह भी मांग की "भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र अथवा घोषित किया जाना चाहिए।"ब्रिटिश युध्द संबंधी नीतिओ के विरोध में सभी कांग्रेस मंतिमंडलो ने त्यागपत्र दे दिए ।जिस दिन कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दिए उस दिन मुस्लिम लीग ने मुक्ति दिवस का आयोजन किया ।
                                                        इस अवधि में मुस्लिम लीग के प्रति गांधीजी में मुलभुत परिवर्तन आया ।२५ जून,१९४० को हरिजन पत्र में प्रकाशित अपने एक लेख में उन्होंने स्पष्तः स्वीकार किया की "मुस्लिम लीग निस्संदिग्ध रूप से साम्प्रदायिक है और भारत को टुकड़ो में बांटना चाहती है ।"दूसरी ओर मुस्लिम लीग ब्रिटिश सरकार के प्रति घनिष्ठ होने के प्रयास कर रही थी ओर इसके लिए वह युध्द-प्रयासों को समर्थन दे रही थी ।
                                    महायुद्ध की बिगरती स्थिति के कारण ब्रिटिश सरकार ने अपने युध्द-प्रयासों के रजामंद समर्थन को प्राप्त करने के लिए कुछ शासक प्रयास किए ।८ अगस्त १९४० को अगस्त प्रस्ताव के रूप में वाइसराय ने भारत के संबंध में का नीति विषयक घोषणा की ।इसमें गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद का विस्तार करने अल्पसंख्यक जनमत को पूरा प्रतिनिधित्व देने और युध्द के उपरान्त नवीन सविधान की रचना करने के लिए एक प्रतिनिधि भारतीय (सविधान)सभा गठन करने के बारे में प्रस्ताव प्रस्तुत किया ।
अगस्त प्रस्तावों की कांग्रेस ने आलोचना की,जबकि मुस्लिम लीग ने इनका भव्य स्वागत किया ।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने १७ अक्टूबर १९४० को व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन प्राम्भ किया और इसी वर्ष दो माह के उपरान्त १७ दिसंबर को इसे स्थगित कर दिया ।
         मई १९४०मे विस्टन चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने ।९ सितमबर १९४१ को उन्होंने घोषणा की अटलांटिक चार्टर भारत पर लागू नही होता है ।ब्रिटेन और संयुक्त राज अमरीका ने अपनी युध्द नीति का प्रतिपादन करते हुए संयुक्त राज से अटलांटिक चार्टर को प्रसारित किया था ,जिसमे अन्य चीजो के साथ यह भूषित किया गया था की "लोगो को जहां अपना जीवन-यापन करना है की सरकार के स्वरूप के बारे में निर्णय लेने का उन्हें अधिकार होगा उनके सार्वभोग् अधिकार होने और जिन राज्यों की स्वशासन से बलात वंचित कर दिया गया है वहा इसकी पुनर्स्थापना की जायेगी ।चर्चिल की घोषणा ने भारतीय जनमानस को बुरी तरह आहत किया इसी समय सुभाष बोस भारत में गुप्त रूप से बच निकले (१७ जनवरी १९४१) और बर्लिन पहंचे ।अगले वर्ष उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया जिसने भाहर से भारत की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया ।१९४२ के प्रारम्भ में विश्वयुध्द ने उस समय खतरनाक मोर ले लिया जब ब्रिटेन के विरुध्द घुरि राष्ट्रों (धुरी शक्तियों)के पक्ष में जापान महायुध्द में शामिल हो गया ।यह बिलकुल स्पष्ट था की जापानियों की बर्मा और मणिपुर से होकर पूर्व की ओर से भारत पर आक्रमण करने की योजना थी ।सुदूर पूर्व में जापानी विजयो के आघात से इंग्लैंड को भारत के प्रति नम्र रुख अपनाने की प्रेरणा मिली ओर मार्च १९४२ में ब्रिटिश युध्द मंत्रिमंडल ने नए सवैधानिक सुधारो के लिए सर स्टेफोर्ड कीप्स को भेजा ।
      क्रिप्स योजना में भारत को डॉमिनयॉं दर्जा प्रदान करने का वचन दिया गया ओर इस उद्देश्य के लिए युध्द के बाद भारतीय लोगो के प्रतिनिधित्व वाली सविधान सभा के गठन को प्रस्तावित किया गया ।मुस्लिम लीग की मांगो के सन्टुष्टीकरण के लिए यह भी प्रस्तावित किया गया की यदि कोई ब्रिटिश प्रांत या देशी रियासत प्रस्तावित संघ में शामिल नहीं होना चाहते हो तो उन्हें अपना पृथक राज्य बनाने का अधिकार होगा ।इस तरह क्रिप्स परस्ताओ में भविष्य के लिए वायदे किए गए पर कोई तात्कालीन रियायतें नहीं दी गई थी ।गांधीजी ने क्रिप्स परस्ताओ लो "किसी दिवालिया हो रही बैंक की उत्तर-दिनांकित चेक "बताया ।
                                                                                                    क्रिप्स मिशन की असफलता से गांधीजी ने  दृष्टिकोण में तात्कालिक ओर भिन्न प्रकार का परिवर्तन आया ।१४ जुलाई १९४२ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने एक लम्बा प्रस्ताव पारित किया ,जिसे सामान्यतः भारत छोरो प्रस्ताव कहा जाता है ।इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद गांधीजी ने देशवासियो का आह्वन करते हुए कहा की ,"आप सब लोगो को इस क्षण से स्वंय को स्वतंत्र पुरुष या स्त्री समक्षना चाहिए ओर इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए जैसें की आप स्वतंत्र व्यक्ति है ।हमे पूर्ण स्वतंत्रता से कम किसी भी वस्तु से संतुष्टि नही होगी ।हम मरेंगे या मरेंगे ।"
                  ८ अगस्त १९४२ को कांग्रेस संगठन के समस्त महत्पूर्ण नेताओ ,गांधीजी ,अबुल कलाम आजाद आदि को बंदी बना लिया गया ।कांग्रेस के नेताओ की सामूहिक गिरफ्तारी से भारत छोरो आंदोलन नेतृत्व-विहीन हो गया और लोगो के आक्रोश ने हिंसात्मक रूप ले लिया ।भारत छोरो आंदोलन सबसे अल्पकालिक सर्वाधिक हिंसात्मक और सबसे अधिक जुझारू गांधीवादी आंदोलन था ।वर्ष १९४२-४३ में भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष समाप्त हो गया ।क्रांतिकारी आंदोलन जो इस शताब्दी के आरम्भ में शुरू हुआ था और गांधीजी द्वारा १९२०मे शुरू किया गया अहिंसक सत्याग्रह लगभग एकसाथ ही समाप्त हुए ।
          वर्ष १९४३-४४ में दो और घटनाएं घटित हुई ।मुस्लिम लीग की अलगववादी मांग अधिक मुखरित हुई और मार्च १९४४ में इसने अपने कराची अधिवेशन में "बांटो और छोरो" का नारा दिया ।दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना आजाद हिन्द फौज के सैनिक दस्तो की सफलता थी जो मणिपुर तक आ पहुंचे थे ।


                                                                               १९४४-४७

वाइसराय और गवर्नर जनरल लार्ड वेवल :-
                                   १९४४-४५ में भाग्यचक्र पूरी गति से धूम रहा था ।१९४४ में लार्ड लिनलीयिगो के स्थान पर लार्ड वेवेल को वाइसराय नियुक्त किया गया ।ब्रिटेन के आम चुनाओ में विस्टल चर्चिल की कंजरवेटिव पार्टी की हार हुई और लेबर सरकार सत्ता में आई जिसके प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली थे ।जून १९४५ में लार्ड वेवल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को संवेधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए नई योजना पर विचार करने हेतु शिमला में (शिमला सम्मेलन-जून २५,१९४५)आमंत्रित किया ।लेकिन साम्प्रदायिक गतिरोध ने सम्मेलन को असफल कर दिया ।अब द्वितीय विश्वयुध्द का समापन स्पष्तः नजर आ रहा था ।८ और ९ अगस्त १९४५ को जापान के दो नगरो-हिरोशिमा  और नागासाकी पर अनु बमो के विस्फोट से अंतिम शाहसि युध्दरत राष्ट्र के सैन्य मंसूबे भी जलकर राख हो गए ।
                                             इसके ठीक बाद सितमबर १९४५ में एटली ने भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने से संबंधित अपनी ऐतिहासिक घोषणा की ।इससे पूर्ण बंबई में गैर-कमीसण्ड भारतीय नौसेनिकों ने बंबई में सैनिक विद्रोह कर दिया ।मार्च १९४६ में केबिनेट मिशन भारत भेजा गया,जिसने १६ माई ,१९४६ को अपने प्रस्तावों की घोषणा की ।इन परस्ताओ में भारतीयों को यह विश्वास हो गया की ब्रिटेन की लेबर सरकार भारत को स्वत्रंत करने के लिए वस्तुतः इच्छुक है  ।कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन प्रस्ताबो को स्वीकार कर लिया ।जवाहर लाल नेहरू ,जिन्हें कुछ समय पूर्व कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वासित किया गया,ने मौलाना कलाम आजाद से कांग्रेस के अध्यक्ष पद का भार ग्रहण किया ।
                               मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया और १६ अगस्त १९४६ को सीधी कार्यवाही दिवस का आयोजन किया,जो साम्प्रदायिक दंगो का नग्न नृत्य था ।लीग के इशारे पर बंगाल में जो साम्प्रदायिक दंगो की लपटों में लपेट लिया ।इसी बीच सविधान सभा के चुनाव आयोजित किए गए और मुस्लिम लीग द्वारा अंतरिम सरकार में शामिल होने के लिए इंकार करने के बावजूद ,केंद्र में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में अंतिरिम सरकार का गठन किया गया ।९ दिसंबर १९४६ को सविधान सभा का पहला अधिवेश हुआ ।
                                           २० फ़रवरी १९४७ को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत से ब्रिटिश शासन के समापन की ऐतिहासिक घोषणा करते हुए कहा की "ब्रिटिश सरकार जून १९४८ से पूर्व किसी उत्तरदायी सरकार के हाथो में शासनभार सौप देगी ।एटली ने लार्ड वेवल के स्थान पर विस्काउंड मांउटबेटन की वाइसराय के रूप में घोषणा की ।



                                                                                १९४७-४८

भारत के अंतिम ब्रिटिश वाइसराय एंव गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबैटन :-
उन्होंने २४ मार्च १९४७ को कार्यभार संभाला और भारत के विभिन्न विरोधी राजनितिक डालो से विचार-विमर्श किया एंव इस निष्कर्ष पर पहुंचे की भारत के विभिन्न विरोधी का केवल मात्र निदान देश का विभाजन और उन्होंने अपने इस मंतव्य के लिए कांग्रेस नेताओ को सहमत कर लिया ।३ जून १९४७ को भारत विभाजन की योजना (तीन जून योजना) की घोषणा की गई ।४ जुलाई १९४७ को एटली द्वारा ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वतंत्रता विधेयक प्रस्तुत किया गया।दो सीमा निर्धारण आयोग गठित किए गए -पहला बंगाल के विभाजन के लिए और दुसरा पंजाब के विभाजन के लिए ।सर सायरील रेडक्लिफ दोनों आयोग के अध्यक्ष थे ।७ अगस्त को जिन्ना ने भारत से कराची के लिए प्रस्थान किया ,जहा पकिस्तान की सविधान सभा ने उन्हें पाकिस्तान का गवर्नर जनरल एंव राष्ट्रपति चुना ।
                                                                              १४ अगस्त की रात्रि को भारत की सविधान सभा का सत्र हुआ ।उत्साह और उत्तेजन के वातावरण में नेहरू ने इसके सदस्यों को सम्बोधित किया ।और इस तरह १५ अगस्त १९४७ भारत आजाद हुआ, और लाल किला ,इण्डिया गेट पर तिरंगा झंडा फहराया ।




                     


                       












                                  

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